यह कहानी उत्तराखंड की एक ऐसी महिला की है, जिनका जीवन ही प्रकृति को समर्पित है। पिथौरागढ़ की बसंती बहन ने कौसानी जिले में कोसी नदी और जंगलों को बचाने के लिए कई अभियानों को अंजाम तक पहुंचाया और साथ उन्होंने इस इलाके के गांवों में शिक्षा को बढ़ावा देने और बाल-विवाह जैसी कुरुतियों पर रोक लगवाने का भी बड़ा काम किया। यही वजह है कि बसंती बहन को 2016 में राष्ट्रपति के हाथों नारी शक्ति सम्मान से नवाजा गया था।
मध्यम-वर्गीय परिवार में जन्मी बसंती बहन का विवाह मात्र 12 वर्ष की उम्र में ही कर दिया गया था। उन्होंने द बेटर इंडिया को बताया, “उस जमाने में लड़कियों को पढ़ाना-लिखाना कोई ज़रूरी नहीं समझता था। बस जल्द से जल्द शादी कर दो और ससुराल भेजो। शादी के लगभग एक वर्ष के भीतर ही पति का देहांत हो गया। ससुराल में सिवाय तानों के कुछ नहीं मिला। सब कहते कि आते ही पति को खा गई है। इसके बाद मैं मायके आ गई। नौकरी की वजह से पिताजी बाहर रहते थे। घर पर बस काम ही कराया जाता था। लोगों ने पिताजी से कहा भी कि इसकी दूसरी शादी कर दो। पर उन्होंने ठान लिया था कि अब उनकी बेटी अपने पैरों पर खड़ी होगी।”
बंसती बहन पुराने दिनों को याद कर कहती हैं कि उस वक्त घर पर पढ़ाई का माहौल नहीं था। एक संबंधी ने उन्हें कौसानी के लक्ष्मी आश्रम के बारे में बताया, जहां लड़कियों को सूत कातने, कपड़े बुनने, और अन्य तरह के हुनर की शिक्षा दी जाती थी। बसंती बहन ने यहां पर पढ़ाई के साथ-साथ और भी कई काम सीखे।
उन्होंने गाँव-गाँव घूमकर बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। उनके माता-पिता को समझाया कि वे बच्चों की शिक्षा पर जोर दें। उन्होंने घर-घर जाकर बाल-विवाह प्रथा के खिलाफ भी अभियान शुरू किया। बसंती बहन कहतीं हैं कि रास्ता आसान नहीं था लेकिन उन्हें पता था कि यह ज़रूरी है। उन्होंने खुद जो कुछ सहा, वह नहीं चाहती थी कि कोई और बच्ची सहे।
“मेरे लिए तो मेरे पिताजी हमेशा ढाल बने रहे। उन्होंने सबसे कहा दिया कि अब मैं उनकी बेटी नहीं बेटा हूँ और उन्हें अब कोई चिंता नहीं। क्योंकि अब मैं उनका नाम सिर्फ रौशन करुँगी,” उन्होंने आगे बताया। उनके कामों को तत्कालीन जिला प्रशासनिक अफसरों ने भी सराहा। पूरे राज्यभर में बालवाड़ी बनाने की योजना का आदेश दिया गया। जिससे कि बच्चियों की शिक्षा सुनिश्चित हो सके।
शिक्षा के साथ-साथ उन्होंने जल, जंगल और ज़मीन के लिए भी कार्य करने की ठानी। वह बताती हैं कि लगभग 30 साल तक शिक्षण कार्य करने के बाद उन्होंने प्रकृति के लिए काम करने का फैसला किया। उन्होंने एक अखबार में पढ़ा कि कैसे कोसी नदी धीरे-धीरे घटती जा रही है।
“लगातार जंगल कट रहे थे। महिलाएं पूरा-पूरा दिन जंगलों में गुजार देती थी, न कभी खुद पर ध्यान देना और न ही बच्चों की शिक्षा पर। लकड़ी कटते समय वह यह भी नहीं देखती कि सूखी है या कच्ची। वहीं नदी के आसपास जंगल कम होने से बारिश कम होने लगी और फिर भी लोग गैर-क़ानूनी तरीकों से संसाधनों का इस्तेमाल कर रहे थे,” उन्होंने बताया।
इन सभी समस्यायों को समझकर उन्होंने तय किया कि वह कोसी नदी और जंगलों को बचाएंगी। साथ ही, महिलाओं को इकट्ठा करके उनके सशक्तिकरण पर भी काम करेंगी। लेकिन यह राह बहुत ज्यादा चुनौतीपूर्ण थी।
