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जानिए उस महिला के बारे में जिसने झंडा फहराकर भारत छोड़ो आंदोलन में जान फूंक दी !

अरूणा आसफ अली।

अरूणा आसफ अली।

ह कहानी है 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का दिल कही जाने वाली उस महिला की, जिन्होंने अंग्रेजों को झुकने पर मजबूर कर दिया। दिल्ली के एक मैदान में उनके फहराए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के झंडे ने एक ऐसी क्रांति को जन्म दिया जो आगे चलकर भारत की आज़ादी की नींव बनीं। वह दिल्ली की पहली मेयर भी बनीं और उनके ​सिर पर भारत रत्न का ताज भी सजा। दिल्ली में उनके नाम पर एक सड़क भी है। उनके नाम पर डाक टिकिट भी जारी हुए। हम बात कर रहे हैं अरूणा आसफ अली की।

अरूणा आसफ अली का जन्म 16 जुलाई 1909 को हरियाणा के कालका में एक हिन्दू बंगाली परिवार में हुआ। अरूणा की माँ का नाम अम्बालिका देवी था। उनके पिता उपेन्द्रनाथ गांगुली नैनीताल में होटल चलाते थे। अरूणा की प्रां​रभिक शिक्षा लाहौर के एक कॉन्वेंट स्कूल में हुई और उन्होंने ग्रेजुएशन नैनीताल से किया। ग्रेजुएशन के बाद अरुणा कोलकाता चली गई, जहाँ उन्होंने गोखले मेमोरियल स्कूल में बतौर टीचर पढ़ाया।

 

अरूणा आसफ अली।

इसी दौरान अरुणा की मुलाक़ात आसफ अली से हुई, जो पेशे से वकील होने के साथ-साथ, आज़ादी की लड़ाई में भी अहम भूमिका निभा रहे थे। असेंबली में बम फोड़ने के बाद गिरफ्तार हुए भगत सिंह का केस भी आसफ अली ने ही लड़ा था। अरुणा और आसफ के विचार मिले और फिर दिल और 1928 में समाज के विरोध के बावजूद इन दोनों ने शादी कर ली।

 

शादी के बाद आज़ादी की लड़ाई में हुई सक्रिय

आसफ अली के साथ शादी के बाद अरूणा भी आज़ादी की लड़ाई में सक्रिय हो गई। 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान अरुणा ने सार्वजनिक सभाओं को सम्बोधित किया। जुलूस निकाला तो ब्रिटिश सरकार ने एक साल की कैद दे दी। 1931 में गाँधी-इरविन समझौते के तहत सभी राजनीतिक बंदियों को तो छोड़ दिया गया लेकिन अरुणा को नहीं छोड़ा गया। इस पर महिला कैदियों ने उनकी रिहाई न होने तक जेल परिसर छोड़ने से इंकार कर दिया। ऐसे में अंग्रेजों को झुकना पड़ा और अरुणा को रिहा कर दिया गया।

1932 में उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और दिल्ली की तिहाड़ जेल में रखा गया। वहाँ उन्होंने राजनीतिक कैदियों के साथ होने वाले दुर्व्‍यवहार के खिलाफ भूख हड़ताल की। अरूणा की भूख हड़ताल का असर यह हुआ कि अंग्रेजों को राजनैतिक कैदियों के प्रति अपना व्यवहार बदलना पड़ा और जेल के हालात सुधारने पड़े। यहाँ से रिहाई के बाद अरुणा राजनीतिक रूप से ज्यादा सक्रिय नहीं रही लेकिन भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी भूमिका किसी नायिका से कम नहीं थी।

 

आसफ अली

जब फहराया झंडा और दिया आज़ादी का तोहफा

9 अगस्त 1942 का दिन। अरूणा के साथ-साथ यह देश की आज़ादी के लिए भी बड़ा दिन था। यह आज़ादी की लड़ाई की नींव को मज़बूत करने का दिन था। गांधी जी की पुकार पर इससे एक दिन पहले 8 अगस्त को कांग्रेस के मुम्बई सत्र में भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास हुआ। अंग्रेजों ने सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। ऐसे में अरुणा आसफ अली ने गजब की दिलेरी दिखाई। अरूणा ने मुंबई के गोवालिया टैंक मैदान में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का झंडा फहरा दिया। इससे देश भर के युवाओं में आज़ादी के लिए जोश भर गया। अगले दिन आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले हर शख्स की जुबान पर अरूणा का नाम था और इसी के साथ शुरू हो जाता है ‘भारत छोड़ो आंदोलन’। वो आंदोलन जिसने देश को आज़ादी का तोहफ़ा दिया।

 

गोवालिया टांक मैदान

 

अंग्रेजों ने गिरफ्तारी के लिए रखा था इनाम

अरूणा के झंडा फहराने के बाद देशभर में एक क्रांति शुरू हो गई। ऐसे में अंग्रेजों ने अरूणा को गिरफ्तार करने के लिए उन पर पाँच हजार रुपए का इनाम रखा। गिरफ़्तारी से बचने के लिए वह अंडरग्राउंड हो गई और समाजवाद व उससे जुड़े नेता जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और एडाथट्टा नारायण के सम्पर्क में आई। जब किसी भी तरह अरुणा उनके हाथ न लगीं, तो अंग्रेज़ों ने उनकी संपत्ति को जब्त करके बेच दिया। इसी दौरान अरुणा बीमार पड़ गई, तो गाँधी जी ने उन्हें सरेंडर करने की सलाह दी, पर उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया।

उस समय गाँधी जी ने उनसे सरेंडर की अपील करते हुए लिखा था, “मैं आपके साहस और वीरता की कद्र करता हूँ। आपका शरीर एकदम कंकाल हो गया है। बाहर आओ और आत्मसमर्पण कर दो। अपनी गिरफ्तारी के लिए दिए गए पुरस्कार की राशि हरिजनों को समर्पित कर दो। यह उनके काम आएगी।

आखिर 26 जनवरी 1946 को जब अरूणा को गिरफ्तार करने का वारंट रद्द किया गया, तब उन्होंने सरेंडर कर दिया।

अरूणा आसफ अली।

 

चुनी गई दिल्ली की प्रथम मेयर

आज़ादी के बाद भी अरुणा ने राष्ट्र और समाज के कल्याण के लिए बहुत से काम किए। आज़ादी के समय अरुणा आसफ अली सोशलिस्ट पार्टी की सदस्या थी। 1948 में अरुणा और समाजवादी विचारधारा के नेताओं ने मिलकर एक सोशलिस्ट पार्टी बनाई। 1955 में यह समूह भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ गया और वह इसकी केंद्रीय समिति की सदस्य और ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की उपाध्यक्ष बन गई। 1958 में अरूणा दिल्ली की पहली मेयर चुनी गई।

पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के साथ अरूणा आसफ अली।

 

मरणोपरांत मिला भारत-रत्न

1964 में अंतरराष्ट्रीय लेनिन शांति पुरस्कार और 1992 में पद्म विभूषण से सम्मानित अरुणा ने 29 जुलाई 1996 को 87 साल की उम्र में अपनी अंतिम सांस ली। 1997 में मरणोपरांत उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया और 1998 में उनकी याद में एक डाक टिकट जारी किया गया।

देश इस वीरांगना को उनके दिए अभूतपूर्व योगदान के लिए हमेशा याद करता रहेगा।

 

संपादन – मानबी कटोच 


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