महाराष्ट्र के नासिक जिले के लोनवाड़ी गाँव में रहने वाले विजय गौंड, हमेशा से एक वकील बनने का सपना देखते थे। लेकिन परिस्थितियों की वजह से, उन्हें अपने परिवार के पारंपरिक अंगूर की खेत की ज़िम्मेदारी संभालनी पड़ी और वे एक किसान बन गए। उनकी पत्नी लता भी डॉक्टर बनना चाहती थीं, लेकिन उन्हें 12वीं कक्षा के बाद शिक्षा छोड़नी पड़ी थी। पर यह दंपत्ति चाहती थी कि उनके बच्चे उनके अधूरे सपनों को पूरा करें।
उनकी बेटी, ज्योत्सना पढ़ाई में काफ़ी अच्छी थी और उन्हें उससे सभी आशाएँ थीं। पर इनकी ज़िन्दगी में एक ऐसा दुखद मोड़ आया, कि ज्योत्सना को भी खेती करनी पड़ी।
पर आज ज्योत्सना के माता-पिता पूरी तरह संतुष्ट हैं और अपनी बेटी के किसान बनने पर उन्हें गर्व है।
1998 की बात है, ज्योत्सना सिर्फ 6 साल की थी और उसका भाई सिर्फ एक साल का, जब एक दुर्घटना में उनके पिता के पैर की हड्डी टूट गयी और उन्हें 7 महीने तक अस्पताल में रहना पड़ा। ऐसे में ज्योत्सना की माँ, लता ने अपने पति, बच्चों और खेत की भी पूरी जिम्मेदारी अपने सर ले ली। लता खेत में अपने साथ ज्योत्सना को भी ले जाती। 12 साल की होते-होते ज्योत्सना ने खेत के ज्यादातर काम सीख लिए थे और वह अपनी माँ की मदद करने लगी थी।
“मैं स्कूल जाने से पहले और स्कूल से वापस आने के बाद, खेत में जाती थी। परीक्षा के दौरान भी, मैं खेत में ही पढ़ती थी, और खेती का काम भी पूरा करती थी। धीरे-धीरे मैंने खेत की पूरी ज़िम्मेदारी उठा ली, ताकि माँ को आराम करने के लिए कुछ समय मिले, ”ज्योत्सना ने टीबीआई से बात करते हुए कहा।
आखिरकार 2005 में ज्योत्सना के पिता पूरी तरह ठीक हो गए और फिर से चलने लगे। अब उन्होंने खेती की बागडोर संभाल ली थी, और इस परिवार की खुशियाँ एक बार फिर लौट आई थी। हालातों को सुधरता देख ज्योत्सना ने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगा दिया। अब वह इंजीनियर बनने का सपना देखने लगी।
“हम सब बहुत खुश थे। सब कुछ फिर से पहले जैसा हो गया था। हमारे जीवन के वे सबसे अच्छे साल थे,” ज्योत्सना कहती हैं।
पर यह खुशी लंबे समय तक नहीं टिक पायी…
2010 में, जब विजय के खेत में अंगूर की फ़सल बिलकुल तैयार हो गई थी, लोनवड़ी में अचानक एक दिन बेमौसम भारी बारिश हुई। अधिकांश अंगूर के गुच्छों ने अपने फल खो दिए। बचे हुए फलों को बचाने के लिए, विजय एक उर्वरक खरीदने के लिए निकले, जिससे बाकी फलों को बचाया जा सके। लेकिन रास्ते में वे सीढ़ियों से फिसल गये और उन्होंने अपना पैर हमेशा के लिए खो दिया।
“मुझे याद है कि रात को बारिश में अस्पताल में मेरे पिता को देखने के लिए मेरी माँ भागती हुई गयी। मेरे पिता को उनके पैर के बारे में पता था, लेकिन इसके बावजूद उन्हें केवल अपने फलों की चिंता थी। उन्होंने मेरी माँ को खेत बचाने के लिए उर्वरक के साथ वापस भेज दिया,” ज्योत्सना कहती हैं।
अगले कुछ महीनों के लिए उसके पिता ने अस्पताल से ही ज्योत्सना को खेत में क्या-क्या करना है यह सिखाया, और ज्योत्सना वैसा ही करती गयी।