वह जिस भी गाँव में जाती, वहाँ उन्हें महिलाएं नहीं मिलती। गाँव की सभी महिलाएं सुबह जंगलों में जाती थी और शाम तक लौटती थी। वहां पर बसंती बहन को उनके पति और ससुर या सास मिलते। उन्होंने उन लोगों को समझाने की कोशिश की पर उन्होंने कहा कि जिन चीजों को प्रशासन नहीं रोक पाया, उन्हें भला वह अकेली क्या रोक लेंगी? लेकिन बसंती बहन ने हार नहीं मानी। वह लगातार गाँव में जाने लगी और आखिकार दसवें दिन, उन्हें गाँव से वापस लौटते समय महिलाओं का समूह मिला।
बसंती बहन ने उन्हें रास्ते में ही रोक लिया और कहा कि उन्हें उनकी मदद की ज़रूरत है। महिलाओं को अखबार की खबर दिखाई कि अगर पेड़ों का काटना नहीं रुका तो कोसी नदी अगले दस सालों में खत्म हो जाएगी। हालांकि, एक दिन में कौन उनकी बात मानने वाला था। पर अब बसंती बहन इन महिलाओं के पीछे-पीछे जंगलों तक पहुँच जाती और उन्हें समझाती। धीरे-धीरे महिलाओं ने भी समझा कि उन्हें अपने जंगलों और नदियों को बचाने की कोशिश करनी चाहिए न कि संसाधनों को खत्म करना चाहिए।
“मैंने उन्हें समझाया कि ये पेड़, जंगल और यह नदी सब उनके अपने हैं। अगर उन्होंने आज इन्हें नहीं बचाया तो कल उनके पास कुछ नहीं बचेगा। अगर जंगल कटते रहे और नदी सूखती रही तो क्या अन्य कोई विकल्प होगा उनके पास। एक गाँव के बाद दूसरे गाँव की महिलाओं को जोड़ा। ऐसा करते-करते हमने 200 महिला मंगल दल बना लिए,” उन्होंने कहा।
इन महिला मंगल दलों की अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष आदि भी गाँव की महिलाओं को ही बनाया गया। सबने मिलकर कोसी नदी के संरक्षण की शपथ ली। महिलाओं और वन विभाग के बीच एक एग्रीमेंट हुआ कि वन विभाग जंगलों की लकड़ी नहीं बेचेगा और गाँव के लोग भी जंगलों से सिर्फ सूखी लकडियाँ लेंगे। इसके अलावा अगर किसी ने भी हरे पेड़ को काटा तो उन्हें जुर्माना देना होगा। इसके बाद महिलाएं न तो लकडियाँ काटतीं और साथ ही, वन विभाग और जंगल माफिया पर भी नज़र रखतीं थीं। उन्होंने कई बार लोगों को जंगल से अवैध रूप से लकडियाँ ले जाने से रोका।
बसंती बहन ने गाँव-गाँव में पौधारोपण अभियान भी चलवाया। उन्होंने मिलकर बुरांश, बंज और काफल पेड़ लगवाए। कोसी नदी के आस-पास भी भारी संख्या में पौधारोपण हुआ। महिलाएं अगर किसी को भी नदी के आसपास या फिर नदी में गैर-क़ानूनी तरीके से कुछ करते देखतीं तो तुरंत इसकी खबर बसंती बहन को देती थी।
“मैंने उनसे बस एक ही बात कही कि उन्हें किसी से भी डरने की ज़रूरत नहीं है। ये पेड़, ये जंगल और ये नदी उन लोगों की है न कि वन विभाग और सरकार की। इन्हें बचाना उनका काम है और फिर चाहे इसके लिए उन्हें प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ ही क्यों न जाना पड़े,” बसंती बहन ने कहा।
उन्होंने आगे बताया कि इन सभी अभियानों की वजह से 168 किमी लंबी कोसी नदी को बचाया गया। आज भी यह नदी बहते हुए, अपने अंचल में आने वाले सैकड़ों गांवों के लिए जीवनदायिनी है। यह बसंती बहन के ही जटिल कार्यों का नतीजा है कि आज कोसी नदी की सभी धाराएँ अच्छे से बह रही हैं। सबसे बड़ी बात है कि उन्होंने लोगों को यह अहसास दिलाया कि बिना प्रकृति उनका कोई अस्तित्व नहीं है। बसंती बहन के बनाए सभी महिला संगठन ग्राम पंचायतों के साथ मिलकर पर्यावरण के लिए कार्य कर रहे हैं और कोई भी उनके संसधानों पर गैर-क़ानूनी हक नहीं जमा सकता और न ही गलत तरीकों से इस्तेमाल कर सकता है।
द बेटर इंडिया, बसंती बहन के जज्बे को सलाम करता है और उम्मीद है कि उनसे प्रेरणा लेकर देश की और भी बेटियों को आगे बढ़ने का हौसला मिलेगा!
तस्वीर साभार: बसंती बहन
Cover Photo: Chicu