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महामारी में खोया सबकुछ और फिर खड़ा किया दुनिया भर में मशहूर ब्रांड ‘चितले बंधु’

हममें से बहुत से लोग चितले ब्रांड (Chitale Bandhu) को इसके श्रीखंड, दही और अन्य डेयरी खाद्य उत्पादों की वजह से जानते हैं। यह देसी ब्रांड, एक गुजराती स्नैक के अपने संस्करण ‘भाकरवड़ी’ के लिए भी खासा लोकप्रिय है। करोड़ों के इस चितले बंधु ब्रांड (Chitale Bandhu) के सफर की शुरुआत, 1939 में महाराष्ट्र के सुदूर इलाके में रहने वाले एक डेयरी चलाने वाले ने कुछ दर्जन भैसों को खरीद कर की थी और डेयरी फार्म का एक सफल बिजनेस खड़ा किया। जमींदारों और साहूकारों के परिवेश से आये डेयरी किसान भास्कर गणेश चितले, जिन्हें बाबा साहेब के नाम से भी जाना जाता है, उन्हें तब यह अंदेशा नहीं था कि उनका यह बिजनेस सफलता की उचाईयों पर पहुंचेगा। डेयरी फार्मिंग से शुरू हुआ यह बिजनेस आज एक बड़ा नाम बन चुका है। इनकी मिठाइयों और भाकरवड़ी के साथ-साथ, इनके अन्य खाद्य उत्पाद भी देश-विदेश तक पसंद किये जाते हैं। चलिए आपको बताते हैं, इनकी सफलता की कहानी।

भास्कर गणेश चितले, महाराष्ट्र  में काफी मशहूर थे। लेकिन, इनका यह सफर इतना आसान नहीं था। 20वीं सदी के शुरुआती दौर में, भास्कर ने 14 वर्ष की उम्र में अपने पिता को खो दिया। इसके बाद, अपनी माँ की देखभाल करने के लिए, उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। वह बाद में, लिंबगोवे के सूखाग्रस्त गाँव में एक खेत में मजदूरी करने लगे, जो सतारा से लगभग 20 किमी दूर था। कुछ सालों में ही उन्हें लगने लगा कि ऐसे खेतों में मजदूरी करने से परिवार नहीं चलने वाला। अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए, वह साल 1939 में सांगली जिले के भिलवड़ी आ गए। और, यहीं से शुरू हुई चितले (Chitale Bandhu) की सफलता की कहानी! 

शरुआती सफ़र 

चितले बंधु की चौथी पीढ़ी भी आज व्यपार से जुड़ी है। बाबा साहेब के परपोते, इंद्रनील अपने परिवार के डेयरी बिजनेस में अपने शुरुआती दिनों को याद करते हुए कहते हैं, “परिवार के साथ भोजन करते हुए, अक्सर हम बिजनेस से जुड़ी बातें किया करते थे। तब बिल्कुल एक बोर्डरूम मीटिंग जैसा माहौल बन जाता था। मेरे दादा नरसिंहा, अक्सर हमें फैक्ट्री तथा शेड पर साथ ले जाया करते थे।

 एक दशक पहले यह बिजनेस ज्वॉइन करने वाले 32 वर्षीय इंद्रनील ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए बताया, “मेरे परदादा ने 1918 की महामारी में अपना सब कुछ खो दिया था। इसके बाद वह भिलवड़ी आए, जो कृष्णा नदी के तट पर स्थित है। इसलिए, व्यवसाय शुरू करने के लिए यह एक अच्छी जगह थी। यहाँ पूरे साल पानी की उपलब्धता थी और मुंबई तक पहुंचने वाली एक रेलवे लाइन भी थी।” 

भिलवड़ी में पालतू जानवर जैसे- गाय, भैंस आदि के लिए काफी मात्रा में चारे और पानी की सुविधा थी। इसलिए, यहाँ दूध का उत्पादन भी काफी अच्छा होता था। यहीं से बाबा साहेब को डेयरी व्यवसाय का ख्याल आया। इंद्रनील बताते हैं “जिन दिनों डेयरी व्यवसाय की स्थापना की गई थी, उन दिनों दूध का पैस्च्युराइज़ेशन (आंशिक निर्जीवीकरण) या उसकी गुणवत्ता का मानकीकरण नहीं होता था। दूध को ताज़ा ही बेचना पड़ता था या इसे दही या खोआ जैसे खाद्य उत्पादों में बदला जाता था। वह आगे बताते हैं कि वे शुरुआत में, मुख्य रूप से एक ‘B2B’ (बिजनेस टू बिजनेस) सप्लायर थे।

