नुसरत 15 साल की थी जब वह बंगलुरु के एनजीओ, ड्रीम स्कूल फाउंडेशन की संस्थापक, मैत्रेयी से मिली। वह उन बहुत से छात्रों में थी, जो मैत्रेयी के पास अपने सपने पूरे करने के लिए आईं थीं। मैत्रेयी आज भी याद करती हैं कि कैसे नुसरत ने चाव से बताया था कि वह शेफ बनना चाहती है।
नुसरत अपने चार बहन-भाइयों में सबसे बड़ी है। वह 7 साल की थी जब उसकी माँ की मृत्यु हुई और फिर पिता भी उसे बूढ़े दादा-दादी के पास छोड़कर चले गए। उसके पिता ने दूसरी शादी कर ली और अब उनका एक दूसरा परिवार है।
यह दर्द आज भी नुसरत के दिल में है लेकिन इस दर्द को उसने कभी अपनी राह का काँटा नहीं बनने दिया और हर चुनौती का सामना डटकर किया।
मैत्रेयी कहती हैं, “उसके जानने वाले लोगों ने उसे घर चलाने के लिए कमाने के लिए कहा, लेकिन वह पढ़ना चाहती थी और हम उसकी मदद करना चाहते थे।”
ड्रीम स्कूल फाउंडेशन की मदद से नुसरत ने बीकॉम में दाखिला लिया। किसी भी अच्छे होटल मैनेजमेंट कॉलेज की फीस काफी ज्यादा थी और फंड करना मुश्किल था, इसलिए फाउंडेशन ने तय किया कि नुसरत को शहर के एक कैफ़े में ट्रेनिंग मिले।
कॉलेज की पढ़ाई के साथ-साथ नुसरत ने बेकिंग करना और कैफ़े चलाने के गुर भी सीखे। साथ ही, वह पार्ट टाइम जॉब भी करती थी।
आज नुसरत अपने सपने के एक कदम और करीब आ गई है। बैंक में काम करते हुए वह अपने घर की ज़िम्मेदारी उठा रही है और साथ ही, अपने कैफ़े के लिए भी बचत कर रही है। उम्मीद है कि आने वाले सालों में वह खुद का कैफ़े खोलेगी।
यह सिर्फ नुसरत की कहानी नहीं है। यह कहानी बंगलुरु के सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हज़ारों बच्चों की है। ये बच्चे अपने घर की पहली पीढ़ी हैं जो स्कूल जा रहे हैं या फिर ये दिहाड़ी मजदूरों के बच्चे हैं और इनके सपनों को उड़ान दे रहा है बंगलुरु का ‘ड्रीम स्कूल फाउंडेशन।’
सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर सुधारने के साथ-साथ, इस संस्था ने अपने अलग-अलग प्रोग्राम्स के ज़रिए 10, 000 से भी ज्यादा गरीब तबके के बच्चों की ज़िंदगी को बदला है।
सामाजिक कार्यों के लिए छोड़ी अच्छी-खासी नौकरी:
मैत्रेयी पुणे में पली-बढीं और 1988-89 में पुणे यूनिवर्सिटी से कंप्यूटर साइंस में मास्टर्स करके लगभग एक दशक तक आईटी सेक्टर में काम किया। भारत और विदेशों की टॉप MNC कंपनियों में अच्छे करियर के बावजूद उनके दिल में हमेशा ही सामाजिक सुधार के क्षेत्र में काम करने की इच्छा रही।
उन्होंने अपने पहले बच्चे के जन्म के बाद तय कर लिया कि वह मल्टी-नैशनल कंपनी की जॉब छोड़कर अपना पैशन फॉलो करेंगी।
बच्चों के बेहतर विकास और समाज में बदलाव लाने की इच्छा से उन्होंने CRY एनजीओ के साथ वॉलंटियरिंग शुरू की। उन्होंने संगठन में अपना काम इतने अच्छे से किया कि जल्द ही उन्हें स्थाई तौर पर नौकरी पर रख लिया गया। यहाँ भी उन्होंने लगभग एक दशक काम किया और फिर साल 2004 में CRY छोड़कर अपना संगठन, ड्रीम स्कूल फाउंडेशन की शुरुआत की। वह कहती हैं,
“CRY में काम के दौरान मुझे गरीब तबकों से आने वाले बहुत से बच्चों से मिलने के मौके मिले और इस अनुभव के चलते मुझे बहुत सी हकीकतों का पता चला। बहुत से संगठन इन बच्चों को सरकारी शिक्षा से जोड़ रहे हैं और यह बहुत सराहनीय है। लेकिन उन्हें लगता है कि उनकी ज़िम्मेदारी बच्चे के दाखिले पर खत्म हो जाती है। पर मैंने महसूस किया कि दाखिला तो सिर्फ पहला चरण हैं। बच्चों को स्कूल में रेग्युलर रख पाना बहुत बड़ी चुनौती है। एक दुर्भाग्य की बात यह भी है कि आए दिन सरकारी स्कूलों की शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। ऐसे में हम इस तस्वीर को बदलना चाहते हैं और इसलिए अपने जैसी सोच रखने वाले कुछ लोगों के साथ मिलकर हमने ड्रीम स्कूल फाउंडेशन के ज़रिए बदलाव का यह सफ़र शुरू किया।”
