“जब भी हम किसी गाँव में बिजली लगाते हैं और वहां पहली बार बल्ब जलता है तो गाँव वालों की प्रतिक्रिया दिल छूने वाली होती है। एक गाँव में तो लोग बिजली आने के बाद दो घंटे तक नाचे थे और एक गाँव में तो जैसे ही बल्ब जला, वहां के एक बुजुर्ग की आँखों में आंसू आ गए। उन्होंने कहा, ‘मैंने कभी नहीं सोचा था कि रात में भी मेरे घर में रौशनी हो सकती है।’ बहुत सी जगह तो लोग जलते हुए बल्ब को सबसे पहले नमस्कार करते हैं।” – पारस लूम्बा
यह सब कहानियां भारत के दूर-दराज के गांवों की हैं, जिन्हें मात्र 5-6 साल पहले बिजली मिली है। आज के डिजिटल जमाने में जहां हम अपने घर में एक मिनट भी बिना बिजली और बिना इंटरनेट के नहीं रह सकते। उसी देश में आज भी न जाने कितने इलाके हैं जहाँ आज तक बिजली नहीं पहुंची है।
जहाँ आज़ादी के इतने दशक बाद भी सरकार और प्रशासन की मदद नहीं पहुँच पाई, वहां की तस्वीर बदलने की ज़िम्मेदारी एक घुम्मकड़ ने उठाई है। जी हाँ, पिछले 7 सालों में यह घुम्मकड़ अपनी टीम के साथ मिलकर देश के दूरगामी गांवों को बिजली से रौशन कर रहा है।
पारस लूम्बा, एक आर्मी अफसर का बेटा जो पेशे से इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हैं लेकिन अपने दिल से एक चेंजमेकर हैं। साल 2012 में उन्होंने अंटार्टिका के इंटरनेशनल एक्सपीडिशन में भाग लिया था और यहाँ से उनकी ज़िंदगी ने रुख बदला। वह बताते हैं कि इस एक यात्रा के बाद उन्हें समझ में आ गया कि वह अपनी ज़िंदगी में क्या करना चाहते हैं। इसके बाद उन्होंने भारत के लद्दाख और अन्य कुछ पहाड़ी इलाकों में यात्राएं कीं।
“मैंने देखा कि कैसे क्लाइमेट चेंज यहाँ पर रह रहे लोगों की ज़िंदगी पर सीधा असर करता है। अंटार्टिका में तो कोई नहीं रहता लेकिन लद्दाख और हिमालय में बहुत छोटे-छोटे गाँव हैं, जिन पर यहाँ के मौसम का असर पड़ता है। मैंने सोचा कि क्यों न मैं अपनी यात्राओं के दौरान इन लोगों के लिए कुछ करूँ,” उन्होंने बताया।
साल 2013 में उन्होंने अपनी जॉब छोड़कर ‘ग्लोबल हिमालयन एक्सपीडिशन’ की शुरुआत की।
अपने इस स्टार्टअप के ज़रिये उन्होंने पहाड़ों पर ट्रैकिंग के शौक़ीन लोगों को पहाड़ों की यात्राएं करवाना शुरू किया। साथ ही, उन्होंने तय किया कि जो भी लोग ट्रैकिंग के लिए आएंगे उन्हें अपनी ट्रिप के फीस के साथ एक और फीस देना होगा। यह एकस्ट्रा फीस, जो यात्री उन्हें देंगे, उनसे वह पहाड़ों में बसे गांवों के लिए काम करेंगे।
उन्होंने अपने काम के लिए सबसे पहले लद्दाख को चुना। पहले एक्सपीडिशन में अलग-अलग देशों से उन्हें 20 लोगों ने जॉइन किया। इस एक्सपीडिशन के दौरान उन्होंने लेह के महाबोधि स्कूल में एक ‘थर्ड पोल एजुकेशन बेस’ की नींव रखी।
आखिर क्या है यह एजुकेशन बेस/ ई- बेस:
इस स्कूल में लेह के गांवों के 500 से ज्यादा बच्चे पढ़ते हैं। इन बच्चों की अच्छी शिक्षा के लिए इस ई-बेस को तैयार किया गया। सौर ऊर्जा से चलने वाले इस ई-बेस में बच्चों के लिए टैबलेट्स, लैपटॉप और इंटरनेट का कनेक्शन है, जिससे कि वे पूरी दुनिया से जुड़ सकते हैं। साथ ही, यहाँ टीवी, 10 टेलीस्कोप और बच्चों के लिए अच्छी ज्ञानवर्धक किताबें भी हैं।
इस ई-बेस की सबसे खास बात है कि ये उस जगह पर है जहां पर बाहरी दुनिया से शायद कोई संपर्क करने का ज़रिया नहीं है। यह ई-बेस पूरी तरह से सौर ऊर्जा से चलता है और यहाँ एक रोबोटिक्स लैब भी है। यहाँ बच्चों के लिए समय-समय पर वर्कशॉप भी होती है।
