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Home अनमोल इंडियंस रियल लाइफ 'जय भीम': कौन हैं दलितों के हक़ के लिए, निःस्वार्थ लड़ाई लड़ने वाले वकील चंद्रु?

रियल लाइफ 'जय भीम': कौन हैं दलितों के हक़ के लिए, निःस्वार्थ लड़ाई लड़ने वाले वकील चंद्रु?

'जय भीम' के नायक जस्टिस चंद्रु के जीवन की कहानी, न केवल अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाने की है, बल्कि उन्हें अंजाम तक पहुँचाने की भी है। पढ़िए यह अद्भुत कहानी!

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सूर्या शिव कुमार की तमिल फिल्म ‘जय भीम’ हाल ही में Amazon Prime पर रीलिज हुई है। अभिनेता सूर्या ने इस फिल्म में एडवोकेट चंद्रु का किरदार निभाया है, जो हमेशा गरीब और वंचित लोगों की मदद के लिए खड़ा रहता है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इस फिल्म में सूर्या ने जिस वकील का किरदार निभाया है, वह असल जिंदगी से जुड़ा है। 

निर्देशक टीजे ज्ञानवेल की यह फिल्म आदिवासी गर्भवती सेंगनी (लिजोमोल जोस) की कहानी कहती है, जो अपने पति राजाकन्नू (के मणिकंदन) का पता लगाने के लिए संघर्ष कर रही है। राजाकन्नू पर पुलिस ने चोरी का झूठा आरोप लगाया और कहा कि वह हिरासत से भाग गया है। सेंगनी को इस मामले में न्याय दिलाने में वकील चंद्रु (अभिनेता सूर्या) उनकी मदद करते हैं। 

13 साल की लड़ाई के बाद मिला न्याय

यह फिल्म 1993 में कुड्डालोर जिले में हुई एक सच्ची घटना पर आधारित है। मूल कहानी में, अंडाई कुरुम्बर जनजाति से संबंध रखने वाले राजाकन्नू पर एक घर से गहने चोरी करने का आरोप लगाया गया था। इस जनजाति से जुड़े लोग ज्यादातर बांस की टोकरियां बनाने के व्यवसाय से जुड़े हैं या फिर खेतिहर मजदूर हैं। शिकायत के आधार पर राजाकन्नू को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था। 

पुलिस के हाथों यातना सहने के बाद, राजाकन्नू की हिरासत में मौत हो गई। अपने अपराधों को छिपाने के लिए स्थानीय पुलिस ने उसके शव को पास ही के जिले तिरुचिरापल्ली (त्रिची) में फेंक दिया और बाद में दावा किया कि वह हिरासत से भाग गया था। राजाकन्नू की पत्नी, पार्वती इस बात से हैरान थी। उसने पुलिस की कहानी पर विश्वास नहीं किया। वह अपने पति का पता लगाने के लिए हर संभव कोशिश कर रही थी। अंत में, उसे मद्रास उच्च न्यायालय के एक वकील के. चंद्रु का साथ मिला, जिन्होंने इस मामले में न्याय दिलाने में उसकी मदद की। 

के चंद्रू, ने मद्रास उच्च न्यायालय में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर की। 13 साल की कानूनी लड़ाई के बाद, अदालत ने फैसला सुनाते हुए कहा कि यह हिरासत में मौत का मामला था। आरोपी पुलिस अधिकारियों को राजाकन्नू की हत्या के लिए 14 साल के कठोर कारावास की सजा सुनाई गई। एक इंटरव्यू में, चंद्रू याद करते हुए बताते हैं कि कैसे पुलिस ने मामले को दबाने के लिए पार्वती और उन्हें रिश्वत देने की कोशिश की थी। चंद्रू ने अपने ऑफिस से पुलिस और पैसों से भरे सूटकेस को बाहर निकाल दिया था। 

अन्याय से लड़ने का लंबा इतिहास

न्यायधीश चंद्रु, हमेशा एक वकील और अब एक सेवानिवृत जज के रूप में न्याय के लिए आवाज़ उठाते रहे हैं। सामाजिक मुद्दों के खिलाफ बोलने और अन्याय से लड़ने का उनका लंबा इतिहास रहा है। मद्रास उच्च न्यायालय में अपने साढ़े छह साल के कार्यकाल में उन्होंने बतौर जज 96,000 मामलों को सुलझाया। यह उल्लेखनीय उपलब्धि, उनकी बेदाग छवि और ईमानदारी के कारण ही संभव हो सकी।