ड्रीम स्कूल फाउंडेशन की शुरुआत:
शुरू से ही, फाउंडेशन का उद्देश्य बहुत ही स्पष्ट रहा है। वे सरकारी स्कूलों की स्थिति को हर स्तर पर सुधारना चाहते हैं।
टीम, शहर के सभी सरकारी स्कूलों की मैनेजमेंट समिति के साथ करीब से काम करती है ताकि सभी समस्याओं को समझा जा सके। स्कूल में बच्चे के दाखिले कराने और उनके रेग्युलर आने से लेकर स्कूल के इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे शौचालय, कक्षाएं आदि बनवाने जैसी हर एक समस्या के समाधान पर यह फाउंडेशन काम कर रही है।
बच्चों के सीखने के स्तर को बढ़ाने के लिए भी वे प्राथमिक रूप से अलग-अलग गतिविधि कराते हैं, जैसे स्पोकन इंग्लिश क्लास, गणित, विज्ञान जैसे विषयों के लिए अलग से स्टडी सेशन आदि। बच्चों को पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करने के लिए वे उनके माता-पिता को भी बच्चों की पढ़ाई में दिलचस्पी लेने के लिए जागरूक करते हैं।
“हम समझते हैं कि ज़्यादातर माता-पिता स्कूल नहीं गए हैं और इसलिए वे बच्चों को पढ़ाई में मदद नहीं कर सकते। लेकिन वे अपने घर में ऐसा माहौल तो बना सकते हैं जिससे बच्चों को रोज स्कूल जाने और पढ़ने का प्रोत्साहन मिले,” उन्होंने कहा।
दो साल पहले तक, फाउंडेशन अपने वॉलंटियर्स के नेटवर्क की मदद से शहर के लगभग 40 स्कूलों के विकास पर काम कर रहा था। इन सभी वॉलंटियर्स पर अपने-अपने इलाके के स्कूलों की ज़िम्मेदारी थी।
पिछले दो सालों में उन्होंने अपनी प्रक्रिया को और व्यवस्थित किया है और अपने काम को बढ़ाया है। अब वे शहर के 3 क्लस्टर- यशवंतपुर, आरटी नगर और ओल्ड एअरपोर्ट रोड में 20 सरकारी स्कूलों को सुविधाएं दे रहे हैं।
“अब हम बच्चों के साथ शुरू से लेकर अंत तक काम करते हैं, उनके प्राइमरी स्कूल में दाखिले से लेकर उन्हें रोज़गार मिलने तक।”
उनके कुछ प्रोग्राम्स हैं:
हेडस्टार्ट:
“साल 2009 के आसपास हमने सरकारी स्कूलों का एक स्थिर ट्रेंड देखा कि ज़्यादातर बच्चे, खासकर लड़कियां स्कूल से ड्रापआउट हो जाती हैं जब उन्हें प्राइमरी स्कूल से हाई स्कूल जाना होता है मतलब कि 7वीं और 8वीं कक्षा में। यह बच्चों के लिए बहुत ज़रूरी वक़्त होता है क्योंकि जो बच्चे आगे पढ़ना चाहते हैं उन्हें हाई स्कूल में दाखिला लेना होता है। बहुत बार माता-पिता अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए जागरूक नहीं होते हैं या उन्हें शिक्षा की कदर नहीं होती है तो वे बच्चों को आसानी से स्कूल छोड़ने देते हैं। ये बच्चे जो 11 से 13 साल की उम्र के बीच होते हैं, अपने माता-पिता के साथ काम करने लगते हैं या फिर घर पर छोटे भाई-बहनों को संभालते हैं।”
इसके बाद, मैत्रेयी और उनकी टीम ने महसूस किया कि इस ट्रेंड का एक मुख्य कारण यह भी है कि सरकारी स्कूलों से सफलता की ऐसी कोई कहानियाँ नहीं आतीं जो बच्चों के लिए उत्साहवर्धन का उदहारण बन सकें। इसके अलावा, जब माँ-बाप देखते हैं कि सरकारी स्कूलों से पढ़े हुए बच्चों को नौकरी मिलने में समस्याएं आ रही हैं तो शिक्षा से उनका भरोसा उठ जाता है।
वह कहती हैं, “हमसे अक्सर माता-पिता कहते हैं, ‘तीन साल में क्या ही पढ़ लेगा? अगर काम नहीं मिला तो वही करेगा जो उसका अनपढ़ बाप करता है। वक़्त क्यों बर्बाद करें फिर?”
