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ताउम्र देश के लिए समर्पित रही यह महिला, फिर भी नहीं है इतिहास की किताबों में नाम!

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे बहुत से अनसुने नायक-नायिकाएँ हैं जिन्होंने अपनी मातृभूमि के लिए जान की बाजी लगा दी। लेकिन आज शायद ही कोई उनके बारे में जानता हो। इतिहास की किताबों में भी इन्हें जगह नहीं मिली। देश की आज़ादी के बाद भी बहुत से स्वतंत्रता सेनानी नाम और शौहरत की चका-चौंध से दूर ही रहे।

ऐसा ही एक नाम हैं उमाबाई कुंडापुर – एक ऐसी साहसी महिला जिसने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन की नींव रखी। स्वतंत्रता सेनानियों की हर संभव मदद की और जो महिलाएँ कभी चारदीवारी से बाहर नहीं निकली थीं, उन्हें भी उन्होंने आज़ादी की लड़ाई से जोड़ा!

उनके कार्यों से प्रभावित होकर गाँधी जी ने उन्हें कस्तूरबा ट्रस्ट की कर्नाटक शाखा का हेड नियुक्त किया। उमाबाई ने अपना सारा जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया और जब आज़ादी के बाद उन्हें भारतीय राजनेताओं ने बड़े ओहदों से नवाज़ना चाहा तो उन्होंने कुछ भी स्वीकारने से मना कर दिया।

साल 1892 में, मैंगलोर के गोलीकेरी कृष्णा राव और जुगनाबाई के यहाँ उनका जन्म हुआ। उनके मायके का नाम भवानी था। उनका परिवार मैंगलोर से मुंबई जाकर बस गया और वहीं पर 9 वर्ष की आयु में संजीव राव कुंडापुर से उनकी शादी हुई और वह भवानी से उमाबाई कुंडापुर बन गईं।

उमाबाई का ससुराल बहुत ही समृद्ध था और उनके ससुर, आनंद राव कुंडापुर उस जमाने में भी बहुत आगे की सोच रखने वालों में से थे। वह हमेशा से ही लड़कियों और महिलाओं की शिक्षा के पक्षधर रहे और इसलिए उन्होंने उमाबाई की शिक्षा जारी रखवाई।

Umabai Kundapur (far left) with Anand Rao (father-in-law) and husband Sanjiv Rao (right)

अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने अपने ससुर के साथ मिलकर गौंदेवी महिला समाज के ज़रिए महिला शिक्षा पर काम करना शुरू किया। साल 1920 में बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु के उपरांत जब उनकी शवयात्रा निकली तो मानो पूरी मुंबई सड़कों पर आ गई थी। उमाबाई और उनके पति ने भी इस यात्रा में भाग लिया। तिलक तो चले गए लेकिन उस दिन युवा उमाबाई के दिल में देश-प्रेम की लौ जला गए।

उन्होंने बतौर स्वयंसेवी कार्यकर्ता कांग्रेस जॉइन कर ली। वह कांग्रेस पार्टी की सभी गतिविधियों में भाग लेतीं। उन्होंने घर-घर जाकर लोगों को खादी अपनाने के लिए जागरूक किया। उन्होंने स्वदेशी आंदोलन को जन-जन तक पहुँचाने के लिए एक नाटक भी तैयार कराया।

कहते हैं कि उमाबाई की हर एक राजनैतिक गतिविधि में उनके पति और ससुर ने बहुत साथ दिया। उन्होंने हमेशा उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया। हालांकि, साल 1923 में जब टीबी के चलते उनके पति की मौत हो गई तब उमाबाई बहुत टूट गई थीं। ऐसे में, उनके ससुर ने उन्हें संभाला और वह उन्हें लेकर हुबली चले गए।

हुबली में कुंडापुर परिवार की काफी जायदाद थी। यहाँ आकर उनके ससुर ने कर्नाटक प्रेस शुरू किया और बच्चियों की शिक्षा के लिए ‘तिलक कन्या शाला’ की स्थापना भी की। कन्या शाला की ज़िम्मेदारियाँ उमाबाई को दी गई। उमाबाई ने एक और स्वतंत्रता सेनानी, कृष्णाबाई पंजीकर के साथ मिलकर महिलाओं के लिए ‘भगिनी समाज’ संगठन की नींव भी रखी।

हुबली आने के बाद भी उमाबाई कांग्रेस से जुड़ी रहीं और यहाँ पर उन्होंने पूरे कर्नाटक की यात्राएं कीं ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को आज़ादी की लड़ाई से जोड़ सकें। इस दौरान उनका संपर्क हिंदुस्तानी सेवा दल के संस्थापक डॉ. एन. एस. हार्डीकर से हुआ। सेवा दल का काम कांग्रेस पार्टी के लिए स्वयंसेवकों को ट्रेनिंग देकर तैयार करना था। इस ट्रेनिंग में उन्हें ड्रिल, सेल्फ-डिफेंस, कैंप में रहना, बुनाई और श्रमदान आदि सिखाया जाता था।

हार्डीकर, उमाबाई के जोश और आम लोगों के बीच उनकी लोकप्रियता से काफी प्रभावित हुए। उन्होंने उमाबाई को सेवा दल की महिला विंग का अध्यक्ष बना दिया। उस जमाने में महिलाओं को घर के बाहर निकलने की आज़ादी तक नहीं होती थी, फिर बाहर जाकर सेल्फ-डिफेंस ट्रेनिंग तो भूल ही जाइए।

