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7वीं पास माँ की ‘मदद और न्याय’ की सीख ने बनाया अधिकारी, पढ़िए एक IPS की संघर्ष भरी कहानी

Inspiring Story

जिंदगी में उतार-चढ़ाव इंसानी जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है। यह हमारे जीवन का अनिवार्य अंग है। संघर्ष करते हुए कई लोग हार मान लेते हैं, तो वहीं मुश्किल में धैर्य के साथ आगे बढ़ने वाले जिंदगी में नए मुकाम को हासिल करते हैं।

नागपुर स्थित केंद्रीय जांच ब्यूरो में पुलिस अधीक्षक के रूप में सेवारत आईपीएस निर्मला देवी की कहानी कुछ ऐसी ही है। वह मूल रूप से तमिलनाडु के कोयंबटूर के अलंदुराई गाँव की रहने वाली हैं और एक आईपीएस अधिकारी बनने का उनका सफर काफी मुश्किलों से भरा रहा है।

आईपीएस निर्मला की माँ महज सातवीं कक्षा तक पढ़ीं हैं, लेकिन वह शिक्षा के महत्व को जानती थीं और उनका शुरू से ही एक सपना था कि उनकी बेटी पढ़-लिख कर समाज में अपना बड़ा नाम करे।

द बेटर इंडिया से बातचीत में आईपीएस निर्मला बताती हैं, “मेरी माँ लक्ष्मी सुंदरम मुझसे हमेशा कहतीं थीं कि लोगों की मदद करने और उन्हें न्याय दिलाने से ज्यादा, किसी चीज में खुशी नहीं मिलती है और साल 2009 में भारतीय पुलिस सेवा में शामिल होने के बाद ही, मुझे इसका वास्तविक मतलब समझ में आया।”

यहाँ एक माँ-बेटी की जोड़ी की एक प्रेरक कहानी है, जिन्होंने प्रशासनिक सेवा परीक्षाओं में सफलता हासिल करने के लिए अथक प्रयास किया।

एक अकेली माँ द्वारा पालन-पोषण

निर्मला की माँ का निधन साल 2016 में हो गया था। निर्मला उन्हें याद करते हुए कहती हैं कि वह एक मजबूत, संवेदनशील और प्रगतिशील महिला थीं।

रूढ़िवादी माहौल में पले-बढ़े होने के कारण, उस दौर में महिलाओं को सिर्फ घरेलू कामकाज के लिए उपयुक्त समझा जाता था, लेकिन लक्ष्मी ने अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए अपने माता-पिता के साथ काफी संघर्ष किया, लेकिन उनके माता-पिता सामाजिक दबाव के आगे झुक गए। इसके बाद लक्ष्मी ने तय किया कि वह अपने बच्चों की हर इच्छा को पूरी करेंगी और उन्होंने ऐसा ही किया।

17 साल की उम्र में, लक्ष्मी की शादी एक किसान परिवार में हुई थी। लेकिन, इसके 3 वर्षों के बाद ही, उनके पति का निधन हो गया, तब निर्मला महज डेढ़ साल की ही थीं।

इसके बाद, लक्ष्मी ने किसी से मदद माँगने के बजाय खुद ही अपने बच्चों के लिए माँ और पिता की भूमिका निभाने लगीं। निर्मला अपने पुराने दिनों को याद करते हुए कहती हैं, “वह हर सुबह जल्दी उठती, हमारे लिए खाना बनाती, मुझे और मेरे भाई को स्कूल छोड़ती, फिर दिन भर गन्ने के खेत में काम करने के बाद, शाम को हमें अपना होमवर्क पूरा करने में मदद करती थीं। कभी-कभी, वह फसलों की सिंचाई के लिए देर रात तक काम करती थीं, क्योंकि बिजली की आपूर्ति तभी ही होती थी। वह अपने काम को, कभी हमारे बीच में नहीं लाती थीं। मैं कह सकती हूँ कि वह एक सुपरमॉम थीं, जिन्होंने बिना किसी शिकायत के यह सब किया।”

बात चाहे 90 के दशक में चार पहिया वाहन को चलाने की हो, या निर्मला के शिक्षा की, लक्ष्मी ने हमेशा रूढ़ीवादी विचारों के खिलाफ जा कर काम किया।

