मुंबई में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में कार्यरत स्नेहल चौधरी के जीवन का एक ही लक्ष्य है, भारत में मासिक धर्म या माहवारी को लेकर जो शर्म है उसे खत्म करना। क्षितिज फाउंडेशन की संस्थापक स्नेहल अब तक लगभग 50 गांवों में 10,000 से भी ज्यादा औरतों और छात्रों को माहवारी सम्बंधित मिथकों के प्रति जागरूक कर चुकी हैं।
स्नेहल महाराष्ट्र के वाशिम ज़िले के शैलू बाजार गांव से हैं। सौभाग्य से उनके परिवार में महावारी को लेकर किसी भी अन्धविश्वास या मिथक का अनुसरण नहीं किया जाता है।
उनके परिवार की अग्रसर सोच की वजह से स्नेहल पर उनके गांव की बाकी लड़कियों की तरह कभी भी जबरदस्ती के प्रतिबन्ध नहीं लगाए गए।
“मैं हमेशा सोचती थी कि लड़कियों को पीरियड्स में क्यों अलग रहना और खाना पड़ता है। सब इसे एक गुप्त बात रखना चाहते हैं पर इस तरह तो खुद ही सारे जग को पीरियड्स का पता चल जाये।”
पर गांव की इन सभी प्रथाओं ने स्नेहल को कभी भी बहुत विचलित नहीं किया। उन्हें माहवारी से जुड़े इस शर्म और लज़्ज़ा के कोप का एहसास तब हुआ जब वे अपने आगे की पढाई के लिए नागपुर गयीं।
“स्कूल में पढ़ाई के दवाब के चलते अपने दिमाग को कुछ देर शांत रखने के उद्देश्य से मैंने वहां एक अनाथ आश्रम में जाना शुरू कर दिया।” स्नेहल के रोज अनाथ आश्रम जाने से और बच्चों के प्रति लगाव के कारण वहां के बच्चों का भी उनसे गहरा रिश्ता बन गया था।
स्नेहल ने बताया कि एक दिन अचानक उन्हें अनाथ आश्रम से फ़ोन आया और उन्हें तुरंत वहां बुलाया गया।
वहां जाने पर उन्हें पता चला कि 13 साल की एक बच्ची ने अपने आपको कमरे में बंद कर लिया है। बहुत कहने पर भी उसने किसी के लिए दरवाजा नहीं खोला। स्नेहल के पहुंचने पर ही वह बच्ची कमरे से बाहर आयी।
“वह लड़की रोते हुए बाहर आयी और आते ही मुझसे लिपट गयी। पहले मुझे कुछ समझ नहीं आया कि क्या हो रहा है। फिर बहुत हिचक के साथ उसने कहा की शायद उसे ब्लड कैंसर हो सकता है। दरअसल वह बच्ची मुझे बताने में शर्म महसूस कर रही थी कि उसे माहवारी हो रही है। मुझे एक दम जैसे झटका लगा। उस दिन मुझे समझ आया कि भारत में महावारी कितनी गहरी समस्या है।
इस घटना के चलते सदमे से घिरी स्नेहल ने इस समस्या के बारे में और अधिक जानने और किसी गायनाकोलॉजिस्ट से विचार-विमर्श करने का निश्चय किया।
इसके बाद स्नेहल ने अनाथ आश्रम में जागरूकता अभियान चलाना शुरू किया।
यवतमाल में सॉफ्टवेयर इंजीनीयरिंग पढ़ते हुए भी स्नेहल दूर-दराज के स्कूल और कॉलेज में जाकर इस मुद्दे पर जागरूकता फैलाती रहीं।
“अनाथ आश्रम की घटना से मुझे लगता था कि इन बच्चों के पास माता-पिता नहीं हैं जो उन्हें पीरियड्स के बारे में समझाए। पर मुझे हैरानी हुई जब मैनें स्कूलों में जाना शुरू किया और मुझे पता चला की शहरों में भी परिवारों में इस विषय पर कोई सजगता नहीं है।”
