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कभी ऑफिस बॉय की नौकरी करते थे, आज खेती के ज़रिए हुआ 400 करोड़ रूपए का टर्नओवर!

यह कहानी महाराष्ट्र के ज्ञानेश्वर बोडके की है। उनका जन्म पुणे के मुल्सी तालुका में एक छोटे से किसान परिवार में हुआ था। दसवीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद वह खेती-किसानी करने लगे थे।

 

ज्ञानेश्वर के परिवार में कुल आठ सदस्य थे जो धान की खेती करते थे लेकिन इस खेती से उन्हें मुनाफा नहीं होता था। जब ज्ञानेश्वर को लगा कि इससे उन्हें कुछ हासिल नहीं हो रहा है तब उन्होंने खेती छोड़ने का फैसला किया। उनकी बहन एक बिल्डर को जानती थी, जिसकी मदद से पुणे में उन्हें एक ऑफिस ब्वॉय की नौकरी मिल गई।

 

उन्होंने कहा, “मैंने दस साल तक सुबह 6 बजे से रात 11 बजे तक काम किया, बिना यह सोचे समझे कि मैं किसके लिए और क्या पाने के लिए इतनी मेहनत कर रहा हूँ। लेकिन कहीं न कहीं मैं यह भी जानता था कि मैं किसानों के लिए कुछ करना चाहता हूं।

 

ज्ञानेश्वर बोडके

इन सबके बीच उनके मन में यह सवाल बार-बार उठ रह था कि वह क्या कर सकते हैं। 

 

उनके सवाल का जवाब आखिर उन्हें एक अखबार के आलेख में मिल ही गया। उन्होंने अखबार में सांगली के रहने वाले एक किसान की सफलता की कहानी पढ़ी, जिसने 1,000 वर्ग फुट क्षेत्र में पॉलीहाउस खेती करके एक साल में 12 लाख रुपये कमाए थे।

 

ज्ञानेश्वर ने तुरंत नौकरी छोड़कर फिर से खेती शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने पुणे में बागवानी प्रशिक्षण केंद्र में पॉलीहाउस खेती पर दो दिवसीय वर्कशॉप में भाग लिया। हालाँकि उनके पिता इस फैसले से नाराज हुए।

 

ज्ञानेश्वर कहते हैं, “उन्होंने हमें बागवानी की सिर्फ थ्योरी बतायी, ना तो प्रैक्टिकल कराया गया और ना ही हमें कुछ दिखाया गया। मैं बहुत ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था इसलिए यह सब मेरे सिर के ऊपर से गुजर गया। लेकिन मैं हार मानने वाला नहीं था। मैंने अधिकारियों से बात की और उनसे कहा कि मैं उनके साथ काम करना चाहता हूँ और सीखना चाहता हूँ।

 

वह 17 किलोमीटर की दूरी तय कर साइकिल से सेंटर पहुँचते थे। सुबह सात बजे से शाम सात बजे तक काम करते थे। हालाँकि इस काम में उन्हें पैसे की कमाई तो नहीं हुई लेकिन उन्हें सीखने के लिए बहुत कुछ मिला।

 

ट्रेनिंग खत्म करने के तुरंत बाद उन्होंने 1,000 वर्ग फुट क्षेत्र में एक पॉलीहाउस शुरू करने के लिए लोन के लिए आवेदन किया।

 

 

1999 में उन्होंने पॉलीहाउस में कार्नेशन (गुलनार) और गुलाब जैसे सजावटी फूलों की खेती शुरू की। जब फूलवाले उन्हें लोकल मंडी में बेचने लगे तो उन्होंने डेकोरेटर्स और होटलों के साथ करार किया। जल्द ही उन्होंने पुणे, मुंबई और दिल्ली में फूलों का निर्यात करना शुरू कर दिया।

 

