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मिठाइयां यूपी की, स्वाद तमिलनाडु का, खुश्बू पहुंची विदेशों तक

Traditional Sweets Shop

आप गुजिया खाने के लिए शायद होली का इंतज़ार कर रहे हों लेकिन, तंजावुर में रहने वाले लोग इसके स्वाद का लुत्फ, जब चाहें तब उठा सकते हैं। ‘बॉम्बे स्वीट्स’ नाम की इस परंपरागत मिठाई की दुकान (Traditional Sweets Shop) में, यह गुजिया (जिसे चंद्रकला भी कहा जाता है) साल भर मिलती है। मंदिरों के शहर, तंजावुर में यह दुकान 1949 में शुरू हुई थी और तब से लेकर आज तक, यह दुकान यूपी का स्वाद, दक्षिण के कई घरों तक पहुँँचा रही है।

इस दुकान में मिलने वाली चंद्रकला की मिठास, महक और स्वाद के मामले में, पिछले 70 सालों में ज़्यादा बदलाव नहीं आया है। अर्धचंद्र आकार की ये मिठाई मैदे से बनाई जाती है। जिसमें खोया और मावा भरकर, घी में तला जाता है।

पिछले कई सालों में बॉम्बे स्वीट्स में केवल एक ही बदलाव आया है और वह है दुकान का आकार। 10×10 फीट के छोटे से कमरे से शुरु की गई यह दुकान, अब 16 हजार वर्ग फुट की एक शानदार दुकान बन गई है। इस बड़ी सी दुकान की अब 14 शाखाएं हैं। यहाँ की मिठाइयों के लाजवाब स्वाद के कारण, इस बॉम्बे स्वीट्स ने कई दिलों में अपनी एक खास जगह बना ली है।

आमतौर पर माना जाता है कि क्षेत्रीय व्यंजनों में विशेषज्ञता रखने वाली दुकानों की स्थापना ऐसे लोग ही करते हैं, जिनके पूर्वज सालों से उस जगह रहे हों। लेकिन बॉम्बे स्वीट्स के संस्थापक, गुरु दयाल शर्मा की कहानी थोड़ी अलग है। पारंपरिक रूप से मिठाई बनाने वाले गुरु दयाल शर्मा, मूल रूप से उत्तर प्रदेश के मथुरा के रहने वाले थे, जो काम के सिलसिले में 1940 में दक्षिण भारत आए थे।

द बेटर इंडिया से बात करते हुए गुरु दयाल के बेटे और बॉम्बे स्वीट्स के मैनेजिंग डायरेक्टर, बीजी सुब्रमणि शर्मा ने बताया, “मेरे पिता ने तंजावुर में अपना घर बनाने से पहले थोड़े समय के लिए, चेन्नई के एक रेस्तरां में काम किया। उन्होंने यूपी की तुलना में, चेन्नई की संस्कृति, विशेष रूप से भोजन में, बड़ा फर्क देखा। तंजावुर में अपनी दुकान खोलने से पहले, वह उस जगह से परिचित हुए जहाँ मुंडु पहना जाता था और नाश्ते में इडली खाई जाती थी। उन्होंने अपनी दुकान को लोकप्रिय बनाने की चुनौती ली। उन्होंने यहाँ अपनी जड़ें जमाईं और आज, हम सभी, जिसमें ग्राहक भी शामिल हैं, उनकी मेहनत और दूरदर्शी सोच का लाभ ले रहे हैं।”

शर्मा के अनुसार, बॉम्बे स्वीट्स में हर दिन औसतन चार हजार ग्राहक आते हैं। यहाँ ग्राहकों के लिए 200 प्रकार की मिठाइयां और सात तरह के स्वादिष्ट स्नैक्स मिलते हैं। इनमें घी मैसूर पाक, अजमेर केक, मिनी बदूशा, गाजर मैसूर पाक, चुकंदर मैसूर पाक, काजू जलेबी, केसर लड्डू, नारियल मुरुक्कू, बादाम लच्छा मिक्सचर, पैपर कारा बूंदी और कर्ड सिदई शामिल हैं।

हालांकि, सबसे ज्यादा बिकने वाली मिठाई, चन्द्रकला और सूर्यकला (पूरी तरह गोल गुजिया) हैं। यहाँ तक ​​कि कोविड-19 के दौरान लगे लॉकडाउन में भी, वे हर दिन 200 किलो से अधिक चन्द्रकला बेच रहे थे, जो अपने आप में एक उपलब्धि है।

अमेरिका, कनाडा और सिंगापुर जैसे देशों में निर्यात किए जाने वाले, दो मीठे व्यंजनों में ऐसी क्या खासियत है, जिनका नाम सुनते ही मुँह में पानी आ जाता है?