“मैंने जब पहली बार एक्सपीडिशन की घोषणा की थी, तब ही अपने इस प्रोजेक्ट के बारे में भी बता दिया था। इस प्रोजेक्ट की वजह से एक्सपीडिशन की फीस थोड़ी ज्यादा थी, लेकिन फिर भी हमें दुनिया भर से 300 एप्लीकेशन आईं। हमें समझ में आ गया कि हम जो कर रहे हैं वह बिल्कुल सही है और इस तरह हमारे पहले एक्सपीडिशन के बाद इन बच्चों की ज़िंदगी में सकारात्मक बदलाव आया,” पारस ने कहा।
पारस को एक बार एक छात्र के गाँव, सुमदा चेंमो में जाने का मौका मिला। इस गाँव तक पहुँचने के लिए उन्होंने दो दिन ट्रैकिंग की। वह बताते हैं कि यह गाँव 13 हज़ार फीट पर है और इसका इतिहास लगभग हज़ार साल पुराना है। हैरत की बात यह थी कि इतना पुराना गाँव होने के बावजूद भी यहाँ पर बिजली का नामों-निशान नहीं था।
“उस वक़्त मुझे लगा कि क्यों न हम इंजीनियर मिलकर इस गाँव को रौशन करें,” उन्होंने कहा।
गांवों को कर रहे हैं रौशन:
बस वहीं से पारस ने ठान लिया कि उनके दूसरे एक्सपीडिशन का उद्देश्य इस गाँव को बिजली देना है। साल 2014 में उन्होंने DC माइक्रोग्रिड तकनीक का इस्तेमाल करके इस गाँव में 3 सोलर DC माइक्रोग्रिड लगाए। पारस के मुताबिक, DC माइक्रोग्रिड लगाना आसान है और इनमें वोल्टेज और करंट कम होने से किसी को झटका लगने का खतरा भी नहीं रहता है।
पारस और उनकी टीम ने अब तक 104 गांवों को रौशन किया है और आगे भी उनका काम जारी है। वह कहते हैं, “जहां सड़कें खत्म होती हैं वहां से हमारी यानी कि ग्लोबल हिमालयन एक्सपीडिशन की कहानी शुरू होती है!”
“GHE की टीम में हम 8 लोग हैं और सभी इंजीनियरिंग बैकग्राउंड से हैं। हम हर एक डिवाइस खुद बनाते हैं चाहे वह पैनल हो या फिर ग्रिड सिस्टम। यह सब इन गांवों के मौसम और ज़रूरत के हिसाब से बनता है। फिर एक्सपीडिशन के समय हम, ट्रैकिंग के लिए अलग-अलग कोनों से आए यात्रियों के साथ में मिलकर इन गांवों को बिजली से रौशन करते हैं,” उन्होंने आगे बताया।
यह अनुभव सिर्फ पारस के लिए नहीं बल्कि हर एक यात्री के लिए यादगार होता है। उन्हें अहसास होता है कि कैसे सिर्फ एक ट्रैकिंग ट्रिप, पूरे गाँव के लोगों की ज़िंदगी बदल सकती है। इससे लोगों को ‘इम्पैक्टफूल’ और ‘रिस्पोंसीबल’ टूरिज्म का कॉन्सेप्ट समझ में आता है। सोने पर सुहागा यह है कि उनसे सीखकर और प्रेरणा लेकर, कई यात्रियों ने अपने इलाकों में यह पहल शुरू की है।
“एक नेपाली लड़की ने हमारे साथ ट्रैकिंग की थी और वह एक प्रोजेक्ट का हिस्सा बनीं। अब वह खुद नेपाल में इस तरह के अभियान कर रही है। ऐसी ही पेरू देश के एक यात्री ने वहां पर यह शुरू किया है। सबसे अच्छा यही है कि हम दूसरे लोगों को एक प्रेरणा दे पा रहे हैं,” उन्होंने कहा।
कैसे करते हैं काम:
सबसे पहले वह और उनकी टीम सर्वे करके हर साल कुछ गाँव चुनते हैं, जहां उन्हें काम करना है। इसके बाद, वह एक्सपीडिशन की घोषणा करते हैं और साथ में, इन गांवों के बारे में भी बता देते हैं। उनके यहाँ अप्लाई करने वाले हर एक व्यक्ति को बताया जाता है कि उनसे उनकी एक्सपीडिशन फीस के अलावा, इन गांवों में बिजली व्यवस्था करने के लिए भी फीस ली जा रही है।
एक्सपीडिशन के दौरान ट्रैकिंग के लिए आये हुए लोगों के साथ मिलकर वे चुने हुए गाँव में पहुँचते हैं और बिजली लगाते हैं। इसके अलावा, बहुत बार सामाजिक संगठन और सीएसआर फाउंडेशन उनसे टाई-अप करती हैं।