वह बताते हैं, “एक समय ऐसा था जब मुझे नियमित आय के लिए काफी संघर्ष करना पड़ता था, लेकिन अब मुझे फूलों के लिए एडवांस ऑर्डर मिलते हैं। बेशक, मेरी मेहनत सफल हुई।पॉलीहाउस खेती से उन्होंने एक साल के भीतर 10 लाख रुपए का लोन चुका दिया। यह उनकी सबसे बड़ी कामयाबी है।

 

वह बताते हैं, जब बैंक मैनेजर पहली बार हमारे घर आए तो मेरे पिता को लगा कि लोन ना चुका पाने के कारण हमने अपनी जमीन खो दी। इसलिए वह अपने कमरे से बाहर निकले ही नहीं। बैंक मैनेजर हमारे घर के अंदर आए और उन्होंने मेरे पिता के पैर छूकर उन्हें मिठाई खिलाई और कहा, आपके बेटे ने तो कमाल कर दिया। वह पहला ऐसा किसान है जिसने हमारे बैंक को एक साल के अंदर 10 लाख रुपए लोन का कर्ज चुका दिया।

 

इसके बाद स्थानीय समाचार चैनलों ने इस सफलता को कवर किया। कई किसानों ने पॉलीहाउस खेती और बागवानी के बारे में जानने के लिए ज्ञानेश्वर से संपर्क करना शुरू कर दिया।

 

ज्ञानेश्वर ने बताया, मैंने इनमें से कई किसानों को मार्केटिंग, लोन लेने और चुकाने की प्रक्रिया के बारे में बताया। दो साल के अंदर मेरी जिम्मेदारी बहुत बढ़ गई। मैं पूरे दिन एक खेत से दूसरे खेत जाया करता और इस तरह मैं अपने खेत के लिए उतना समय नहीं निकाल पाता था। जिस बैंक मैनेजर ने हमें बधाई दी थी उन्होंने मुझे एक ग्रुप बनाने की सलाह दी। इससे जिम्मेदारियों को बांटकर अधिक काम करने में मदद मिली।

 

वर्ष 2004 में नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (NABARD) की मदद से ज्ञानेश्वर ने 11 अन्य लोगों के साथ मिलकर अभिनव किसान क्लब का गठन किया। इनमें से कुछ लोग मार्केटिंग जबकि कुछ ट्रांसपोर्ट की जिम्मेदारी संभाल रहे थे। इन्होंने ग्रुप में खेती करके मुनाफा एक दूसरे में बांटने का फैसला किया।

 

देखते ही देखते समूह में सदस्यों की संख्या बढ़कर 305 हो गई। जो किसान पहले 25,000 रुपये महीना कमाते थे, उनकी कमाई दोगुनी यानी करीब लगभग 5 लाख रुपए सालाना हो गई! तब समूह ने डिलीवरी के काम में तेजी लाने के लिए करीब 300 मारुति कार खरीदीं और उन्हें हाई टेक खेती के लिए नाबार्ड द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

 

एक समय के लिए सब कुछ ठीक हो गया, लेकिन साल के अंत में फूलों की कीमत में भारी कमी आ गई। अब फूल 2.5 रुपये प्रति पीस की जगह 0.85 पैसे प्रति पीस बिकने लगे। इसके कारण उन्हें घाटा होने लगा और समूह के भीतर मतभेद शुरू हो गए। अब समूह में सिर्फ 23 सदस्य ही बचे रह गए। यह वही समय था जब पुणे में कई मॉल शुरू हो गए थे। वह कहते हैं, “यह हमारे देश की विडंबना ही है कि जूते मॉल में और सब्जियां सड़क के किनारे बेची जाती हैं।

 

जहाँ भारतीय सब्जियाँ 10 रुपये प्रति किलो बिक रही थीं, वहीं विदेशी सब्जियाँ 80-100 रुपये प्रति किलो के हिसाब से मिलती थीं। इसलिए समूह ने इन मॉलों के साथ समझौता किया और ब्रोकोली, चीनी गोभी, अजमोद, चेरी टोमैटो, अजवाइन, तोरी जैसी विदेशी सब्जियाँ उगाने का फैसला किया।

