Site icon The Better India – Hindi

इंजीनियरिंग छात्र ने कॉलेज ग्राउंड में खोला गरीब बच्चों का स्कूल, साथी दोस्त बने टीचर्स

“मैं एक कोर्स करना चाहता था पर फीस ज्यादा होने के वजह से कर नहीं पाया।” उत्तर प्रदेश के कानपुर के पीयूष मिश्रा की कहानी एक ऐसे युवा की है, जिन्होंने अपनी शिक्षा के दौरान कई उतार चढ़ाव देखे और आज शिक्षा के बदौलत ही अपनी में ज़िन्दगी संवारने के साथ-साथ दूसरे गरीब बच्चों के भी भविष्य को सुधार कर एक बेहतर भारत बनाने की दिशा में लगातार काम कर रहे हैं। इनकी कहानी को जानने के लिए हमें थोड़ा सा फ़्लैशबेक में चलना होगा।

एक खुले ग्राउंड में शाम को बच्चों को पढ़ाना शुरू किया

कॉलेज के ग्राउंड में पढ़ते बच्चे

तो शुरुआत हुई साल 2017 से जब पीयूष इंद्रप्रस्थ इंजीनियरिंग कॉलेज गाजियाबाद से बीटेक फाइनल ईयर की पढ़ाई कर रहे थे। इस दौरान कॉलेज में कंस्ट्रक्शन का काम हो रहा था। वहाँ मज़दूर सुबह से शाम तक काम में लगे रहते थे और उनके छोटे-छोटे बच्चे इधर-उधर घूम कर अपना समय यूँ ही गँवाते रहते थे। पीयूष इस दौरान कॉलेज के हॉस्टल में ही रहते थे और रोज़ाना यह सब करीब से देखा करते थे। पीयूष को इन बच्चों को पढ़ाने का ख़याल आया। फिर क्या था पीयूष पहुँच गए इन मजदूरों के पास।

शुरूआत में तो कुछ मज़दूरों ने अपने बच्चों को पढ़ाने में बिलकुल भी रूचि नहीं दिखाई, वहीं ये बच्चे खुद भी पढ़ना नहीं चाहते थे। हालाँकि बाद में बातचीत के बाद शिक्षा के मायने समझा बुझा कर बच्चे पढ़ाई के लिए आने लगे। धीरे-धीरे इनमें लड़कियों की भी संख्या बढ़ने लगी फिर पीयूष ने एक खुले ग्राउंड में शाम को बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। पीयूष ने अपने स्कूल को ‘संस्कृति स्कूल ऑफ़ एक्सीलेंस’ नाम दिया।

शुरुआत में कुछ मुश्किलें ज़रूर सामने आईं जैसे कि बच्चों के पास किताबें नहीं हुआ करती थीं। हालाँकि ये जरुरतें बाद में फंडिंग से पूरी होने लगीं। धीरे-धीरे जब इन बच्चों की संख्या बढ़ने लगी तब पीयूष के दोस्त भी शाम में बच्चों को पढ़ाने के लिए उनका साथ देने लगे I एक छोटा सा स्कूल अब खुले मैदान में शुरू हो गया था।

स्वतंत्रता दिवस के मौके पर पीयूष और उनके दोस्तों ने इन बच्चों के लिए कुछ स्पेशल करने का सोचा। क्योंकि ऐसे मौकों पर स्कूलों में लड्डू बांटे जाते हैं, इसलिए उन्होंने भी बच्चों में लड्डू बंटवाने की सोची। हालाँकि अब तक कुल मिलाकर 100 के आसपास बच्चे हो गए थे तो इसके लिए अब अच्छा बजट भी चाहिए था। पीयूष और उनके दोस्तों ने आसपास के पड़ोसी घरों में जाकर 15 अगस्त के लिए लोगों को पेपर फ्लैग्स देना शुरू किया। इन्हें पहले लगा इस तरह से दो से तीन हजार रुपये जमा हो जाएँगे लेकिन इससे कुल 35,000 रुपये जमा हो गए। अब इतने पैसों की सिर्फ मिठाई तो नहीं खिलाई जा सकती थी तो बाकी पैसों को बच्चों के लिए सोच समझ कर खर्च करने का सोचा गया।

बच्चों की मदद के लिए बनाया ‘द रोप ऑफ़ होप’

