यह लेख व्हिस्पर (Whisper Pads) द्वारा प्रायोजित है।
माहवारी शुरु होने के बाद, 23 प्रतिशत लड़कियों के स्कूल छोड़ने का एक मुख्य कारण ‘पीरियड्स बुलिंग’ है। कई लड़कियां ‘उन दिनों’ में छेड़खानी से बचने के लिए, स्कूल जाने के बजाय घर पर ही रहती हैं। इसके अलावा, आज भी हमारे देश में पीरियड्स से जुड़ी जागरूकता और जानकारी की कमी है। यही कारण है कि लड़कियां पहली बार इसका सामना करती हैं, तो वे शर्म और संकोच से भरी हुई रहती हैं।
‘शारदा सर्वहितकारी मॉडर्न सीनियर सेकेंडरी स्कूल’ की टीचर पूनम शर्मा ने अक्सर लड़कियों को इस परेशानी का सामना करते हुए बहुत करीब से देखा है। द बेटर इंडिया से बात करते हुए वह बताती हैं, “मुझे याद है कि स्कूल में एक नई बच्ची का एडमिशन हुआ था और दूसरे या तीसरे दिन ही, पहली बार उसके पीरियड्स आ गए थे। वह छठी कक्षा में थी। वह बेहद डरी और घबराई हुई थी। मैंने उसे शांत किया और उसे नर्सिंग रूम लेकर आई, उसे एक पैड दिया … वह सचमुच बहुत घबरा गई थी।”
यह ऐसी कोई अकेली घटना नहीं है। भारत में, ‘पीरियड्स’, ‘मेंस्ट्रुएशन’ या ‘माहवारी’ ऐसे शब्द हैं, जिनके साथ कई टैबू जुड़े हुए हैं। लड़कियां जैसे-जैसे बड़ी होती हैं और 12 से 13 साल के करीब पहुंचती हैं, उनका पीरियड्स से समाना होना निश्चित है, लेकिन फिर भी ज्यादातर महिलाओं को इस बारे में बहुत कम या बिल्कुल भी जानकारी नहीं है। देश में माहवारी होने वाली केवल 36 प्रतिशत महिलाओं तक सैनिटरी नैपकिन की पहुंच है। इसके अलावा, अन्य महिलाएं, गंदा कपड़ा, राख, मिट्टी और पत्ते का इस्तेमाल करती हैं।
व्हिस्पर (Whisper Pads) ने की #KeepGirlsInSchool अभियान की शुरुआत
मेंस्ट्रुअल हेल्थ हाईजिन (MHM) की कमी, शिक्षा की कमी के कारण है। इस समस्या से निपटने के लिए, एक प्रमुख मेंस्ट्रुअल हाईजिन ब्रांड, व्हिस्पर ने #KeepGirlsInSchool अभियान शुरू किया है, जो पीरियड्स शुरु होने के बाद स्कूल छोड़ने वाली लड़कियों में जागरूकता पैदा करने की दिशा में काम कर रहा है।
इस अभियान ने भारतीय शिक्षा में ‘द मिसिंग चैप्टर’ – (स्कूल सिलेबस में पीरियड्स से जुड़ी जानकारियां शामिल न होने) की पहचान की है। ऐसा करके व्हिस्पर इस कड़ी को तोड़ने और 5 में से 1 लड़की को स्कूल छोड़ने से रोकने की कोशिश कर रहा है।
इंडियन सब-कॉन्टिनेंट, प्रॉक्टर एंड गैम्बल में व्हिस्पर® के सीनियर डायरेक्टर एवं कैटेगरी लीडर, अखिल मेश्राम कहते हैं, ”पिछले दो वर्षों में इस अभियान के जरिए हमने देखा है कि पीरियड्स शुरु होने के बाद, 5 में से 1 लड़की स्कूल छोड़ देती है। Whisper® का मानना है कि जागरूकता और स्वच्छता प्रथाओं को अपनाने से 100% मेंस्ट्रुअल हाईजिन प्राप्त की जा सकती है। लेकिन इस रास्ते में सबसे बड़ी चुनौती स्कूल के सिलेबस में मेंस्ट्रुअल हाईजिन और पीरियड्स शिक्षा से जुड़े किसी पाठ का शामिल न होना था।”
छात्राओं में आ रहे बदलाव
