“पहले हमारे आस-पास ही तरह-तरह की वनस्पतियों के पेड़-पौधे हुआ करते थे। खेती देसी और पारंपरिक बीजों से होती थी। देसी चारा पशु खाते थे और खान-पान स्वस्थ हुआ करता था। लेकिन अब आप अपने आस-पास देखें कि आपको कितनी तरह की वनस्पति दिखाई पड़ती है। आज के बच्चों को तो नाम तक भी नहीं पता होंगे,”भरत मकवाना जब यह कहते हैं, तो उनकी आवाज़ में पर्यावरण के प्रति चिंता साफ़ ज़ाहिर होती है।
34 वर्षीय भरत कच्छ जिले के एक प्राइमरी स्कूल में शिक्षक हैं और पिछले कई सालों से वह पर्यावरण संरक्षण के कार्यों से भी जुड़े हुए हैं। एक किसान पिता के घर जन्में भरत ने बचपन से ही प्रकृति को समझा। सरकारी स्कूल में पढ़ने के दौरान वह स्कूल में लगने वाले सभी तरह के पेड़-पौधों के बीज इकट्ठा करके घर ले आते थे। अपने घर पर उन पेड़-पौधों को लगा देते। उनके पिता अक्सर उन्हें अपने साथ लकड़ी काटने के लिए जंगल भी ले जाते थे, जहाँ उनकी पहचान अलग अलग वनस्पतियों से हुई।
“मेरे पिता ने मुझे जंगल में बहुत-सी वनस्पतियों से अवगत कराया। उनमें से एक थी डोडी, जिसे लोग जीवंती के नाम से भी जानते हैं। पिताजी बताते थे कि जीवंती के पत्ते चबाने से और इसके पत्तों की सब्ज़ी बनाकर खाने या फिर इनका रस पीने से आँखें कमजोर नहीं होतीं। जीवंती लता में से आँखों की दवाइयां भी बनतीं हैं। किसी जमाने में घर-घर में पाई जाने वाली जीवंती अब ढूंढने पर भी नहीं मिलती है,” भरत बताते हैं।
साल 2010 में अपनी मेहनत और लगन से भरत एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय में बतौर शिक्षक नियुक्त हुए। लेकिन जब वह स्कूल में पढ़ाने लगें तो उन्होंने देखा कि छोटे-छोटे बच्चों को चश्मे लगे हुए हैं। वह सोच में पड़ गए कि आखिर ऐसी क्या वजह है कि छोटे-छोटे बच्चों की आँखे कमजोर हो रही हैं?
उन्होंने इस बारे में लोगों से चर्चा की, विचार-विमर्श कर कुछ शोध और लेख पढ़े तो उन्हें पता चला कि इसकी वजह कही न कही हमारे खान-पान से जुड़ी है। आजकल का खाना स्वस्थ नहीं है और न ही पहले की तरह अब बच्चों को नीम, गिलोय या जीवंती आदि के पत्ते चबाने को मिलते हैं। जिनसे शरीर के कई विकार ठीक होते हैं।
भरत ने ठाना कि इस सन्दर्भ में उन्हें कुछ करना होगा। सबसे पहले तो लुप्त होतीं भारत की देसी और दुर्लभ वनस्पतियों को सहेजना होगा। आने वाली पीढ़ी को ऐसे पेड़-पौधों के बारे में जागरूक करना होगा। उन्होंने अपने पिता से इस बारे में बात की और फिर उनके साथ जंगलों में जाकर जीवंती और कई अन्य तरह की वनस्पतियों के बीज इकट्ठा किए। उन्होंने अपने पिता से खेती में कुछ ज़मीन खाली छोड़ने को कहा, जहां उन्होंने लगभग 1200 पेड़-पौधे लगाये।
इसके साथ ही भरत ने बीज बनाकर अपने स्कूल में रोपित किए और बच्चों को अपने-अपने घर पर लगाने के लिए भी पौधे तैयार करके दिए। उनके स्कूल के इस अभियान को देखकर, दूसरे सरकारी स्कूलों ने भी उनसे संपर्क किया। इस तरह से भरत की यह पहल गुजरात के कई और अन्य जिलों के स्कूलों तक पहुंची। बीज तैयार करने और फिर उनसे पौधे तैयार करने में भरत की पत्नी जागृति उनकी काफी मदद करती हैं। जागृति भी एक सरकारी स्कूल में शिक्षिका हैं और उन्होंने भी अपने स्तर पर इस काम को काफी आगे बढ़ाया है।
जीवंती के बाद भरत और जागृति ने दूसरी वनस्पतियाँ जैसे गूगल, गिलोय आदि के बीज भी इकट्ठा करना शुरू किया। उन्होंने अपने पिता को प्रेरित किया कि वह सब्जियां भी देसी बीज वाली बोयें। अब उनके पास कद्दू, करेला जैसी सब्जियों के देसी बीज भी हैं। अगर कोई उनसे बीज मंगवाता है तो भरत अपनी जेब से पैसे खर्च कर उन्हें कूरियर से बीज पहुंचाते हैं। अगर किसी को पौधे चाहिए तब भी वह एक न्यूनतम टोकन चार्ज लेकर इन्हें भेज देते हैं।
भरत के मुताबिक वह पिछले साल तक वह लगभग 11 लाख बीज इकट्ठा करके बाँट चुके हैं।
पिछले दो साल से वह पौधे भी तैयार कर रहे हैं और हर साल लगभग 5, 000 पौधे तैयार करके वह बांटते हैं।
भरत और जागृति साल भर में इस काम के लिए अपनी-अपनी एक महीने की सैलरी खर्च करते हैं। उनका उद्देश्य है, ‘हर-हर डोडी, घर-घर डोडी,’ ताकि हर एक घर में पेड़-पौधे हों। भरत कहते हैं कि डोडी का बीज लगाना बहुत ही आसान है। आप इसके बीजों को किसी भी गमले में लगा दें। ध्यान रहे कि जितना बीज है उसके ऊपर उतनी ही मिट्टी हो ताकि यह अंकुरित हो सके।
नियमित तौर पर पानी आदि दें और एक-डेढ़ महीने में ही यह फैलना शुरू हो जाएगी। कोई भी इसे अपने घर की छत पर या आँगन में लगा सकता है। ध्यान रहे कि यह बेल है तो काफी फैलती है लेकिन बड़ी ही फायदेमंद है। डोडी के अलावा, भरत और जागृति अब सब्जियों के भी देसी बीज इकट्ठा करते हैं और लोगों को बांटते हैं।
इसके अलावा, भरत ने गुजरात के 6 जिलों की यात्रा भी की है और हर जिले के स्कूल-कॉलेज में जा-जाकर उन्होंने छात्रों और शिक्षकों को जागरूक किया है। भरत कहते हैं कि अब लोग प्रकृति की ज़रूरत और महत्व को समझ रहे हैं।
आज के समय को देखते हुए ज़रूरी है कि हम अभी से पर्यावरण संरक्षण के लिए ठोस कदम उठाएं जैसा कि भरत और जागृति उठा रहे हैं। अगर शिक्षक बचपन से ही बच्चों को पेड़-पौधों से जोड़ेंगे तो वे सदा इस सीख को याद रखेंगे!
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संपादन – मानबी कटोच