ब्रिटिश रेल की मदद से दूध से बने खाद्य उत्पादों को मुंबई भेजा जाने लगा। लेकिन, बिजली और संचार न होने के कारण बाजार पर ध्यान बनाये रखना मुश्किल हो गया था। तब बाबा साहेब अपने बड़े बेटे, रघुनाथ चितले को मुंबई में बिजनेस संभालने के लिए अपने साथ लेकर आये, जो उन दिनों सूरत की एक मिल में काम करते थे। दूध सप्लाई का बिजनेस करने के लिए, नियमित ग्राहकों का होना जरूरी है, जो उन दिनों मुंबई में काफी मुश्किल था। यही वजह थी कि उन्होंने अपना बिजनेस मुंबई की जगह पुणे में केंद्रित किया। 

इन्द्रनील कहते हैं कि 1944 में मेरे दादा तथा रघुनाथ राव के छोटे भाई, नरसिंहा बिजनेस में शामिल हो गए। लेकिन, महज B2B सप्लायर होने में कई समस्याएं थीं। उन्होंने आगे बताया, “जब भी खुदरा व्यापारी यह दावा करते थे कि दूध ताजा नहीं है, तो हम उन दावों की जांच करने में असमर्थ थे। इसके कारण हमें आर्थिक नुकसान झेलना पड़ता था। यहीं से, हमने अपने खुद के ब्रांड (चितले डेयरी) के तहत दूध बेचना शुरू किया।”

वह अंदाजे से बताते हैं कि उन दिनों चितले के पास, लगभग 20 गायें थी और प्रतिदिन 45 से 50 लीटर दूध बेचते थे। वह आगे बताते हैं, “हम उतना ही बेच रहे थे, जितना हम उत्पादन कर रहे थे। हमारा 10 हजार वर्ग फीट का एक घर था, जिसके बगल में एक शेड था।” 1950 के दशक के मध्य में रघुनाथ के दो अन्य भाई, परशुराम और दत्तारेय भी बिजनेस में शामिल हो गए।

चितले डेयरी में दूध उत्पादन ज्यादा था, जबकि भंडारण की बड़ी व्यवस्था नहीं थी। इसी कारण बिजनेस को दो भागों में बांटा गया, ‘चितले डेयरी’ और ‘चितले बंधु मिठाईवाले’ (Chitale Bandhu)। 

इंद्रनील बताते हैं, “हम आज हर रोज़ लगभग आठ लाख लीटर दूध प्रोसेस करते हैं, जिसमें से चार लाख लीटर दूध को बेचा जाता है और बाकी बचे दूध से, गाढ़ा दूध और दही, पनीर, श्रीखंड, घी, चीज और दूध पाउडर आदि बनाया जाता है।

श्रीखंड, स्टोर और आसान प्रक्रियाएं

इस इंटरनेट के दौर में, ऐसे समय के बारे में सोचना कठिन सा लगता है, जब फीडबैक व्यक्तिगत रूप से दिए जाते थे। इंद्रनील के पिता संजय चितले कहते हैं, “मेरे पिता (नरसिंहा) और चाचा द्वारा निर्मित ब्रांड को आगे ले जाने की जरूरत थी। किसी वेबसाइट, फेसबुक, इंस्टाग्राम या सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के बिना ही, ग्राहकों से हमारा संपर्क काफी अच्छा था, हम सभी एक परिवार के जैसे थे। हमारी दुकान में ग्राहक हमें हर तरह के फीडबैक देते थे, जिससे हमें आगे बढ़ने में काफी मदद मिलती थी। 

पुरानी बातों को याद करते हुए संजय कहते हैं, “हमारे श्रीखंड में फैट का प्रतिशत, तय मानकों से अधिक था, हमें इसकी मंजूरी लेने के लिए दिल्ली जाना था। पूर्व रेल मंत्री, राम नाइक मेरे पिता के मित्र थे, जिन्होंने हमारी बहुत मदद की। उन्होंने हमें श्रीखंड को दिल्ली लाने के लिए कहा, जहाँ तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री सुषमा स्वराज ने भी श्रीखंड को चखा और पसंद किया।