लक्ष्मी ने तमाम आर्थिक परेशानियों के बावजूद, अपने दोनों बच्चे का दाखिला निजी स्कूल में कराया और उन्हें कैरियर को खुद तय करने की छूट दी। इस तरह, जहाँ उनके बड़े भाई ने पारिवारिक व्यवसाय का रास्ता चुना, तो वहीं,  निर्मला ने बीएससी आईटी में ग्रेजुएशन किया।

इन परेशानियों के बीच, निर्मला ने कई बार अपनी माँ को दूसरों की सहायता करते हुए भी देखा। वह दूसरे महिलाओं को सरकारी योजनाओं के लिए आवेदन करने में मदद करने से लेकर पंचायत की बैठकों और ग्रामीणों को अपनी बेटियों को शिक्षित करने के लिए प्रोत्साहित करने तक में सक्रिय भूमिका निभाती थीं।

निर्मला का भी स्वभाव भी कुछ ऐसा ही है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि वह आज भी एक ऐसे पिता के संपर्क में हैं, जिनके बेटे की अपहरण और हत्या साल 2009 में कर दी गई थी। यह निर्मला का पहला केस था, तब वह महाराष्ट्र के नांदेड़ जिले में तैनात थीं।

यूपीएससी का सफर

आईपीएस निर्मला देवी

साल 2004 में ग्रेजुएशन करने के बाद, निर्मला ने एक निजी बैंक में नौकरी शुरू कर दी, ताकि माँ को थोड़ी मदद मिले। इसी दौरान उनकी माँ ने निर्मला को एक प्रशासनिक अधिकारी बनाने के सपनों के बारे में बताया।

उन्होंने निर्मला को एक लेख दिखाया, जिसमें कि उनके गाँव के एक शख्स की आईएएस अधिकारी बनने की संघर्षपूर्ण कहानी का जिक्र था। निर्मला इससे काफी प्रभावित हुई थीं, लेकिन उन्होंने अपनी माँ को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह असंभव है।

लेकिन, इसके एक साल के बाद, निर्मला अपनी नौकरी और देश की सबसे कठिन प्रतियोगी परीक्षा में से किसी एक को चुनने के लिए तैयार हो गईं।

तो बदला क्या?

वह कहती हैं, “उनकी कहानी से रू-ब-रू होने के बाद, मैंने उनके और वैसे अन्य लोगों के बारे में पढ़ना शुरू कर दिया, जिन्होंने न्यूनतम साधनों के साथ यूपीएससी में सफलता हासिल की थी। मेरी माँ ने मेरा उत्साहवर्धन किया कि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि मेरी अंग्रेजी अच्छी नहीं है या शहरों में तैयारी करने वाले छात्रों की तरह, मेरा कोई मार्गदर्शन नहीं है।”

बिना किसी फोन, इंटरनेट या मार्गदर्शन के निर्मला की राह आसान नहीं थी। उन्होंने अपने शुरूआती छह महीने सिर्फ लाइब्रेरी में किताबें पढ़ने में गुजारे, जो परीक्षा के लिहाज से प्रासंगिक नहीं थे।

वह कहती हैं, “पहले मुझे यह समझ में नहीं आया कि मुझे शुरूआत कहाँ से करनी चाहिए, मुझे लगा कि मैं किताबों के बीच गुम हो गई हूँ। मैंने रसायन विज्ञान के अवधारणाओं को समझने में महीनों बर्बाद कर दिए, बाद में पता चला कि यह जरूरी ही नहीं थे।”

लेकिन, निर्मला हार मानने को तैयार नहीं थीं और उनके उत्साह को देखते हुए, लक्ष्मी ने कुछ अलग तरीके से मदद करने का प्रयास किया। इसी कड़ी में, उन्हें एक अखबार के जरिए कोयंबटूर के जीआरडी कॉलेज में मुफ्त यूपीएससी क्लासेस के बारे में जानकारी मिली।

निर्मला ने प्रवेश परीक्षा की तैयारी की और इसमें उन्हें सफलता मिली। इसके बाद उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी और लक्ष्मी खर्चों को पूरा करने के लिए खेतों में जी तोड़ मेहनत करने लगीं।

इसके एक वर्ष के बाद, निर्मला को चेन्नई स्थित तमिलनाडु स्टेट ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट फॉर सिविल सर्विसेज में मुफ्त कोचिंग हासिल करने का मौका मिला। यहाँ छात्रों के निःशुल्क खाने-पीने की भी व्यवस्था थी।

