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याद हैं ये खट्टे-मीठे जंगली बेर? इन्हें बचाने के लिए ‘बोरा मैन’ ने लगाएं हज़ारों पेड़

Prvin thete growing wild berries to save it

मैं आज तक किसी ऐसे शख्स से नहीं मिली, जो किसी ऐसी चीज़ के बारे में बड़े जोश के साथ बात करता हो, जिसे ज्यादातर लोग पसंद नहीं करते। लेकिन पुणे के रहने वाले प्रवीण थेटे (Pravin Thete) एक अपवाद हैं। वह, पिछले कई सालों से हमारे फलों की टोकरी से लगभग गायब हो चुके जंगली बेरों (Wild Berries) के महत्व को समझाने और बढ़ावा देने के लिए लगे हुए हैं। प्रवीण इसे बचाने की हर मुमकिन कोशिश करते हैं और बड़े ही जोरदार ढंग से इसकी मार्केटिंग भी करते हैं। 

प्रवीण के अनुसार, बोरस (बेर) की तुलना में सेब एक बेस्वाद फल है और विटामिन के मामले में भी इससे काफी पीछे है। बेर के फायदे गिनवाते हुए वह कहते हैं, “अब हमें एक पुरानी कहावत को बदलकर कुछ इस तरह कर देना चाहिए- रोजाना बेर खाएं और डॉक्टर को दूर भगाएं।” उन्होंने पुणे विश्वविद्यालय से मार्केटिंग में एमबीए किया हुआ है। 

37 साल के प्रवीण, पिछले छह सालों से बेर के पेड़ो के संरक्षण (Wild Berries) और उनकी मार्केटिंग से जुड़े हैं। यह जंगली बेरों के प्रति उनका प्यार ही है, जो उन्हें इस क्षेत्र में खींच लाया। उन्होंने बेरों को उनके स्वाद, रंग और विटामिन के आधार पर 54 किस्मों में बांटा है। वह बताते हैं, “इन बेरों के छह अलग-अलग स्वाद में से चार स्वाद खास हैं- खट्टे, मीठे, कड़वे और कसैले, जिन्हें हमारी जीभ बड़ी आसानी से पहचान लेती है।”

खट्टे,मीठे, कड़वे और कसैले बेर

“Having boras (jujubes) every day keeps the doctors at bay.”

इन जंगली बेरों (Wild Berries) को वैसे तो पेड़ से तोड़कर सीधा खाया जाता है, लेकिन बहुत से लोग मसाला या नमक लगाकर बड़े ही चटकारे के साथ इसका आनंद उठाते हैं। प्रवीण का बचपन भी इन्हीं बेरों के स्वाद के साथ बीता है। लेकिन जब उन्होंने देखा कि बानेर गांव में ‘बेर’ के पेड़ों की संख्या दिन-ब-दिन कम होती जा रही है और वे धीरे-धीरे गांव से गायब होते जा रहे हैं, तो उनका झुकाव इस तरफ बढ़ गया और बस यहीं से इन पेड़ों को बचाने का उनका संघर्ष शुरू हो गया। उन्होंने पौधों के संरक्षण के लिए काफी काम किया और महाराष्ट्रगोवा के विभिन्न हिस्सों में हजारों बेर के पेड़ लगाए ( Wild Berries )।

वह कहते हैं, “मैं कृषि पृष्ठभूमि से आता हूं। हम अपने खेतों में प्याज, गेहूं और अंगूर उगाते थे। मैं नासिक में पला बढ़ा हूँ और जंगली बेरों का खूब आनंद उठाया है।” साल 2012 में जब प्रवीण एमबीए कर रहे थे, तो खाली समय में वृक्षारोपण कार्यक्रम में चले जाया करते थे और धीरे-धीरे उन्हें इस क्षेत्र से इतना प्यार हो गया कि बाद में वह फील्ड ऑफिसर के रूप में CEE (सेंटर फॉर एन्वॉयरमेंट एजुकेशन) के साथ जुड़ गए।

उन्होंने बताया, “हम बच्चों को सह्याद्री पहाड़ियों पर ले जाते थे और विभिन्न प्रकार के जंगली बेरों, जैसे- जामुन (जावा प्लम), इमली, बोरास (बेर), आदि को इकट्ठा करते थे। हम इनकी पौध को भी साथ ले जाया करते थे, ताकि इन्हें कहीं और भी उगा सकें। पहाड़ियों में घूमते हुए मैंने जाना कि बेर के ये पेड़, प्रकृति के साथ बहुत अच्छे से ढल गए थे, वे वहां हजारों सालों से बिना किसी देखभाल के बढ़ रहे थे।”

कभी हर किसान के पास हुआ करते थे हजारों पेड़

साल 2014-15 में अपने नियमित रोपण अभियान के दौरान, उन्हे गांव के स्थानीय किसानों से बातचीत करने का मौका मिला। तब ग्रामीणों ने उन्हें बेर के पेड़ों की संख्या कम होने की बात बताई थी। उनके अनुसार, “गांवों के शहरीकरण और बढ़ती कृषि भूमि के कारण इनकी संख्या में कमी आई है। एक समय था, जब गांव के हर किसान के पास एक से दो हजार पेड़ होते थे। जिन्हें अगर एक साथ जोड़ा जाता, तो ये लाखों की संख्या में थे। लेकिन आज एक किसान के पास सिर्फ 50 से 100 पेड़ मिलेंगे।”