उन्होंने एक दिन में औसतन 75 मामलों की सुनवाई की। इसके अलावा, सामाजिक न्याय को लेकर कई लैंडमार्क जजमेंट भी दिए। महिलाएं मंदिरों में पुजारी बन सकती हैं, अंतिम संस्कार के लिए जाती के आधार पर अलग-अलग श्मशान होने की बजाय एक सार्वजनिक श्मशान होना चाहिए, अधिकारों का संरक्षण और पूर्ण भागीदारी अधिनियम के तहत मानसिक बीमारियों से जूझ रहे सरकारी कर्मचारियों को बर्खास्तगी से सुरक्षा प्रदान करने जैसे ऐतिहासिक निर्णय पारित किए।

आज कानूनी पेशे से जुड़े लोगों में हम जिस तरह की लालसा और लालच देखते हैं, उसके विपरीत, न्यायमूर्ति चंद्रु एक विनम्र व्यक्ति रहे। उन्होंने अपना पूरा जीवन दलितों और गरीबों के लिए लड़ने के लिए समर्पित कर दिया।

सादगी भरा जीवन जीते रहे

साल 2013 में एक कानूनी प्रकाशन को दिए गए एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने कहा था, "पैसा मेरे लिए मायने नहीं रखता। मैं पूरी तरह से एक अलग जीवन जी रहा था। मेरी महत्वाकांक्षा '5-स्टार वकील' बनने की नहीं थी।"

जज रहते हुए, उन्होंने वकीलों से कहा था कि वे उन्हें अदालत में 'माई लॉर्ड' के रूप में संबोधित न करें। वह नहीं चाहते थे कि अदालत में उनके आने के लिए घोषणा की जाए। उन्होंने निजी सुरक्षा अधिकारी (PSO) रखने से भी इनकार कर दिया था। उनकी नज़र में यह सुरक्षा की बजाय, एक स्टेटस सिंबल बन चुका है। न्यायाधीश के रूप में अपने पहले और आखिरी दिन, उन्होंने अपनी निजी संपत्ति की घोषणा की थी। यहां तक कि रिटायरमेंट के बाद, वह अपनी सरकारी गाड़ी को सरेंडर कर, लोकल ट्रेन से घर आए थे। 

चंद्रु का जन्म एक मध्यम वर्गीय रूढ़िवादी परिवार में हुआ था। कॉलेज में उनका जीवन व्यक्तिगत पृष्ठभूमि से बिल्कुल अलग रहा। वह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) से जुड़ गए और एक छात्र नेता के तौर पर, छात्रों और मजदूरों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते थे। छात्र आंदोलनों की अगुवाई करने के कारण, उन्हें चेन्नई के लोयोला कॉलेज से निकाल दिया गया था। बाद में, उन्होंने क्रिश्चियन कॉलेज से ग्रजुएशन किया।

एक कार्यकर्ता और ट्रेड यूनियनिस्ट के रूप में काम करते हुए, उन्होंने कारखानों का दौरा किया, मजदूरों की सभाओं को संबोधित किया, पूरे तमिलनाडु में लॉरी और बसों में यात्रा की, दलित मजदूरों के परिवारों, खेती से जुड़े मजदूरों और ट्रेड यूनियन नेताओं से मुलाकात की। उन्होंने जाना और समझा कि कैसे वंचित और हाशिए पर रहने वाले लोगों को, उनके मूल अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। 

जज के कहने पर की वकालत

दरअसल, पहले उन्हें वकालत में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह तो संयोगवश इस पेशे में आ गए। पुलिस लाठीचार्ज के बाद, अन्ना विश्वविद्यालय के एक छात्र की मौत की जांच के लिए एक जांच आयोग बैठाया गया। आयोग का नेतृत्व मद्रास उच्च न्यायालय के एक अतिरिक्त न्यायाधीश ने किया और छात्रों की ओर से चंद्रु उनके सामने पेश हुए।