द रोप ऑफ़ होप ग्रुप के सदस्य सफाई अभियान चलाते हुए

एक दिन पीयूष को खुले ग्राउंड में बच्चों की क्लास लेते देख कॉलेज के चेयरमैन ने इस काम के लिए कॉलेज की क्लास का इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी। फिर क्या था, अब शाम में बच्चों की क्लास कॉलेज के ही एक रूम में लगने लगी। क्लास में बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने के लिए भी उनके माता-पिता को पहले काफी समझाना पड़ा। हालाँकि बाद में कुल तीन सौ के आसपास बच्चे आने लगे। इसके अलावा पीयूष अपने दोस्तों की मदद से कानपुर में कुछ गरीब बच्चों को बिना किसी शुल्क के प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी भी करवा रहे हैं। पीयूष ने अपने मददगार दोस्तों के साथ अपने ग्रुप को एक नाम भी दिया, द रोप ऑफ़ होप।

आज संस्कृति स्कूल ऑफ़ एक्सीलेंस गाजियाबाद में इंद्रप्रस्थ इंजीनियरिंग कॉलेज के कैंपस में ही चलता है। यहाँ हर शाम पाँच बजे से आठ बजे तक की क्लासेज लगती हैं। कॉलेज के ही बीटेक फाइनल ईयर, थर्ड ईयर या सेकंड ईयर के छात्र एक वालंटियर के तौर पर स्कूल में बच्चों को पढ़ाते हैं। क्योंकि स्कूल में शिक्षा मुफ्त में दी जाती है इसलिए दाखिले के लिए यहाँ बच्चों को एक एलिजिबिलिटी टेस्ट देना होता है। अगर पहले प्रयास में बच्चे के 75 प्रतिशत से कम अंक आते हैं तब भी उनके पास स्कूल में दाखिले के लिए दो प्रयास और होते हैं। अगर तीनो प्रयासों में यानी की नौ महीने के समय के दौरान भी बच्चे ने अच्छे अंक हासिल नहीं किये तो दाखिला नहीं मिलता है। दाखिले की यह प्रकिया थोड़ी कठिन इसलिए बनाई गई है जिससे मुफ्त शिक्षा के नाम पर कोई अभिवावक सिर्फ दिखावे के लिए ही बच्चे को स्कूल न भेजने लगे।

अब क्लास में पढ़ते हैं बच्चे

अभिवावक जानें कि सही ढंग से बच्चे के साथ पेश आना क्यों जरुरी है

क्योंकि अभी संस्कृति स्कूल ऑफ़ एक्सीलेंस एक मान्यता प्राप्त या पंजीकृत स्कूल नहीं है इसलिए यहाँ ऐसे बच्चे भी पढ़ाई कर रहे हैं जो सुबह को रोज़ अपने मान्यता प्राप्त दाखिले वाले स्कूल में जाते हैं और शाम को विषयों की बेहतर और सही समझ के लिए संस्कृति स्कूल ऑफ़ एक्सीलेंस आते हैं। यहाँ बच्चों को कंप्यूटर के साथ-साथ स्पोर्ट्स, सकारात्मक ख़बरों वाले दैनिक अखबार (हिंदी और अंग्रेजी), डांस और म्यूजिक सभी तरह की क्लासेज मिलती हैं। बच्चों की पर्सनालिटी डेवलपमेंट क्लास के साथ ही उनके माता पिता के लिए जो ज्यादातर चाय बेचते हैं या रिक्शा चलाते हैं, पेरेंट्स डेवलपमेंट प्रोग्राम भी कराया जाता है। दो घंटे स्कूल में बिताने के बाद बच्चे अपना सारा समय अपने घर पर अपने माता-पिता के साथ ही बिताते हैं, इसलिए जरुरी है अभिवावक जानें की सही ढंग से बच्चे के साथ पेश क्यों आना चाहिए।