अखिल ने बताया, “स्कूल के सिलेबस में मेंस्ट्रुअल हाईजिन और पीरियड्स से जुड़ी जानकारियों को शामिल करने से लड़कियों को न केवल सही सूचनाएं मिलेंगी, बल्कि इसे ‘टैबू’ समझने वाली मानसिकता से भी वे बाहर आएंगी। इस तरह पीरियड्स के दौरान भी, लड़कियों को घर बिठाने की बजाय, उन्हें आगे बढ़ते रहने में मदद करना हमारा मिशन बन गया।”
शारदा स्कूल में, यह कार्यक्रम अपने साथ कई बदलाव लेकर आया है और इस बदलाव के गवाह शिक्षक, छात्र और माता-पिता सब हैं। पूनम बताती हैं कि जब उन्होंने पहली बार छात्रों को व्हिस्पर® (Whisper Pads) के साथ परामर्श देना शुरू किया, तो वे उत्सुक थे। लड़कियां सोच रही थीं कि बाकी के सारे छात्रों से उन्हें दूर क्यों ले जाया जा रहा है।
पूनम कहती हैं, “हम बच्चियों के साथ दोस्ताना व्यवहार रखते हैं और उनके साथ ईमानदार रहने की कोशिश करते हैं। हम उन्हें बताते हैं कि यह सिर्फ एक जैविक प्रक्रिया है। जब हमने पहली बार पूछा कि कितनी लड़कियों को पहले ही माहवारी हो चुकी है, तो ज्यादातर लड़कियों को हाथ उठाने और बोलने में शर्म आ रही थी, लेकिन अब हम बहुत अधिक हाथ उठे हुए देखते हैं।”
‘शर्म की कोई बात नहीं’
स्कूल की वाइस प्रिंसिपल, अंजलि कपूर भी पूनम की बात से सहमत होते हुए कहती हैं, “व्हिस्पर के स्कूल कार्यक्रम ने मार्गदर्शक की तरह काम किया है। शिक्षकों के रूप में, हमने सीखा है कि लड़कियों को बेहतर तरीके से कैसे शिक्षित किया जाए। पहले समझाने में जो अड़चन थी, वह चली गई है।”
14 साल की यशस्वी का कहना है कि जब लड़कियों को पहली बार हॉल में बिठाया गया और पीरियड्स के बारे में बताया गया तो उन्हें झिझक महसूस हुई। वह बताती हैं, “मैं सोच रही थी कि हमें यहां क्यों लाया गया है? लेकिन व्हिस्पर की टीम ने हमें बहुत सहज बनाया। उन्होंने हमें बताया कि हम अपने पीरियड्स के बारे में जानने जा रहे हैं। समय के साथ, हमने बहुत कुछ सीखा है। हमें , बुनियादी चीजों का पता चला कि पैड कैसे लगाया जाए।”
यशस्वी को इस कार्यक्रम की सबसे अच्छी बात यह लगी कि अब वह अपने दोस्तों से आसानी से इस बारे में बात कर सकती हैं। वह मानती हैं कि व्हिस्पर के कार्यक्रम में शामिल होने से पहले वह अपने पीरियड्स से निपटने के लिए ठीक तरह से तैयार नहीं थीं। वह कहती हैं कि उन्हें कॉन्सेप्ट के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। इसके अलावा, उन्हें सैनिटरी नैपकिन (Whisper Pads) या अन्य सामग्री उपलब्ध नहीं कराई गई थी।
मा-बेटी के बीच शुरू हुई खुलकर बातचीत
यशस्वी को वर्कशॉप में बताया गया कि पुराने ज़माने में पीरियड्स को लेकर झिझक और शर्म काफी ज्यादा थी। इसे एक पर्दा, राज़ या मज़ाक समझा जाता था। लेकिन अब चीजें बदल गई हैं। यशस्वी कहती हैं, “अब हम जानते हैं कि पीरियड्स पूरी तरह से प्राकृतिक है और इससे डरने की कोई बात नहीं है।”