आयोग के सामने चंद्रु ने इतनी सावधानी से सवालों के जवाब दिए कि सब उनसे प्रभावित हो गए। उस समय जज ने उन्हें कानूनी पेशे में आने का सुझाव दिया था। इसके बाद, साल 1973 में चंद्रु ने लॉ कॉलेज में दाखिला तो ले लिया, लेकिन उन्हें छात्रावास में आने की इजाजत नहीं दी गई। पूर्व में छात्र कार्यकर्ता होने की वजह से, उनके साथ ऐसा किया गया था। इसके विरोध में वह तीन दिनों के लिए भूख हड़ताल पर चले गए। तब कहीं जाकर उन्हें हॉस्टल में प्रवेश मिल पाया। 

लॉ स्कूल से पढ़ाई करते हुए चंद्रु, 'रो एंड रेड्डी' नाम के एक कानूनी फर्म के लिए काम करने लगे और स्नातक होने के बाद भी इस फर्म से जुड़े रहे। यह कंपनी गरीब लोगों के लिए कानूनी मदद मुहैया कराती थी। आठ साल तक वहां काम करने के बाद, चंद्रु ने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी। वह सबसे कम उम्र के वकील थे, जिन्हें तमिलनाडु के बार काउंसिल के सदस्य के रूप में चुना गया। साल 1990 के आसपास मद्रास उच्च न्यायालय ने उन्हें बतौर वरिष्ठ अधिवक्ता नामित किया था। 1988 में, श्रीलंका में तमिल मुद्दे पर पार्टी के साथ वैचारिक मतभेदों के चलते, उन्होंने सीपीआई (एम) से नाता तोड़ लिया। 

किएकई ऐतिहासिक फैसले

Justice K Chandru, Hero of Jay Bhim True Story
Justice K Chandru (Image courtesy Twitter/Nani Palkhivala Arbitration Centre)

जुलाई 2006 में, मद्रास उच्च न्यायालय के एक अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में उनकी नियुक्ति नवंबर 2009 में स्थायी कर दी गई। बतौर न्यायाधीश उन्होंने ऐसे कई फैसले किए, जिनका राज्य के सामाजिक ताने-बाने पर स्थायी प्रभाव पड़ा। सितंबर 2008 में अपना फैसला सुनाते हुए, उन्होंने निर्देश दिया कि गांव के जिस मंदिर में देवी दुर्गा विराजमान हैं, वहां एक महिला पुजारी से पूजा कराने की अनुमति दी जाए। उन्होंने याचिकाकर्ता के चचेरे भाई के उस दावे को पूरी तरह से खारिज कर दिया, जिसमें उसने तर्क दिया था कि क्योंकि वह एक पुरुष है, इसलिए उसे मंदिर में 'पूजा' कराने की अनुमति दी जाए। एक पुरुष ही पुजारी हो सकता है, महिला नहीं। 

न्यायमूर्ति ने कहा था, "यह विडंबना है कि जिन मंदिरों में देवी की मूर्ति विराजमान है, वहां एक महिला पूजारी के खिलाफ आपत्तियां उठाई जा रही हैं। न तो कानून का ऐसा कोई प्रावधान है और न ही कोई व्यवस्था महिलाओं को मंदिर में पूजा कराने से रोकती है।" 

बर्खास्तगी पर सरकार के फैसले को दी चुनौती

उन्होंने अक्टूबर 2007 में, एक और असाधारण फैसला लिया। उन्होंने तूतीकोरिन जिला प्रशासन की एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता की बर्खास्तगी को उलट दिया था। याचिकाकर्ता, तमिलारासी एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता थी। अदालत के दस्तावेजों के अनुसार, जिला प्रशासन ने तर्क दिया था कि ‘याचिकाकर्ता की सेवा के साथ आंगनवाड़ी चलाना संभव नहीं होगा। क्योंकि उनकी मानसिक स्थिति ठीक नहीं है।‘ यह महिला कार्यकर्ता पैरानॉयड सिज़ोफ्रेनिया से पीड़ित थी, जो एक तरह का मानसिक रोग है।

अदालत के दस्तावेजों के अनुसार, महिला ने 25 साल तक इस संस्था में काम किया था और जिला कलेक्टर से ‘बाल देखभाल और संबंधित गतिविधियों में उत्कृष्ट सेवा’ के लिए एक पुरस्कार भी जीता था। अपने खाली समय में, उन्होंने गांव के बच्चों को अंग्रेजी भी सिखाई। अविवाहित रहने के कारण, अपने बूढ़े माता-पिता की देखभाल भी वही करती थीं। 