जैसे ही किसी भी गाँव को इलेक्ट्रीफाई करने के लिए साधन इकट्ठा हो जाते हैं, GHE की टीम ज़रूरी डिवाइस जैसे ग्रिड, सोलर पैनल, बैटरी आदि गाँव के उस नजदीकी स्थान तक पहुंचाती है जहां तक गाड़ी आ सकती है। यहाँ से गाँव के लोग इन चीज़ों को गाँव तक लेकर जाते हैं। फिर एक्सपीडिशन के लिए जब टीम गाँव में पहुँचती है तो इलेक्ट्रिफिकेशन का काम शुरू होता है।
पारस आगे बताते हैं कि इन माइक्रोग्रिड के रख-रखाव की ज़िम्मेदारी वे गाँव के लोगों को देते हैं। गाँव में हर एक घर इस काम के लिए हर महीने 100 से 150 रुपये देता है और इस रकम को एक बैंक अकाउंट में सेव किया जाता है। GHE की टीम गाँव के ही दो लोगों को ग्रिड की मेंटेनन्स के लिए ट्रेनिंग भी देती है, ताकि उनके गाँव के जाने के बाद कोई समस्या हो तो गाँव के लोग खुद उसे हल करने में सक्षम हों।
गांवों के लिए बनाए सस्टेनेबल मॉडल:
बिजली पहुँचाने के साथ-साथ GHE की टीम इन गांवों के लिए एक सस्टेनेबल मॉडल भी बना रही है। पारस बताते हैं कि उन्होंने 5-10 गांवों के क्लस्टर बनाकर, हर एक क्लस्टर में सर्विस सेंटर भी बनाएं हैं। इन गांवों में से ही किसी को इलेक्ट्रिसिटी और ग्रिड सिस्टम की अच्छी ट्रेनिंग देकर सर्विस सेंटर खुलवाया जाता है।
इससे आस-पास के गांवों में बिजली से संबंधित जो भी समस्या होती है, उसे यह सर्विस सेंटर हल करता है। इस तरह से उनके इस प्रोजेक्ट्स से गांवों में एनर्जी इंटरप्रेन्योर भी बन रहे हैं और यहाँ के गाँव के लोगों को रोज़गार मिल रहा है।
एनर्जी इंटरप्रेन्योर के साथ-साथ उन्होंने गाँव की महिलाओं को रोज़गार से जोड़ने के लिए ‘होम स्टे’ की पहल शुरू करवाई है। पहले इन गांवों में बिजली न होने के कारण यहाँ ट्रैकिंग के लिए आने वाले टूरिस्ट गाँव के बाहर कैम्पिंग आदि करते थे। पर पारस की टीम ने गांवों में होम स्टे शुरू करवाए और अब टूरिस्ट गांवों में रुकना पसंद करते हैं। गांवों में टूरिस्ट अपने फ़ोन चार्ज कर सकते हैं और उसके लिए भी वे एक्स्ट्रा पैसे देते हैं।
जो परिवार हैंडीक्राफ्ट प्रोडक्ट्स बनाते हैं, अब बिजली होने से रात में भी काम कर पाते हैं। इससे गाँव के लोगों की आमदनी बढ़ रही है और पलायन रुक रहा है। “बिजली आज के समय की मूलभूत ज़रूरत है। स्कूल, हेल्थ सेंटर या फिर कोई भी व्यवसाय, हर किसी में बिजली महत्वपूर्ण है। जैसे-जैसे इन गांवों में बिजली पहुँच रही है, वैसे-वैसे इन सब जगहों पर भी बदलाव हो रहा है,” उन्होंने कहा।
GHE की टीम ने 18 स्कूलों में 10- 10 कंप्यूटर लगाए हैं और वे हिमालयन इनोवेशन सेंटर भी चला रहे हैं। इस सेंटर के तहत उन्होंने एक टीचिंग फ़ेलोशिप शुरू की है और इस फ़ेलोशिप के लिए सेलेक्ट होने वाले लोगों को लद्दाख के स्कूलों में जाकर पढ़ाने का मौका मिलता है।
पारस कहते हैं कि अब उनकी टीम भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों की तरफ बढ़ रही है। उन्होंने पिछली कुछ यात्राओं में मेघालय और अरुणाचल प्रदेश के गांवों में काम किया है। उनका उद्देश्य पूरे भारत के दूर-दराज के गांवों तक पहुंचना है।
“हम नहीं चाहते कि भारत की प्राचीन सभ्यता को सहेजे हुए ये गाँव ‘घोस्ट विलेज’ बनें। पुराने जमाने में व्यापारी और यात्री इन गांवों में रुका करते थे और आज भी इन गांवों में न जाने कितने दशकों की कहानियां है। अगर हमारी एक कोशिश से हम देश की लुप्त हो रही इस सभ्यता को बचा सकते हैं तो हमें ज़रूर कोशिश करनी चाहिए,” उन्होंने अंत में कहा।
यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है तो आप पारस और उनकी टीम से 99100 89129 पर संपर्क कर सकते हैं!
संपादन – अर्चना गुप्ता