 

ज्ञानेश्वर कहते हैं, फूलों की खेती के दौरान हम बहुत से रसायनों का इस्तेमाल करते थे। लेकिन हमने जब सब्जियों की खेती शुरू की तो पहले ही यह तय कर लिया कि हम ऐसी कोई भी सब्जी नहीं उगाएंगे जिसके लिए कीटनाशकों या रासायनिक उर्वरकों की जरूरत पड़े। हमने सौ प्रतिशत ऑर्गेनिक खेती पर ध्यान दिया। हर किसान रोजाना 700-800 रुपये तक कमा लेता था। हमें फूलों की खेती में हुए नुकसान से उबरने में अधिक समय नहीं लगा।

 

लेकिन यहाँ भी एक दूसरे को पीछे करने की होड़ थी। ऐसे में अपनी रोजी रोटी के साधन को बरकरार रखना मुश्किल था। तब ज्ञानेश्वर ने एक टिकाऊ फुल-प्रूफ टेक्निक का इस्तेमाल करने का फैसला किया। उन्होंने एक एकड़ हाई-टेक इंटीग्रेटेड ऑर्गेनिक फार्मिंग की शुरूआत की।

 

तरीका आसान था। एक एकड़ जमीन, 10,000-20,000 लीटर पानी, दो घंटे बिजली और सिर्फ चार घंटे के लिए पूरे परिवार की मेहनत।

 

1 एकड़ के इस प्लॉट को चार सब-प्लॉट में बांटा गया। एक हिस्से का इस्तेमाल 12 प्रकार के फलों (देशी केले, संतरे, आम, देशी पपीते, स्वीट लाइम, अंजीर और कस्टर्ड सेब) को उगाने के लिए किया गया। जबकि दूसरे हिस्से का इस्तेमाल विदेशी सब्जियाँ, तीसरे मे दालें और चौथे हिस्से में पत्तेदार सब्जियां उगाने के लिए किया गया।

 

 

सब्जियों और फलों को बिना किसी बिचौलियों के सीधे ग्राहकों के दरवाजे पर पहुँचाया जाता था। पुणे, मुंबई, गोवा, नागपुर, दिल्ली और कोलकाता से इन्हें लक्जरी बसों और ट्रेनों में भेजा जाता था।

 

इस खेत में एक देशी गाय भी थी जो एक दिन में 10-12 लीटर दूध देती थी। दो लीटर दूध घर के लिए बचाकर बाकी दूध आसपास के इलाके में 50 रुपये प्रति लीटर बेचा जाता था। गाय के गोबर का इस्तेमाल खाद और बायोगैस के के लिए किया जाता था, जो बाद में खाना पकाने के लिए इस्तेमाल होता था। यहां तक ​​कि प्लांट से निकलने वाले स्लरी (तरल अपशिष्ट) का इस्तेमाल भूमि में खाद के रूप में किया जाता था। गोमूत्र 10 रुपये प्रति बोतल बेचा जाता था। महज एक गाय से ही किसान को अतिरिक्त आय हो जाती थी!

 

जहाँ कोई इंजीनियर प्रति वर्ष 12 लाख रुपये कमाते हैं, वहीं ज्ञानेश्वर भी एक एकड़ भूमि पर इंटीग्रेटेड फार्मिग टेक्निक से उतना ही रुपया कमा रहे थे।

 

डिलीवरी के लिए मजदूरों की कमी न हो इसलिए अभिनव किसान समूह ने महिलाओं के एक समूह से संपर्क किया जो इन सारी चीजों को पैक करके, वर्गीकृत करके 126 वैन की मदद से डिलीवर कर देती थीं।

 

 

आज अभिनव किसान क्लब का प्रभाव छह राज्यों महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, गुजरात, मध्य प्रदेश और कर्नाटक में फैला हुआ है। देश भर में 1.5 लाख से अधिक किसानों और 257 किसान नेताओं के साथ समूह का वार्षिक टर्नओवर लगभग 400 करोड़ रुपये है!