इसलिए, हेडस्टार्ट प्रोग्राम सीधा ड्रापआउट की समस्या पर फोकस करते हुए हाई स्कूल के बच्चों और उनके शिक्षकों के साथ काम करता है। इस प्रोग्राम के जरिए यह निश्चित किया जाता है कि बच्चे कम से कम दसवीं कक्षा पास करें। इस प्रोग्राम से बच्चों को आर्थिक मदद, अकादमिक कोचिंग और मेंटर का सपोर्ट मिलता है।
“बहुत से बच्चे जो पढ़ाई में अच्छे हैं और किसी बेहतर प्राइवेट या फिर सेमी-गवर्नमेंट स्कूल में पढ़ना चाहते हैं, लेकिन उनके पास आर्थिक साधन सीमित है, तो हम उनका दाखिला अच्छे स्कूलों में कराते हैं। उन्हें आर्थिक तौर पर मदद करते हैं और कम से कम तीन साल के लिए उनकी प्रोग्रेस मॉनिटर करते हैं, जब तक वे दसवीं पास न कर लें,” उन्होंने कहा।
बहुत बार, सरकारी स्कूलों में अच्छा कर रहे बच्चे प्राइवेट स्कूलों में जाकर पीछे रहने लगते हैं क्योंकि यहाँ की पढ़ाई का स्तर काफी ऊँचा है। बहुत बार बच्चे आत्म-विश्वास खो देते हैं और अपने सहपाठियों की बराबरी न कर पाने पर निराश हो जाते हैं।
इस समस्या को हल करने के लिए ड्रीम स्कूल फाउंडेशन ने यशवंतपुर, आरटी नगर और मल्लेश्वरम में अपने शिक्षा केंद्र शुरू किए हैं। स्कूल के बाद बच्चे कम से कम दो घंटे इन शिक्षा केंद्रों पर देते हैं। इन केंद्रों पर शिक्षा के साथ-साथ उनके पूरे व्यक्तित्व को निखारने पर ध्यान दिया जाता है। उन्हें इंग्लिश बोलना, कम्युनिकेशन स्किल, लाइफ स्किल, कंप्यूटर एजुकेशन आदि की शिक्षा भी दी जाती है।
बच्चों की पृष्ठभूमि को समझते हुए उनके मानसिक स्वास्थ्य पर खास ध्यान दिया जाता है। उनकी काउंसलिंग की जाती है और उन्हें तनाव और डर से लड़ने के तरीके समझाए जाते हैं। साथ ही, उन्हें सकारात्मक स्वाभाव रखने के लिए प्रेरित किया जाता है।
टेनप्लस:
मैत्रेयी बताती हैं, “हमारे पहले बैच में, हेडस्टार्ट प्रोग्राम के 85% बच्चों के स्कोर फर्स्ट क्लास रहे और जब उन्होंने कॉलेज में दाखिला लेने के लिए हमसे मदद मांगी तो हमें उनकी मदद करने के तरीके ढूंढने थे।”
टेनप्लस प्रोग्राम, हेडस्टार्ट प्रोग्राम का ही एक्सटेंशन है। इसमें सबसे ज्यादा ज़रूरतमंद ग्रुप के बच्चों को प्राथमिकता दी जाती है जैसे अनाथ बच्चे, सिंगल पैरेंट के बच्चे, बहुत ही गरीब परिवारों के बच्चे, दिव्यांग आदि। सबसे पहले इनका ही दाखिला कराया जाता है।
सबसे पहले फाउंडेशन इन बच्चों का एप्टीट्यूड टेस्ट लेता है ताकि उनकी दिलचस्पी के क्षेत्र को समझ सके और फिर इन्हें स्कॉलरशिप दी जाती है। साथ ही, इन बच्चों को अकादमिक कोचिंग भी दी जाती है।
उनके प्रोग्राम लीप के अंतर्गत, फाउंडेशन बच्चों को कुछ स्किल ट्रेनिंग भी देता है ताकि उन्हें रोज़गार से जोड़ा जा सके।
आज उनके सैकड़ों बच्चे अलग-अलग क्षेत्र में पढ़ाई कर रहे हैं। इनमें से कई इंजीनियरिंग और 15 बच्चे मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं।
“सबसे अच्छा अनुभव होता है जब हमारे बच्चों को अच्छी कंपनियों में नौकरी मिलती है। उनकी शुरुआत की तनख्वाह उतनी होती है जितना उनके माता-पिता कई महीनों और बहुत बार पूरे साल में कमाते हैं। अब ये बच्चे अपने परिवारों को गरीबी से बाहर निकालने में मदद कर रहे हैं,” उन्होंने आगे बताया।