यह एक ऐसा मोड़ था, जिसने निर्मला में परीक्षा को क्लियर करने के लिए नए आत्मविश्वास को जागृत किया।

निःशुल्क कोचिंग मिलने के बाद भी, निर्मला और उनके परिवार की आर्थिक समस्याएं कम न थी, इसलिए उन्होंने नई किताबें खरीदने के बजाय, निर्मला ने अपने दोस्तों से किताबें लेकर पढ़ने लगीं। दिलचस्प बात यह है कि वह अपने जिस बैचमेट, अर्जुन से मदद लेती थीं, अब वह उनके पति हैं और नागपुर में एक आयकर अधिकारी के रूप में सेवारत हैं।

निर्मला के जी तोड़ मेहनत और माँ के उत्साहवर्धक शब्दों ने आखिरकार 2008 में अपना रंग दिखाया और अपने चौथे प्रयास में उन्होंने 272वें रैंक के साथ यूपीएससी में सफलता हासिल की। 

“मेरी माँ कहती थीं कि यूपीएससी में छात्रों को कई मौके दिए जाते हैं, क्योंकि यह एक कठिन परीक्षा है। इसलिए असफल होना इस प्रक्रिया का एक अभिन्न हिस्सा है।  उनके ऐसे शब्द मुझे सुकून देते थे। मेरे सभी प्रयासों के दौरान, वह मुझे परीक्षा केन्द्र पर ले जाती थीं, यहाँ तक कि वह दिल्ली में अंतिम साक्षात्कार के दौरान भी मेरे साथ थीं। यह एक ऐसा अनुभव था, जैसे वह परीक्षा दे रही हों,” निर्मला कहती हैं।

निर्मला को वह दिन अभी भी याद है, जिस दिन परीक्षा परिणाम घोषित किए गए थे। पहले उनके बैचमेट को उनका नाम लिस्ट में नहीं मिल रहा था। निराश होकर वह यह जानकारी अपनी माँ को देने जा रही थीं, लेकिन इसी क्षण निर्मला के बड़े भाई ने फोन किया कि उन्होंने परीक्षा को क्लियर कर लिया है।

निर्मला कहती हैं, “मुझे याद है कि मैंने अपनी माँ को शुरू में झूठ बोला कि मैं असफल हो गई हूँ, और उन्होंने मुझे सांत्वना देना शुरू कर दिया। इसके बाद मैंने उन्हें जब बताया कि मैंने परीक्षा में सफल हो गई हूँ, तो एक क्षण के लिए शांति छा गया, फिर जश्न शुरू हुआ।”

एक आईपीएस बनने के बाद जिंदगी

नांदेड़ में एक प्रशिक्षु एसीपी के रूप में तैनात होने के पहले दिन, निर्मला को यह देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि पुलिस व्यवस्था कितनी अलग तरीके से काम करती है।

वह बताते हैं, “समाज में पुलिस की एक नकारात्मक छवि बनाई गई है कि भारतीय पुलिस हमेशा देर से पहुँचती है। इसलिए जब मुझे आईपीएस के लिए चुना गया था, तो कई संबंधियों ने मुझे ताना मारा और कहा कि मुझे आईएएस के विकल्प को चुनना चाहिए। मेरा नजरिया भी पहले ऐसा ही था, लेकिन मुझे खुशी है कि मैं गलत साबित हुई।”

निर्मला, दिन के अंत में अपने कार्यों को लेकर संतुष्टि और खुशी महसूस करती हैं। हत्या के मामलों को सुलझाने से लेकर कोरोना महामारी के दौरान फ्रंटलाइन पर मोर्चे को संभालने तक, निर्मला को समाज में न्याय और कानून व्यवस्था को बनाए रखने के दायित्वों को लेकर गर्व है।

वह अंत में कहती हैं, “एक आईपीएस के रूप में, मेरा अभी तक का सफर शानदार रहा है, मैंने बहुत कुछ सीखा है, जिसे शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता है। लोगों को पुलिस व्यवस्था से काफी उम्मीदें हैं और मुझे इसका अंग बनने पर गर्व है। मुझे यकीन है कि मेरी माँ को भी ऐसा ही लगता होगा।”

मूल लेख – GOPI KARELIA

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संपादन – जी. एन झा 

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