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तिहाड़ जेल के कैदियों को ज़िंदगी का ‘सेकंड चांस’ दे रही है दिल्ली की यह युवती!

“मैंने अपनी मास्टर्स की पढ़ाई के दौरान एक स्कॉलर ‘मिशेल फूको’ के बारे में पढ़ा था। उन्होंने समाज में अनुशासन और कोई गलती करने पर अपराधियों के लिए सजा के संदर्भ में काफ़ी कुछ लिखा है। मेरे लिए यह बहुत अलग नज़रिया था इस विषय पर। हालांकि, उस समय मुझे कभी नही लगा था कि उनका यह कॉन्सेप्ट आगे चलकर मेरी ज़िंदगी का इतना अहम हिस्सा बन जायेगा और मैं वाकई जेल में सजा काट रहे कैदियों के लिए कुछ करुँगी,” यह कहना है दिल्ली की रहने वाली एलीना जॉर्ज का।

एलीना जॉर्ज (फोटो साभार: पोशाली गोएल)

सोशियोलॉजी विषय से मास्टर्स पूरी करके एलीना ने TYCIA (Turn your concern into action) संगठन के साथ एक इंटर्नशिप के लिए अप्लाई किया। यहाँ पर उन्हें ‘ट्रांसफॉर्मिंग तिहाड़’ (तिहाड़ जेल) नामक प्रोजेक्ट पर काम करने का मौका मिला। हालांकि, उन्हें इंटर्नशिप के दौरान जेल में जाने का या फिर कैदियों से मिलने का मौका नहीं मिला। उस समय उन्होंने पुलिस ऑफिशियल के साथ काम किया।

“मैं इंटर्नशिप के दो महीनों में ही समझ गयी कि मुझे यहीं काम करना है और इसलिए मैंने TYCIA के साथ एक फ़ेलोशिप प्रोग्राम के लिए भी अप्लाई किया। इस प्रोग्राम में हमने तिहाड़ की जेल नंबर 5 के कैदियों के लिए काम करना शुरू किया। इस जेल में सिर्फ़ 18 साल से 21 साल की उम्र तक के लड़कों को रखा जाता है,” द बेटर इंडिया से बात करते हुए एलीना ने बताया।

प्रतीकात्मक तस्वीर

किस तरह से इन लड़कों की ज़िंदगी में बदलाव लाया जा सकता है, इस विषय पर एलीना ने तिहाड़ जेल के कई पुलिस अधिकारियों के साथ विचार-विमर्श किया। ये कैदी न तो नाबालिग थे और न ही इतने समझदार कि हर परिस्थिति में सही-गलत की पहचान कर पाएं। पर अगर इन्हें सही राह दिखाई जाये, तो यक़ीनन इनकी आने वाली ज़िंदगी में बदलाव हो सकता है। इसलिए तय किया गया कि जेल में ही इन कैदियों के लिए स्कूल शुरू किया जाये।

“हालांकि, यह स्कूल बाहर के सामान्य स्कूलों से काफ़ी अलग होने वाला था। पर हमने जेल को ही स्कूल का रूप दिया और इसमें इन सभी कैदियों को शामिल किया गया। दीवारों पर ग्राफिटी उन्होंने की, टेबल-चेयर आदि जो भी बना, सब तिहाड़ जेल में ही बना। हमारा उद्देश्य था कि ये लड़के खुद को इस प्रोजेक्ट का हिस्सा समझें,” एलीना ने बताया।

और फिर पहली बार एलीना ने तिहाड़ जेल में कदम रखा। “मुझे बहुत से लोगों ने कहा कि यह बिल्कुल भी आसान नहीं होगा, एक बार सोच लो कि क्या वाकई तुम्हें ये करना है? मेरे मन में भी उधेड़बुन थी और जब मैं वहां गयी, तो सब मुझे देख रहे थे कि कौन आया है बाहर से। लेकिन फिर मुझे लगा कि ये लोग सिर्फ़ मुझे ही नहीं, बल्कि बाहर से आने वाले किसी भी इंसान को ऐसे ही देखते है।”

आगे एलीना ने बताया कि शुरुआत में इन सभी कैदियों ने बहुत अच्छे से बर्ताव किया, जो भी वो उन्हें कहतीं, वे मान जाते थे। लेकिन 2 महीने गुजरने के बाद, जब इन लोगों को पता चला कि एलीना अब लगातार उन्हें पढ़ाने आएँगी, तो वे उनके साथ धीरे-धीरे खुलने लगे। “फिर धीरे-धीरे उनके असली रंग वो दिखाने लगे। कोई बदतमीजी नहीं थी, पर हाँ अक्सर हंसी-मजाक करते। या फिर पढ़ाई को लेकर उनका बहुत ही उदासीन रवैया अब नज़र आने लगा।”

इन सभी कैदियों में ज़्यादातर स्कूल ड्रॉपआउट थे और उनका फिर से पढ़ाई पर ध्यान खींचना बहुत मुश्किल था। और बातों  ही बातों में ये लोग एलीना को कहीं न कहीं ये जताते कि वो जो भी कर रही हैं , उसका शायद कोई फायदा नहीं। अक्सर उन्हें सुनने को मिलता, ‘मैडम, जब हमारे घरवाले हमें नहीं पढ़ा पाए, तो अब कोई और क्या कर लेगा।’

सबसे ज़्यादा हैरानी एलीना को तब हुई, जब उनके एक छात्र ने कहा कि, “मैडम, अब तो हम जेल आ गये, तो अब क्या कर लेंगें पढ़कर?”