कॉलेज में स्नेहल ने अपने दोस्तों को भी उनके साथ जुड़ने के लिए कहा और वे लोग विभिन्न स्कूलों, कॉलेज और कार्यस्थलों पर अपने जागरूकता अभियान के लिए गए ताकि माहवारी के साथ जुड़े शर्म के पैबंद को वे हटा सकें।
स्नेहल ने बताया, “शुरू में कोई भी हमसे नहीं जुड़ना चाहता था, सिर्फ मेरी दोस्त श्वेता इस काम में मदद करने के लिए आगे आयी। फिर धीरे-धीरे सोशल मीडिया की मदद से हम आगे बढ़े। आज हमारे पास भारत के हर एक राज्य में प्रतिनिधि है।”
उनकी टीम मेडिकल कैम्प्स भी लगवाती हैं जिनका मुख्य उद्देश्य औरतों की स्वास्थ्य संबंधित समस्यायों और पीरियड्स के दौरान साफ़-सफाई पर ध्यान देना आदि के प्रति लोगों को जागरूक करना है।
स्नेहल का यहां तक का सफर आसान नहीं था। लोग खुलकर माहवारी पर बात नहीं करते थे। गांव के स्कूलों में अध्यापक भी ये जानकर की वे माहवारी पर बात करने आये हैं उन्हें अनदेखा करते थे। गांववाले उनका इस विषय पर बात करने की वजह से विरोध करते थे। कुछ दोस्त और रिश्तेदारों ने तो स्नेहल के परिवार वालों को भी उन्हें रोकने के लिए कहा।
“लोग मेरे माता-पिता से कहते थे कि यदि किसी को पता चला कि मैं माहवारी पर इतना खुलकर बात करती हूँ तो कोई मुझसे विवाह नहीं करेगा। जिज्ञासावश मैंने अपने परिवार से पूछा कि क्या उन्हें लगता है कि मैं अपने परिवार को शर्मिंदा कर रही हूँ। उनका जबाव ‘ना’ था और उसके बाद मेरे अभियान में उन्होंने मेरा पूरा साथ दिया।”
पिछले साल 27 मई को विश्व मासिक धर्म स्वच्छता दिवस के मौके पर स्नेहल ने सोशल मीडिया पर एक अभियान चलाया, #BleedTheSilence और लोगों से उनके पहले मासिक से जुडी या फिर इससे जुड़े मिथक को लेकर अपना अनुभव सांझा करने की अपील की।
“पहली माहवारी से संबंधित जो भी कहानियां, लेख, कविता आदि मिला हमने इकट्ठा करना शुरू किया। मुझे बताते हुए ख़ुशी हो रही है कि न केवल भारत से बल्कि अन्य देश कैसे फ्रांस, जर्मनी, थाईलैंड आदि से भी हमें 100 से भी अधिक लेख मिले। मेलघाट, गतचिरोली जैसे आदिवासी इलाकों और ग्रामीण क्षेत्रों से भी हमे लेख मिले। भाई, पिता और बहुत से फार्मासिस्ट ने भी अपनी कहानी भेजी, सैनिटरी पैड बेचने से जुड़े उनके अनुभव भेजे। फिर नृतक, बॉक्सर आदि के अनुभव। न केवल औरतें बल्कि आदमी भी हमारी पहल में साथ आये।”
विनीता उगाओंकर, एक बॉक्सर ने लिखा कि कैसे इस अभियान ने उन्हें पीरियड्स से जुडी शर्म से उबरने में मदद की।