 

किसानों के नेता हर तीन महीने में मिलते हैं और वो व्हाट्सएप से भी जुड़े हैं। व्हाट्सएप के जरिए ही वो अपने साथियों की समस्याओं का समाधान करते हैं। रिटेल किराने की दुकान से जितनी कमाई 15 दिनों में होती है, उतनी कमाई ये किसान तीन घंटे की बिक्री से हासिल कर लेते हैं।

 

ज्ञानेश्वर TEDx स्पीकर के लिए आमंत्रित होने वाले पहले भारतीय किसानों में से एक हैं। उनके सेंस ऑफ ह्यूमर की हर किसी ने तारीफ की और उनकी कहानी सुनकर दर्शकों ने खड़े होकर तालियाँ बजाईं।

 

पूछे जाने पर वह कहते हैं, “हर कोई मशहूर हस्तियों, उद्यमियों, स्टैंड-अप कॉमेडियन और YouTubers को ऐसे टॉक के लिए बुलाता है। लेकिन पहली बार किसी ने भारतीय किसान को खेती के संकट के बारे में नहीं बल्कि खेती के पेशे में सफलता पर बोलने का मौका दिया, जो अक्सर रिपोर्ट नहीं किया जाता है। मीडिया बहुत लंबे समय से हमेशा किसानों को नकारात्मक रूप से कवर करता है – चाहे वह विरोध मार्च हो या किसानों द्वारा आत्महत्या। लेकिन इस मंच ने मुझे उन्हें खेती का सकारात्मक पक्ष दिखाने में मदद की।

 

उन्होंने कहा कि हर किसान लोगों से यही चाहता है कि वह उनकी उपज को बिना किसी बिचौलियों के सीधे खरीदें। किसान के लिए यही सबसे बड़ा मोटिवेशन है। वह कहते हैं, “किसान 125 करोड़ की आबादी का पेट भरने के लिए दिन में 16 घंटे अपना पसीना बहाता है। तो क्या उन्हें अपनी मेहनत की सही कीमत नहीं मिलती चाहिए

 

इन किसानों के बच्चे कृषि में स्नातक और इंजीनियर बन गए हैं। इसके बावजूद उन्होंने गाँव नहीं छोड़ा और मार्केटिंग, पैकेजिंग और डिलीवरी जैसे कामों में अपने माता-पिता का हाथ बंटाकर मुनाफे को बढ़ाने में मदद करते हैं। कई युवा इंजीनियर भी अपने परिवार के खेतों में काम करने के लिए कम लागत वाली मशीनरी बना रहे हैं।

 

ज्ञानेश्वर कहते हैं, उनमें से कोई भी जिम नहीं जाता है। वे अपने माता-पिता के साथ खेती करते हैं। यह उनके लिए फिट रहने का सबसे अच्छा तरीका है।किसानों के लिए अपने संदेश में ज्ञानेश्वर कहते हैं, “सब्सिडी और लोन में छूट के लिए सरकार पर निर्भर न रहें। ग्राहकों की जरूरतों को समझने की कोशिश करें और वही चीज उनके दरवाजे पर पहुँचाएँ।

 

लोगों से वह निवेदन करते हैं, “आप किसान की उपज को सीधे उससे खरीदकर उसकी मदद कर सकते हैं। इससे आपको न केवल 100 प्रतिशत कीटनाशक मुक्त फल और सब्जियाँ खाने को मिलेंगी बल्कि बीमारियों के इलाज में खर्च का पैसा बचेगा। जब आप सीधे किसान से खरीदना शुरू करेंगे तो शायद कोई भी किसान आत्महत्या के बारे में नहीं सोचेगा। 

 

आज उनके 1 एकड़ प्लाट की कीमत 10 करोड़ रुपये है।

 

यदि इस कहानी ने आपको प्रेरित किया तो abhinavfarmersclub@gmail.com पर ज्ञानेश्वर बोडके से संपर्क कर सकते हैं।

 

मूल लेख Jovita Aranha

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