शर्मा ने द बेटर इंडिया को बॉम्बे स्वीट्स की रसोई के अंदर का नज़ारा दिखाया, जहाँ से घी और मिठाइयों की खूशबू लगातार आ रही थी।

बॉम्बे स्वीट्स को लोकप्रिय बनाने वाली खास बात

गुरु दयाल ने 1949 में तंजावुर रेलवे स्टेशन के सामने, मामूली कीमत पर एक छोटा सा कमरा खरीदा और इसका नाम ‘बॉम्बे स्वीट्स’ रखा ताकि लोगों को आसानी से नाम समझ आ सके। उन्होंने दक्षिण भारतीय ट्विस्ट के साथ एक उत्तर भारतीय मिठाई, गुजिया बनाई। उन्होंने चाशनी में चीनी की मात्रा बढ़ा दी और सूखी गुजिया को उसमें डुबोकर, तैयार मिठाई को लोगों को परोसने लगे।

पेस्ट्रीज, जो मथुरा में छप्पन भोग के दौरान प्रसिद्ध रूप से परोसी जाती हैं, खोये और मेवों से भरी होती है। फिर, शक्कर की चाशनी में डुबाने से पहले इसमें केसर और इलायची पाउडर मिलाया जाता है। चंद्रकला बनाना एक कला है, जिसे सलीके से बनाना बहुत जरूरी होता है। शर्मा कहते हैं, अगर किसी भी स्टेप पर थोड़ी भी देरी होती है या इसे गलत तरीके से मोड़ा जाता है या फिलिंग को ठीक से भूना नहीं जाता तो बनी-बनाई मिठाई का पूरा स्वाद ही बदल जाता है। शर्मा दिन में कम से कम एक घंटे के लिए, बॉम्बे स्वीट्स की रसोई में रहते हैं और सारी प्रक्रिया पर नज़र रखते हैं।

कर्मचारी आटा गूंदने के लिए, पैडल मिक्सचर का उपयोग करते हैं। जिसके बाद बेलने के लिए, इनके समान आकार के पेड़े काटे जाते हैं। किनारों को सावधानी से उभार जैसे पैटर्न में मोड़ा जाता है। इसके बाद गुजिया को गर्म घी में, मध्यम आंच पर तला जाता है। और अंत में इसे चीनी की चाशनी में डुबाया जाता है।

दूसरों के लिए, यह सिर्फ एक प्रक्रिया हो सकती है। लेकिन शर्मा के लिए, यह सालों से सहेजा जा रहा, घर के एक रिवाज़ जैसा है, जिसमें वह अपने बचपन से शामिल होते आ रहे हैं। बचपन को याद करते हुए शर्मा कहते हैं, “मैं सुबह उठ जाता था और स्कूल जाने से पहले, अपने पिता की मदद करता था। मैं कुछ बुनियादी चीजों में उनकी मदद करता था, जैसे कि आटा मलना और सामग्री तैयार रखना। मुझे स्कूल में ‘मैदा मावु’ नाम से पुकारा जाता था क्योंकि, मुझसे आटा की गंध आती थी। जैसे-जैसे मैं बड़ा हुआ, मैंने सीखा कि गुजिया के किनारों को सलीके से कैसे मोड़ा तथा बंद किया जाता है। मुझे अपने पिता के कौशल को देख कर बहुत ज्यादा ख़ुशी होती थी। वह अपने आप में, एक बहुत अच्छे कलाकार थे। ”

पीढ़ियों से चली आ रही परंपरा

शर्मा निश्चित रूप से, अपनी पाक विरासत को आगे बढ़ाने की दिशा में काम कर रहे हैं। शर्मा कहते हैं कि उन्हें अपने पिता से एक गुप्त नुस्खा विरासत में मिला था, जिसे उन्होंने हाल ही में अपनी पत्नी और दो बेटियों को बताया है।

शर्मा आगे कहते हैं, “यह राज़ मेरे पिता के शुद्ध और प्रामाणिक नुस्खे में निहित है, जिन्होंने गुणवत्ता के साथ कभी समझौता नहीं किया। दूध या चीनी जैसी सामग्रियों की दरें क्या हैं या पीक सीजन में हमें कितने ऑर्डर मिले हैं, इससे फर्क नहीं पड़ता। मंत्र सिर्फ यही है कि उन वस्तुओं को बेचने से बचा जाना चाहिए, जो ठीक से नहीं बनी हैं। मुझे याद है, जब अपने शुरुआती दिनों में हमने दूसरा स्टोर खोला था तब मैंने अपने पिता के सामने एक प्रस्ताव रखा था कि क्यों ना हम आटा पहले ही गूंद कर रख लें। मेरे इस प्रस्ताव से मेरे पिता बहुत नाराज़ हो गए थे और फिर मुझे समझ में आया कि ताजा गुंदे हुए आटा से क्या अंतर पड़ता है। प्रत्येक सदस्य की स्वच्छता को लेकर भी वह बहुत सख्त थे।”

शर्मा ने एक और गुण जो अपने मेहनती पिता से लिया है, वह त्योहारों तथा विशेष अवसरों पर रसोई में उपस्थित होना है। अपने पिता की तरह, शर्मा कभी कैश काउंटर पर नहीं बैठते हैं। इसके बजाय, वह रसोई में संगीत सुनने और कर्मचारियों की मदद करने में, अपना समय देते हैं।

शायद हर चरण में खुद शामिल होने का ही यह गुण है, जो कड़ी प्रतिस्पर्धा के बावजूद इस दुकान को दूसरी दुकानों से अलग करता है। शर्मा आगे कहते हैं, “मेरा फ़ॉर्मूला बहुत ही सरल है – नवाचार करने के साथ-साथ, अपने उद्यम की विचारधारा को याद रखें और उसका पालन करते रहें।”

बॉम्बे स्वीट्स के बारे में अधिक जानने के लिए यहाँ देखें।

मूल लेख- गोपी करेलिया

संपादन- जी एन झा

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