विनीता ने लिखा, “अच्छे दिनों के लिए तुम्हें बुरे दिनों से लड़ना पड़ता है। अपने जीवन में सबके महत्वपूर्ण पल होते हैं जो जीवनभर उनके साथ रहते हैं, कुछ बहुत खूबसूरत और कुछ कोयले के जैसे काले। एक बार, बहुत मुश्किल मैच जीतने के बाद भी मेरे कोच और टीम ने मुझे बधाई नहीं दी। बल्कि उनकी नजरें कहीं और थी। और मुझे कुछ फुसफुसाहट का आभास हुआ। तभी मेरी दोस्त भीड़ में से भागते हुए आयी और धीरे से कहा कि मेरे पैंट पर लाल धब्बे हैं। मुझमें देखने की हिम्मत भी नहीं हुई, मेरी आँखों से आंसू बह रहे थे और मैं बाथरूम की तरफ भागी। अपने आप को साफ़ करने के तुरंत बाद मैं स्टेडियम से निकल गयी पर सबकी नजरें मुझे घिनौने तरीके से देख रहीं थीं। मैं ग्लानि से भर गयी। मुझे खुद से घिन आने लगी। वो हंसी और ओछी बातें मेरा पीछा नहीं छोड़ रही थी और टूर्नामेंट के बाद मेरे लिए बुरे सपने के जैसे हो गयीं। यहां तक कि मैंने बॉक्सिंग छोड़ने का फैसला कर लिया।”
पर अपने दोस्तों और परिवार के साथ की वजह से वे अब फिर से बॉक्सिंग कर रही हैं।
लोगों ने भी माहवारी से जुड़े मिथकों के खिलाफ स्नेहल की कोशिशों को पहचानना शुरू किया और क्षितिज फाउंडेशन को बहुत सी जगह जागरूकता अभियान के लिए आमंत्रित किया गया। टीम को महाराष्ट्र पुलिस अकादमी में भी लगभग 700 महिला पुलिस कॉन्स्टेबलों की ट्रेनिंग के दौरान बुलाया गया। इस सत्र में महिला पुलिस कॉन्स्टेबलों ने माहवारी के चलते ट्रेनिंग में होने वाली परेशानियों को सांझा किया और बाकी पुरुष पुलिस कॉन्स्टेबलों व अधिकारीयों के लिए भी तह सत्र चक्षु-उन्मीलक साबित हुआ। उन्हें पता चला कि कैसे उनके कुछ छोटे कदम उनकी महिला साथियों की मदद कर सकते हैं।
स्नेहल ने बताया कि सोशल मीडिया की मदद से अब क्षितिज फाउंडेशन के हर राज्य में उनके प्रतिनिधि हैं जो लगभग 10,000 महिलाओं को जागरूक कर रहे हैं।
स्नेहल ने कहा कि उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी जब उन्हें सोलापुर में महिलाओं को माहवारी के प्रति जागरूकता अभियान के लिए बुलाया गया, क्योंकि इस सत्र का स्थल मंदिर था।
उन्होंने बताया, “माहवारी का सबसे बड़ा मिथक यही है की इस दौरान हम मंदिर में नहीं जा सकते। इस विषय पर मंदिर में खड़े होकर बात करते वक़्त लगा कि धीरे-धीरे मैं एक बदलाव लाने में सफल हो रही हूँ।”
अपने एनजीओ के भविष्य को लेकर सवाल पर उन्होंने चौंकाने वाला उत्तर दिया, “मैं चाहती हूँ कि एनजीओ भविष्य में बंद हो जाये, क्योंकि इसका मतलब होगा कि हमारे देश में सभी माहवारी के प्रति जागरूक हैं। यदि आज की पीढ़ी इसे लेकर जागरूक होगी तो आने वाली पीढ़ी के लिए किसी भी अभियान की जरूरत नहीं होगी। यदि माँ ही अपनी बेटी को बताये कि माहवारी गंदगी या शर्म की बात नहीं बल्कि सिर्फ एक प्राकृतिक क्रिया है तो हर बेटी स्वयं को सशक्त महसूस करेगी।”
क्षितिज फाउंडेशन के बारे में अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें। टीम से सम्पर्क करने के लिए 7774010063 डायल करें।
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