Umabai Kundapur (Source)

सेवा दल से महिलाओं को जोड़ना बहुत ही चुनौतीपूर्ण काम था, लेकिन उमाबाई हार मानने वालों में से नहीं थीं। उन्होंने महिलाओं के दिल में आज़ादी की ज्योत जलाने के लिए नुक्कड़ नाटकों का सहारा लिया। वह घर-घर जाकर महिलाओं को प्रेरित करती थीं और उन्हें अपनी और अपने देश की आज़ादी के लिए जागरूक करती थीं।

उमाबाई की मेहनत रंग लाई और महिलाओं ने अपने घर की दहलीज लांघना शुरू किया। बेलगाम में महात्मा गाँधी की अध्यक्षता में हुई कांग्रेस कॉन्फ्रेंस में हज़ारों महिलाओं ने भाग लिया। यह अपने आप में एक ऐतिहासिक दिन था क्योंकि इन महिलाओं में बच्चियों से लेकर विधवाओं तक, हर तबके की महिलाएँ थीं।

चौपाटी पर नमक बनाने के आंदोलन में सबसे आगे रहने वाली कमलादेवी चट्टोपाध्याय को भी उमाबाई से ही प्रेरणा मिली थी। उन्होंने एक बार कहा भी कि वे उमाबाई के विनम्र स्वभाव और लोहे की तरह ठोस इरादों से प्रभावित होकर ही स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ीं।

पूरे नमक सत्याग्रह में उमाबाई एक ठोस ताकत की तरह डटी रहीं और इस वजह से साल 1932 में ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। येरवडा जेल में उन्होंने 4 महीने की सजा काटी। इस दौरान ब्रिटिश सरकार ने उनके ससुर की प्रेस और स्कूल को भी बंद करा दिया। जब अपनी सजा काटकर उमाबाई बाहर आईं तो उन्हें अपने ससुर की मौत के बारे में पता चला।

यह उनके लिए कोई छोटा सदमा नहीं था क्योंकि बचपन से उनके ससुर ने ही हर कदम पर उनका साथ दिया था। चाहे उनकी शिक्षा हो या फिर राजनैतिक जीवन, उनके ससुर उनके साथ खड़े रहे। अपने ससुर की याद में उन्होंने अपनी आने वाली ज़िंदगी को उनके दिखाए गए पथ पर ले जाने का निर्णय लिया।

नमक सत्याग्रह के दौरान बहुत से लोगों को ब्रिटिश सरकार ने बंदी बनाया था और जब ये लोग जेल से बाहर आए तो बेघर और बेसहारा हो गए। बहुतों के पास अपने घर तक जाने के लिए पैसे नहीं थे तो बहुत से लोगों को उनके परिवारों ने बेदखल कर दिया था। इन सभी लोगों के लिए उमाबाई ने अपने घर के दरवाजे खोल दिए।

वह इन स्वतंत्रता सेनानियों को खाना खिलातीं, रहने के लिए उनके सिर पर छत देतीं और जो लोग अपने घर जाना चाहते थे उन्हें पैसे आदि देकर विदा करतीं। उमाबाई का घर देश के हर स्वतंत्रता सेनानी के लिए आसरा बना हुआ था।

इसके बाद साल 1934 में जब बिहार में भूकंप आया तब भी उमाबाई अपने स्वयंसेवकों के साथ वहां लोगों की मदद करने के लिए पहुंची। दिन-रात जागकर उन्होंने घायल और बेसहारा लोगों की मदद की। यहीं पर उनकी मुलाक़ात राजेंद्र प्रसाद और आचार्य कृपलानी जैसे बड़े नेताओं से हुई।

साल 1942 में बीमारी के चलते वह भारत छोड़ो आंदोलन में भाग नहीं ले पाई, लेकिन उनका घर एक बार फिर स्वतंत्रता सेनानियों के लिए आश्रय बना। साल 1946 में महात्मा गाँधी ने उन्हें कर्नाटक में कस्तूरबा ट्रस्ट का हेड बनाया।

कस्तूरबा ट्रस्ट का गठन गाँवों की स्थिति सुधारने के लिए किया गया। इसके लिए स्वयंसेवकों और ग्राम सेविकाओं को ट्रेनिंग दी गई ताकि वे गाँव के लोगों को शिक्षा दे सकें, उन्हें आत्म-निर्भर बनाएं और साथ ही, स्वास्थ्य कार्यक्रम चलाएं।

देश की आज़ादी के बाद उमाबाई को कई राजनैतिक पदों की पेशकश की गई लेकिन उन्होंने सभी के लिए मना कर दिया। यहाँ तक कि उन्होंने स्वतंत्रता सेनानियों को मिलने वाला कोई सम्मान और भत्ता तक नहीं लिया। उन्होंने कहा कि वह देश सेविका हैं और उन्होंने जो किया अपने राष्ट्र के लिए किया।

उन्होंने अपना जीवन हुबली में अपने छोटे से घर ‘आनंद स्मृति’ में बिताया और साल 1992 में इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

दुःख की बात यह है कि आज बहुत ही कम लोगों को इस ‘देश सेविका’ के बारे में जानकारी है। द बेटर इंडिया, भारत की इस महान बेटी को सलाम करता है!

संपादन – अर्चना गुप्ता


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