ज्योत्सना कंप्यूटर इंजीनियरिंग करना चाहती थी, पर उसने बी.एस.सी कंप्यूटर में प्रवेश लेने का फैसला किया, ताकि वह पढ़ाई के दौरान खेत का प्रबंधन कर सके। लोनवड़ी एक छोटा सा गाँव है और ज्योत्सना को कॉलेज जाने के लिए 18 किलोमीटर दूर पिंपलगाँव जाना पड़ता था। उसे दो बसें बदलनी पड़ती थीं और हर दिन 2 किलोमीटर तक चलना पड़ता था। फिर भी, ज्योत्सना सुबह जल्दी उठती और खेत की ओर जाती। वह खेत का काम पूरा करती और फिर कॉलेज जाती। शाम को वापस आने के बाद भी वह खेत की देखभाल करती थी।
“मेरे पिता ने मुझे अस्पताल में ही लेटे-लेते ट्रैक्टर चलाना सिखाया। वह मुझे बताते कि क्लच कहां होता है, गियर कैसे बदलते है और मैं खेत में जाकर उसी तरह ट्रेक्टर चलाने की कोशिश करती, और आखिर मैंने ट्रैक्टर चलाना भी सीख लिया,” ज्योत्सना कहती है।
कंप्यूटर में मास्टर्स पूरा करने के बाद ज्योत्सना को कैंपस में ही नासिक में एक सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट कंपनी के लिए चुना गया। उसने यह नौकरी स्वीकार तो कर ली थी , लेकिन वह खेत के बारे में लगातार चिंता करती रहती थी। आखिरकार डेढ़ साल तक एक सॉफ्टवेयर डेवलपर के रूप में काम करने के बाद, उसने 2017 में अपनी नौकरी छोड़ दी और एक बार फिर से खेती संभालने के लिए वापस आ गई। इस बीच उसने अपने भाई की शिक्षा और घर के खर्चों के लिए कुछ पैसे इकट्ठे कर लिए थे।
यह भी पढ़ें – अचार बनाने जैसे घरेलु काम से खड़ा किया करोड़ो का कारोबार, जानिए कृष्णा यादव की कहानी!
अगले 6 महीनों के लिए, ज्योत्सना ने अपना पूरा ध्यान खेत पर दिया। जैसे-जैसे पौधे बड़े रहे थे, वह दिन-रात खेत में रहती और उनकी देखभाल करती।
“अगर आप अंगूर के पौधों की, बड़े होने तक अच्छी तरह देखभाल करते हैं, तो बहुत अच्छे परिणाम आते हैं। मैं अवांछित शाखाओं को काट देती थी, बेलों को सीधा करती और ज़रूरत के हिसाब से, उन्हें पोषण देती थी।
यहां बिजली एक बहुत बड़ी समस्या है। कभी-कभी हमें रात में सिर्फ कुछ घंटों के लिए ही बिजली मिलती है, इसलिए मैं पंप शुरू करने और पौधों को पानी देने के लिए पूरी रात जागती रहती,” ज्योत्सना कहती हैं।
इस तरह छह महीने के भीतर ही अंगूर की बेलें वास्तव में मजबूत हो गईं। ज्योत्सना के पास अब कुछ खाली समय होता था। इसलिए उसने शिक्षा से जुड़े रहने और कुछ अतिरिक्त पैसे कमाने के लिए एक स्थानीय स्कूल में एक शिक्षक के रूप में नौकरी कर ली। पर नौकरी करने के बावजूद, वह कभी खेत की अनदेखी नहीं करती। उसकी इस मेहनत का फल उसे तब मिला, जब अंगुर के फलो का मौसम आया।
आमतौर पर अंगूर के एक गुच्छे में 15-17 फल होते हैं, जब कि इस साल हर एक गुच्छे में 25-30 फल आये। इस तरह ज्योत्सना की आय भी दुगनी हो गयी।
2018 में ज्योत्सना को ‘कृषिथोन बेस्ट वुमन किसान अवार्ड’ से सम्मानित किया गया और उसके पिता अब पहले से कहीं ज्यादा खुश हैं।
“ज्योत्सना मुझसे भी बेहतर किसान है। मैं उसकी उपलब्धियों से खुश हूँ। वह मेरा गौरव है!” उसके पिता मुस्कुराते हुए कहते हैं!