बदलाव की यह दीवार केवल स्कूल की दीवारों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि घर पर भी माँ-बेटी के रिश्ते को एक नई दिशा मिली है। घर पर, अब बेटियां अपनी माँओं से मासिक धर्म और नारीत्व के बारे में खुलकर बात करने लगी हैं। जैसा कि अंजलि बताती हैं, “माँओं को अक्सर समझ नहीं आता कि वे अपनी बच्चियों के साथ उनके बड़े होने और यौवन के बारे में बातचीत कैसे शुरू करें। उन्हें नहीं पता कि पीरियड्स शुरु होने पर, अपनी बेटियों को क्या सलाह दें और उन्हें इसके लिए पहले से तैयार कैसे करें? व्हिस्पर (Whisper Pads) कार्यक्रम के ज़रिए, हमारी इनमें से कुछ आशंकाएं दूर हो गई हैं।”
स्कूल में पढ़नेवाली एक छात्रा की माँ, पूजा भट्ट कहती हैं, “मेरी बेटी स्कूल से घर आती है और स्कूल में पीरियड्स के बारे में उसने जो कुछ सीखा है, उसे शेयर करने के लिए वह बहुत उत्साहित रहती है। उसे उत्साहित देखकर मैं भी उससे बात करने के लिए प्रोत्साहित होती हूँ। मुझे लगता है कि पीरियड्स होना कितना सामान्य और स्वाभाविक है। अब हमारी चिंता की भावना कम हो गई है।”
लड़के भी हो रहे ज्यादा संवेदनशील और जागरूक
एक अन्य छात्रा की माँ, नैन्सी मिश्रा का मानना है कि व्हिस्पर के अभियान ने माता-पिता और शिक्षकों को साथ मिलकर, लड़कियों का मार्गदर्शन करने के लिए प्रोत्साहित किया है। वह कहती हैं, “जिस तरह से व्हिस्पर और स्कूल हमारी लड़कियों को जानकारियां और शिक्षा दे रहे हैं, उससे हम खुश हैं। जब हम उन्हें स्कूल भेजते हैं तो हमें खुशी होती है।”
नैन्सी की दो बेटियां हैं। वह कहती हैं कि छोटी बेटी के अब तक पीरियड्स शुरु नहीं हुए हैं, लेकिन वह जानती है कि कुछ वर्षों में वह किन शारीरिक बदलावों से गुज़रेगी। नैन्सी कहती हैं, “छोटी बेटी के आयु वर्ग के साथ भी कुछ सेशन कराए गए हैं, जहां उसने बहुत कुछ सीखा है।”
इस बीच, अंजलि ने बताया कि स्कूल में पीरियड्स के बारे में खुली और ईमानदार बातचीत को प्रोत्साहित करने का असर, केवल लड़कियों पर ही नहीं हुआ है, बल्कि लड़के भी थोड़े ज्यादा संवेदनशील और जागरूक हुए हैं। अंजलि यह भी स्वीकार करती हैं कि शिक्षा को और अधिक समावेशी बनाने के लिए अभी कुछ दूरी और तय करनी है।
पैड्स (Whisper Pads) को पॉलिथीन या अखबार में छुपाना क्यों?
अंजलि कहती हैं कि हमें इसे ऐसा बनाना चाहिए कि हम केवल लड़कियों के साथ ही नहीं, बल्कि लड़कों के साथ भी शारीरिक परिवर्तनों पर चर्चा करें। वह कहती हैं, “हमें यह समझना और समझाना है कि शारीरिक बदलाव होना, कोई शर्म की बात नहीं है।”
आज भी अगर हम सैनिटरी नैपकिन खरीदने जाते हैं, तो उसे काले पॉलिथीन या अखबार में लपेटकर दिया जाता है। बाहर से घर लाते वक्त हर समय डर रहता है कि इसके भीतर की चीज़ कोई देख न ले। लेकिन अपने अभियान के साथ, व्हिस्पर ‘पीरियड्स’ शब्द को सामान्य बनाने की दिशा में एक मजबूत कदम उठा रहा है और एक ऐसे भारत को आकार देने की कोशिश कर रहा है, जहां युवा महिलाओं को सपने देखने और अपनी पूरी क्षमताओं को विकसित करने की अनुमति दी जाती है।
संपादनः अर्चना दुबे
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