दुर्भाग्य से, नवंबर 2002 में उनके पिता की मौत हो गई और उनके भाई ने शादी के बाद घर छोड़कर अलग रहना शुरू कर दिया। वह अपनी माँ के साथ रहकर उनकी देखभाल करती थीं। फरवरी 2006 में, उन्हें नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया।



Insane Medical Condition जैसे शब्द हैं आपत्तिजनक



मामले को सुनने के बाद, न्यायमूर्ति चंद्रु ने जिला प्रशासन पर "Insane Medical Condition" जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने पर कड़ी आपत्ति जताई और उनकी बर्खास्तगी को गलत ठहराया था।

उन्होंने कहा, "याचिकाकर्ता की पारिवारिक पृष्ठभूमि को देखते हुए, उसके हालात का पता लगाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि 'मानसिक स्वास्थ्य अधिनियम, 1987' के तहत आवश्यक उचित प्रमाणपत्र के लिए, उसे मेडिकल बोर्ड में भेजने का कोई प्रयास नहीं किया गया।"

न्यायमूर्ति चंद्रु को तमिलारासी को यह समझाने में कुछ समय लगा गया कि बर्खास्तगी पर सरकार के फैसले को चुनौती देने के लिए, उन्हें अपने मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति के लिए एक जांच करानी होगी। बहुत समझाने के बाद, तमिलारासी इसके लिए तैयार हुईं और उन्हें सरकारी राजाजी अस्पताल, मदुरै में भर्ती कराया गया। जहां मनोचिकित्सकों की एक विशेषज्ञ टीम ने उसकी जांच की।

मानसिक रोग भी है एक तरह की दिव्यांगता

रिपोर्ट के आधार पर, न्यायमूर्ति चंद्रु ने कहा, "वह पैरानॉयड सिज़ोफ्रेनिक बीमारी से पीड़ित है और उसके सभी लक्षण दवाओं से पूरी तरह नियंत्रण में है। एक मेंटल हेल्थ प्रोफेशनल और प्रभावी एंटीसाइकोटिक दवाओं व मूड स्टेबलाइजर्स की देखरेख में, वह सभी तरह की जिम्मेदारियां निभाने में सक्षम होगी।"

दुर्भाग्य से, तमिलारासी अपनी जीत की खुशी मनाने के लिए लंबे समय तक जीवित नहीं रह पाईं। बहरहाल, उनके मामले ने एक महत्वपूर्ण मिसाल कायम की, कि मानसिक बीमारी भी एक दिव्यांगता है, जो दिव्यांगता अधिनियम 1995 (समान अवसर, अधिकारों का संरक्षण और पूर्ण भागीदारी) के तहत बताए गए कानूनी प्रावधानों द्वारा संरक्षित है। मानसिक रोगों से पीड़ित लोग सरकारी सेवा में काम करना जारी रखने के हकदार हैं।

कानून पर लिखे कई लेख और किताबें

मद्रास उच्च न्यायालय में एक न्यायाधीश के रूप में सेवानिवृत्ति के बाद, न्यायमूर्ति चंद्रु नागरिक समाज के एक बहुत सक्रिय सदस्य बन गए। उन्होंने कानून पर कई लेख और किताबें लिखीं। उनकी किताब 'लिसन टू माई केस: व्हेन वूमेन अप्रोच द कोर्ट्स ऑफ तमिलनाडु'  हाल ही में प्रकाशित हुई है। इसमें उन्होंने 20 महिलाओं की कहानी और न्याय के लिए उनके संघर्ष के बारे में लिखा है।

न्यायाधीश चंद्रु ने हमेशा अन्याय के खिलाफ आवाज़ उठाई है। सही मायनों में, उन्होंने एक उल्लेखनीय जीवन जिया है। तमिल सिनेमा के मेगा स्टार सूर्या की तारीफ भी करनी होगी, जिन्होंने उनके जीवन के एक महत्वपूर्ण हिस्से को लोगों के सामने लाने का प्रयास किया। जस्टिस चंद्रु के किरदार को सूर्या ने बड़ी ही ईमानदारी और खूबसूरती से जिया है। 

मूल लेखः रिनछेन नोर्बु वांग्चुक

संपादनः अर्चना दुबे

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