दूध और उनसे बने उत्पाद जल्दी खराब हो जाते हैं। ऐसे में, उन्हें समय पर ग्राहकों तक पहुँचाना भी एक बड़ी चुनौती थी।  इंद्रनील बताते हैं, “1970 के आसपास, परिवहन के लिए सड़के इतनी अच्छी नहीं थी और पैकेजिंग से भी जुड़ी कई समस्यायें थीं। 1970 तक कांच की बोतलों में दूध पहुंचाया जाता था। इसके बावजूद, हम कच्चे दूध को अलग-अलग जगहों से लाते और प्रोसेस करते, फिर बाजार में सुबह चार बजे तक दूध को सप्लाई करते तथा सुबह सात बजे तक इसे ग्राहकों तक पहुंचाते थे।” 

आज डेयरी बिजनेस सेंटर के लगभग 75 किमी तक, कई दूध संग्रह केंद्र हैं। इंद्रनील कहते हैं, “लगभग 40 हजार किसान हमारे साथ काम करते हैं, जो ‘दूध संघ’ को अपना कच्चा दूध सप्लाई करते हैं। हर किसान, लगभग 20 लीटर दूध की सप्लाई करता है।” 

वह आगे बताते हैं, “खुदरा व्यापारियों के साथ हमें उधार पर काम करना पड़ता था, जिसके कारण किसानों को नियमित तौर पर भुगतान नहीं हो पाता था। हमें एक ऐसा रास्ता खोजना था, जिससे नकद की समस्या न हो और कैश फ्लो बना रहे। इसलिए, हमने दूध तथा मिठाई बेचने के लिए दुकाने शुरू की, जिससे नियमित कैश फ्लो बना रहे।”

इस प्रक्रिया को व्यवस्थित करने के लिए, इस ब्रांड ने अब क्लाउड कंप्यूटिंग, डाटा एनैलिसिस और किसानों को ऑटोमेटेड भुगतान करने जैसी तकनीकों को अपनाया है।

इंद्रनील कहते हैं, “इसके अलावा, खाद्य उत्पाद में एस्टीरॉइड और पेस्टीसाइड न हो, इसे सुनिश्चित करने के लिए नियमित तौर पर कई तरह की जांच भी की जाती है। हमारा दूध सप्लाई का बिज़नेस मुंबई और पुणे तक ही है, जबकि चितले (Chitale Bandhu) मिठाई की मांग दुनियाभर में है। हमारे ब्रांड को इस साल 82 साल पूरे हो गए हैं। अपने खाद्य उत्पादों को विदेशों में बेचने के लिए, हमें विभिन्न देशों के नियमों का पालन करना होता है।”  

चितले बंधु की भाकरवड़ी 

साल 1983 में बिजनेस में शामिल होने वाले संजय कहते हैं, “1980-95 के बीच का समय, ब्रांड के लिए महत्वपूर्ण था।”  उन्होंने आगे बताया, “हम उस समय एक विशेष महाराष्ट्रियन ब्रांड थे। हमारा ब्रांड अन्य समुदायों तक अपनी पहुंच बनाना चाहता था। उन्हें अपने खाद्य उत्पादों की ओर आकर्षित करने के लिए, हमने भाकरवड़ी का विकल्प पेश किया।”
70 के दशक में नरसिंहा के एक पड़ोसी ने उन्हें एक गुजराती स्नैक भाकरवड़ी से अवगत कराया। जो भाकरवड़ी का नागपुरी वेरियंट बनाते थे। 

बाद में चितले (Chitale Bandhu) ने इस गुजराती स्नैक को दो राज्यों के स्वाद को ध्यान में रख कर बनाना शुरू किया। इंद्रनील कहते हैं, “नागपुर में इसे ‘पुडाची वडी’ कहा जाता है। यह एक बहुत ही मसालेदार और तला हुआ स्प्रिंग रोल है। इसका गुजराती वेरियंट भी तला हुआ होता है, लेकिन इसमें लहसुन और प्याज की मात्र अधिक होती है। मेरे दादा ने नागपुर पुडाची वडी का मसालेदार स्वाद और गुजराती भाकरवड़ी के आकार को मिलाकर, एक अलग तरह की भाकरवड़ी तैयार करने के बारे में सोचा।” 