Pravin urges younger generations to plant, preserve and buy boras

वह बताते हैं, “शहर में बेरों को खरीदने वाले ज्यादा लोग नहीं हैं।” यही वजह है कि रास्ते पर सड़कों के किनारों पर लगे पेड़ों की संख्या भी धीरे-धीरे कम होती चली गई। गांव में बचे पेड़ों की संख्या अभी भी शुरुआती आंकड़ों से एक फीसदी कम ही है।

प्रवीण कहते हैं, “किसान मुझे बताते थे कि कैसे वे बेर की बोरियों ( Wild Berries ) को ट्रक में लादकर मुंबई और अन्य शहरों में भेजते थे। लेकिन अब वह सब नहीं रहा। अब न तो बेर से होने वाली आमदनी रही और न ही बेर को पसंद करने वाले लोग।”

विटामिन के मामलों में बेल और आंवला से काफी आगे

प्रवीण जंगली बेर खाते हुए ही बड़े हुए थे। वह इसके स्वाद और खासियतों से अच्छे से वाकिफ थे। उन्होंने जंगली बेरों की अलग-अलग वराइटी और उनके स्वाद और फायदों को लेकर दस्तावेज तैयार करना शुरू कर दिया। वह बताते हैं, “मैंने पौध उगाने (Growing wild berries) के लिए बीज इकट्ठा किए और बोरा की 54 वरायटी को डॉक्यूमेंट किया है। सबसे पहले मैंने बोरा के स्वाद को नोट किया कि किसमें अधिक मिठास, खट्टापन और कसैला स्वाद है। फिर मैंने इनमें मौजूद विटामिन्स के लिए पौधों का अध्ययन किया। उसके बाद ही जान पाया कि विटामिन के मामले में यह, बेल और आंवला से काफी आगे है।”

प्रवीण ने बोरा के पौधों पर इतना अध्ययन कर लिया कि CEE में उनके सहयोगी उन्हें ‘बोरा मैन’ कहकर बुलाने लगे। वह बताते हैं, “ग्राफ्टिंग के जरिए हाइब्रिड खेती एक विकल्प था। लेकिन अलग-अलग किस्मों के बीज बोने से इनके भविष्य में बचे रहने की संभावनाएं ज्यादा थीं। मुझे यह तरीका ज्यादा सस्टेनेबल लगा। इसलिए मैंने बेर की अलग-अलग किस्म के बीजों को रोपना शुरू कर दिया।”

घर पर ही लगाए सैंकड़ो पेड़

प्रवीण ने अपने घर पर ही 600-700 पौध तैयार की। इनमें से काफी बीज उन्होंने बनेर गांव, सहतारा और गोवा के लोगों और दोस्तों के बीच भी बांटे थे। महामारी से पहले प्रवीण साल में कम से कम 500 पौध तैयार करते थे और फिर उन्हें लोगों को बांट देते थे। वह बताते हैं, “इस साल मुझे कोविड हो गया था, तो मैं नए बीज और पौध नहीं लगा पाया। लेकिन मुझे यकीन है कि मैंने पिछले कुछ सालों में करीब 1500 पेड़ उगाए हैं।”

साल 2018 में उन्होंने सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय (SPPU) के पास एक सरकारी नर्सरी में 3000 पौधे लगाए थे। उन्होंने लोक निर्माण विभाग महाराष्ट्र सरकार में भी बेर के पेड़ों के रोपण अभियान (Wild Berries) के बारे में बताया।

 Pravin Thete

फिलहाल, प्रवीण एक एनजीओ के साथ वृक्ष संरक्षक के रूप में काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा, “अपने इस अभियान के लिए मुझे ज्यादा पैसों की जरूरत नहीं पड़ती। मोटे खर्चों की बात करें, तो सिर्फ मिट्टी और ग्रो बैग पर मुझे खर्च करना पड़ता है। अपनी सेविंग से कुछ नहीं लेता क्योंकि मैं अकेले काम करने के बजाय, ज्यादातर सरकारी संस्थानों या फार्म के साथ मिलकर काम करता हूं। जिससे मेरी काफी मदद हो जाती है।” उन्होंने पुणे में राम नदी के किनारे भी कुछ पौधे लगाए हैं

लोग कहते हैं ‘बोरा मेन’ और ‘मौली’

प्रवीण को लोग अपने खेतों या घरों में बेरों की अलग-अलग किस्म के बीज लगाने (Growing wild berries) के लिए बुलाते हैं। वह कहते हैं, “मेरे जानने वाले लोग मुझे ‘मौली’( इसका मतलब है सबकी मां) कहकर बुलाते हैं, तो वहीं बहुत से लोग मेरे काम की वजह से मुझे ‘बोरा मैन’ के रूप में भी जानते हैं।”

स्वादिष्ट और बेहतरीन बेरों के पेड़ों के संरक्षण पर ज़ोर देते हुए, वह युवा पीढ़ी से बोरा लगाने, संरक्षित करने और उन्हें खरीदने का आग्रह करते हैं।

अंत में प्रवीण कहते हैं “लोग अक्सर अपने खाने में समरूपता चाहते हैं। जब आम या सेब के स्वाद की बात आती है, तो वे हर रूप में लोंगो को पसंद होते हैं। लेकिन जंगली बेर जैसे सेहतमंद फल खाने का मज़ा ही कुछ और है। बाजार में मौजूद किसी भी फल से वह संतुष्टि नहीं मिल सकती, जो इन देसी जंगली बेरों को खाने से मिलती है।”

मूल लेखः योशिता राव

संपादनः अर्चना दुबे

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