जब स्कूल को यूनाइटेड नेशन द्वारा मिला करमवीर चक्र 

सैकड़ों बच्चों की ज़िंदगी रोशन कर रहे पीयूष

संस्कृति स्कूल ऑफ़ एक्सीलेंस में पढ़ाए गए बच्चे आज इसरो और चंद्रयान से जुड़ी स्कूली स्तर की प्रतियोगताओं का हिस्सा बन रहे हैं। स्कूल को यूनाइटेड नेशन द्वारा करमवीर चक्र से भी सम्मानित किया गया है। यहाँ बच्चों को किताबी कीड़ा नहीं बनाया जाता बल्कि उनको उनके मन की पढ़ाई कराई जाती है। इनकी बातचीत और व्यक्तिगत स्वभाव में एक सकारात्मक बदलाव दिखता है जो अच्छा है। पीयूष पूरी कोशिश में हैं कि संस्कृति स्कूल ऑफ़ एक्सीलेंस एक मान्यता प्राप्त या पंजीकृत स्कूल बने लेकिन सरकार द्वारा हालिया नियमों में कुछ बदलाव के कारण यह काम अभी अटका पड़ा है।

पीयूष कहते हैं प्रॉब्लम का या तो सॉल्यूशन निकालो या फिर शोक मनाओ। मैं शोक मनाने वाली स्थिति में नहीं गया और सॉल्यूशन निकाला। वह बताते हैं, “जब मुझे वीएलएसआई से एक टेक्निकल कोर्स करना था और लोन चाहिए था तब मुझे लोन नहीं मिल पाया था लेकिन आज  खुश हूँ कि जितना सीखा उतना किसी को मुफ्त में सिखा तो सकता हूँ। सबका सपोर्ट मिला और आज दिल्ली एनसीआर में कई लोग हमारे स्कूल के बारे में जानने लगे हैं।”

दोस्तों का भी मिला पूरा सपोर्ट

बच्चों के साथ पीयूष

पीयूष और उनके दोस्त स्कूल के लिए कोई डोनेशन नहीं लेते बल्कि साल में दो बार 25 जनवरी और 14 अगस्त को अपने अभियान से पैसे जुटा लेते हैं जिसमें वे लोगों को सीड पेपर इंडियन फ्लैग देते हैं, जिनसे बाद में पौधे उगाये जा सकते हैं। पीयूष बताते हैं, “किताबों और कॉपियों के लिए लोगों को हम एक बार बता देते हैं और फिर हमें मदद मिल जाती है।”

हालाँकि कोरोना की महामारी का इन बच्चों की शिक्षा पर भी बड़ा असर पड़ा है। जहाँ पहले स्कूल में तीन सौ के करीब बच्चे आते थे। वहीं कोरोना के बाद गरीब परिवारों के बच्चों के लिए ऑनलाइन पढ़ाई करना मुश्किल है क्योंकि उनके पास स्मार्टफ़ोन नहीं हैं। जिनके पास फ़ोन है उनके पास डेटा की कमी है। हालाँकि स्कूल की कोशिश रहती है कि ऑनलाइन लेक्चर के वीडियो कम एमबी वाले बनाये जाएँ जिससे बच्चे टॉपिक को कम डेटा में भी अच्छे से पढ़ सकें। पीयूष अपने ग्रुप रोप ऑफ़ होप में भी बहुत सारे काम करते रहते हैं। जैसे पाँच सौ से ज्यादा पेड़ लगाए जा चुके हैं, ब्लड डोनेशन कराए जाने के साथ सेनेटरी पैड दिए गए हैं और जागरूकता कैंप भी लगाए जा चुके हैं। ‘मास्टर जी मोहल्ले में’ जैसे अभियानों के अंतर्गत कानपुर के लोकल टीचर किसी बच्चे को मुफ्त में शिक्षा देते हैं।

संस्कृति स्कूल ऑफ़ एक्सीलेंस कक्षा 1 से बारहवीं तक के सभी बच्चों के लिए खुला हुआ है। यह एक छोटा सा प्रयास है मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने का। जैसा की पीयूष कहते हैं, शिक्षा के आगे कभी पैसों की बाधा नहीं आनी चाहिए, बस पढ़ाने वाला और पढ़ने वाला होना चाहिए।

अगर आप पीयूष की मदद करना चाहते हैं तो आप उनसे यहाँ  जुड़ सकते हैं।

संपादन- पार्थ निगम

यह भी पढ़ें- भारतीय छात्रों ने कागज़ से बनाई सिंगल सीटर ‘इलेक्ट्रिक रेसिंग कार’, मिला अवार्ड  

यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।

Exit mobile version