नरसिंहा की बड़ी भाभी विजया और पत्नी मंगला ने भाकरवड़ी को अच्छे से बनाना सीख लिया। साल 1976 में, ये भाकरवड़ी बाजार में बिकनी शुरू हुईं और जल्द ही इनकी मांग इतनी बढ़ गई, जिसे पूरा कर पाना मुश्किल हो रहा था।  

संजय का कहना हैं कि हमने भाकरवड़ी के लिए, 100 लोगों को काम पर रखा था। फिर भी वे मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं थे। वह कहते हैं, “1992-96 के दौरान, मैंने भाकरवड़ी मशीनों को खोजने और शोध करने के लिए कई यात्राएं की। मशीनों के लिए बहुत शोध की जरूरत थी तथा उन दिनों, डाक द्वारा ही संपर्क संभव हो पाता था, जिसमें एक लंबा समय लगता था।

इंद्रनील कहते हैं, “आज हमारे पास भाकरवड़ी बनाने की तीन मशीनें हैं, जिनमें एक घंटे में लगभग एक हजार किलो उत्पादन होता है। इनमें एक ही तरह का चटपटा मसालेदार स्वाद बनाये रखने के लिए, हम एक विशेष तरह की हरी और लाल मिर्च उगाते हैं।” 

चितले (Chitale Bandhu) की अपनी एक फ्रूट प्रोसेसिंग यूनिट है, जिसमें आम का पल्प तैयार किया जाता है। इसे श्रीखंड और आम की बर्फी बनाने के लिए, उपयोग में लिया जाता है। इस प्रक्रिया के जरिये, यह सुनिश्चित किया जाता है कि सालभर इनका स्वाद एक जैसा बना रहे। इनका गुलाब जामुन मिश्रण भी ग्राहकों के बीच काफी हिट है। 

घरेलू नाम इंटरनेशनल ब्रांड  

यह कंपनी जो दूध की बोतलों की डिलीवरी के साथ शुरू हुई थी, अब कीटो-वीगन उत्पादों में भी अपने हाथ आजमा रही है। इंद्रनील कहते हैं, “इंटरनेट की मदद से हम दुनिया भर में अपने उपभोक्ताओं के साथ बहुत बेहतर तरीके से जुड़े हुए हैं। ई-कॉमर्स की मदद से हम कई खाद्य उत्पादों को लॉन्च कर पा रहे हैं। जो खुदरा बाजार में ज्यादा नहीं चलते, लेकिन ऑनलाइन प्लेटफार्म पर इनकी मांग काफी रहती है, जैसे- कम चीनी वाले, कीट फ्रेंडली और  वीगन फ्रेंडली खाद्य उत्पाद।”

इंद्रनील कहते हैं, “चितले ब्रांड (Chitale Bandhu) देश की पहली ऐसी कंपनी थी, जिसने 1971 में दूध को पाउच में पैक करना शुरू किया था। पहले, कांच की बोतलों को संभालना तथा उन्हें साफ करना, काफी मुश्किल भरा होता था। इससे काफी नुकसान भी झेलना पड़ता था। दूध को पाउच में पैक करने की वजह से, हम ज्यादा से ज्यादा ग्राहकों तक पहुँच पा रहे थे।”

चार भाइयों को मिलाकर कुल 10 कर्मचारियों से शुरू हुआ यह बिजनेस, आज एक अंतरराष्ट्रीय ब्रांड बन चुका है और आज यहाँ दो हजार लोग काम कर रहे हैं। 

संजय कहते हैं, “लोगों के बीच हमारे ब्रांड की लोकप्रियता इतनी ज्यादा थी कि हमें कभी अपने खाद्य उत्पादों का प्रचार करने की जरूरत नहीं पड़ी। उन दिनों, टीवी पर केवल दूरदर्शन चैनल आता था, जबकि अखबारों में विज्ञापन देना काफी मंहगा हुआ करता था। इसलिए मात्र त्योहारों के समय ही हम विज्ञापन देते थे।”

82 साल बाद भी, आज ग्राहकों को बांधे रखने के लिए चितले बंधु का नाम ही काफी है।

मूल लेख – योशिता राव

संपादन – प्रीति महावर

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