ऐसी ही एक कहानी है हरिहरण की, जो उनके ऑफिस हेल्पर का बेटा है। छठी कक्षा से ही वह फाउंडेशन के शिक्षा केंद्र पर आता-जाता रहा है। अंग्रेजी सीखने की चाह रखने वाले हरिहरण ने फाउंडेशन के शिक्षा केंद्र पर ही स्पोकन इंग्लिश की कक्षाएं लीं और फिर बड़ी कक्षाओं के एडवांस्ड स्टडी सेशन में भी आना शुरू किया।
दसवीं कक्षा उसने बहुत अच्छे अंकों से पास की और आगे साइंस स्ट्रीम चुनी। उसे डॉक्टर बनना था और इसके लिए उसने मेडिकल का एंट्रेंस टेस्ट दिया, लेकिन पहली बार में वह सफल नहीं हुआ। सबने उसे इंजीनियरिंग करने की सलाह दी, लेकिन हरिहरण अपनी जिद पर डटा रहा। उसने एक साल तक फिर से तैयारी की और इस बार उसने मेडिकल एंट्रेंस एक्ज़ाम में अच्छी रैंक प्राप्त की। फिलहाल, वह मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहा है और अगले साल अपनी डिग्री पूरी कर लेगा।
शिक्षा केंद्रों पर पढ़ने वाले बच्चों की ज़िंदगी के बदलाव के सफर के बारे में फाउंडेशन की प्रोग्राम मैनेजर, मीना शंकर कहती हैं,
“हमारे केंद्रों पर हर एक बच्चा अलग है और उनकी ज़िंदगी का सफर भी बिल्कुल अलग है। बहुत-से बच्चे व्यक्तिगत तौर पर विकसित हुए हैं तो दूसरे पढ़ाई में बहुत अच्छा कर रहे हैं। इन सबको अपनी क्षमता और प्रतिभा दिखाने के लिए एक मंच और आत्म-विश्वास मिला है। वे सवाल करने से नहीं हिचकते और उनकी सिर्फ रट्टा मार पढ़ाई नहीं है बल्कि उनकी पढ़ाई एक्सपेरिमेंटल है और समझ पर आधारित है। जब हमने पहली बार बच्चों के साथ काम करना शुरू किया तब हम यह देखकर हैरान थे कि आठवीं कक्षा के बच्चे प्राइमरी स्कूल के बेसिक कॉन्सेप्ट गुणा, भाग भी हल नहीं कर पा रहे थे। इस वजह से वे अपनी कक्षाओं में भी बहुत खराब प्रदर्शन कर रहे थे। हमने अलग-अलग तरह से उनकी सभी कॉन्सेप्ट क्लियर किए और अब वे अपनी कक्षाओं में अच्छा कर रहे हैं। उनके माता-पिता का फीडबैक भी काफी प्रोत्साहित करने वाला है।”
बंगलुरु के आरटी नगर के GKMPS में 8वीं कक्षा में पढ़ने वाला 14 वर्षीय रौशन, ड्रीम स्कूल फाउंडेशन के हेडस्टार्ट प्रोग्राम का हिस्सा है। वह कक्षा पांच से यहाँ पर है। अपने सफर के बारे में वह बताता है,
“मैं एक साल का था जब मेरे पिता का देहांत हुआ, वह पेंटर थे और मेरी माँ ने मुझे छोड़ दिया। मैं अपने दादा-दादी के साथ रहता हूँ। मेरी दादी 63 साल की हैं और स्कूल और लोगों के घरों में हेल्पर का काम करती हैं ताकि मुझे पाल सकें। मेरी ज़िंदगी में ड्रीम स्कूल फाउंडेशन का बहुत बड़ा योगदान है। पहले मुझे गणित, इंग्लिश और कन्नड़ पढ़ने में भी दिक्कत होती थी। मैं भले ही बहुत अच्छा छात्र नहीं हूँ, लेकिन मुझे पता है कि मैंने बहुत इम्प्रूव किया है।”
इस इंटरव्यू के अंत में जब रौशन से उसके सपनों के बारे में पूछा गया तो उसने कहा, “मैं कलेक्टर (जिलाधिकारी) बनना चाहता हूँ ताकि मेरे जैसे लोग जो खाने, कपड़े, छत, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी मूलभूत ज़रूरतों से वंचित रहते हैं, उनकी मदद कर सकूँ।”
रौशन उन 30 बच्चों में से एक है जो आपकी मदद से दसवीं कक्षा तक पहुँच सकते है!
इन बच्चों की आर्थिक मदद करने के लिए यहाँ पर क्लिक करें!
मूल लेख: जोविटा अरान्हा
संपादन – अर्चना गुप्ता