एलीना को समझ आने लगा कि जिस उद्देश्य से हमारे समाज में जेल जैसी जगह बनाई गयीं हैं , वह पूरा ही नहीं हो रहा है। जेल का उद्देश्य अपराधी को सिर्फ़ सज़ा देना नहीं, बल्कि उनके व्यवहार और सोच में परिवर्तन लाकर, उन्हें सुधारना भी है, ताकि वे यहाँ से बाहर जाकर एक बेहतर ज़िंदगी जी सके। लेकिन इन लोगों की बात सुनकर एलीना को पता चला कि कहीं न कहीं हमारे देश की कानून-व्यवस्था ऐसा कर पाने में विफल हो रही है।

“दूसरा सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब मेरे पढ़ाये हुए कुछ छात्र, जो जेल से सज़ा काटकर निकल गये थे, कुछ समय बाद फिर से किसी अपराध के लिए पकड़े गये थे। तब मुझे लगा कि सिर्फ़ सामान्य तरीके से पढ़ाने से कुछ नहीं बदलेगा, हमें और एक कदम आगे बढ़कर सोचना होगा कि कैसे हम इन लोगों की मानसिकता में बदलाव लायें,” एलीना ने कहा।

इस बदलाव के लिए उन्हें प्रेरणा भी इन कैदियों से ही मिली। एक दिन जब एलीना उनकी क्लास ले रहीं थीं, तो विषय था हिंदी की शब्दावली और जब वे ‘च’ पर पहुँचे तो किसी ने ज़ोर से कहा ‘चाकू।’ यह सुनकर एलीना को एक पल के लिए बहुत धक्का लगा, पर फिर उन्होंने देखा कि कैसे सभी छात्र उससे सहमत हो गये और हंसने लगे। इस तरह एलीना को समझ आया कि उन्हें अब अपनी टीचिंग में क्या बदलाव करना है।

“ये लोग कई बार ट्रायल के लिए कोर्ट जाते हैं, तो हम ‘क’ से कोर्ट पढ़ते हैं और फिर मैं उन्हें ‘क’ से कलम पर लेकर आती हूँ। ऐसे ही, ‘ग’ से गांजा हम पढ़ते हैं; और फिर मैं उन्हें ये भी बताती हूँ की गांजा ‘ग’ से गमले में उगता है। टीचर होने के नाते यह मेरा काम है कि मैं पहले उनकी शब्दावली से शुरू करके उन्हें सामान्य शब्दावली सिखाऊं। इस तरह मैंने उन्हीं में से एक-दो छात्रों की मदद लेकर एक पूरा चार्ट बनाया और अब उनके लिए सीखना आसान है,” एलीना ने बताया।

फोटो साभार: एलीना जॉर्ज

इस शब्दावली के साथ-साथ एलीना ने अपनी टीम के साथ मिलकर अलग-अलग विषयों पर गेम्स, फ़्लैश कार्ड्स आदि बनाये। अब वो इन लोगों को उनके द्वारा किये गये अपराधों के बारे में भी समझाती हैं। उदाहरण के लिए उन्होंने बताया कि कई कैदी यहाँ पर लड़कियों के साथ छेड़खानी के मामले में गिरफ्तार होकर आये हैं। ऐसे में सबसे बुरा यह है कि उन्हें पता ही नहीं कि उन्होंने गलती कहाँ की, क्योंकि हमारे यहाँ वैसे भी ‘सहमति’ के बारे में बहुत कम चर्चा होती है। एलीना ने उन्हें गेम्स की मदद से समझाया कि चाहे लड़की हो या फिर लड़का, लेकिन अगर आप किसी को भी बिना उनकी सहमति के छू भी रहे हो, तो वह भी अपराध है। इसके अलावा, इस विषय पर और भी पहलुओं के बारे में उनसे चर्चा की जाती है, ताकि वे खुद ही सोचें कि उन्होंने क्या गलती की है।

जब भी एलीना को मौका मिलता, तो वे उनके साथ व्यक्तिगत तौर पर भी बात करतीं। इससे उन्हें उनके बारे में जानने का और उन्होंने क्या अपराध किया, इस पर चर्चा करने का मौका मिला। बाद में, इन लोगों को उनकी गलती समझाने के लिए उन्होंने इन कैदियों की कहानियों के आधार पर ही कॉमिक्स बनवायी। ये कॉमिक्स दिलचस्प होने के साथ-साथ ज्ञानवर्धक भी थीं, जिनसे उन्हें उनकी गलती का अहसास हो।

इन्हीं सब पहलों के साथ शुरुआत हुई ‘सेकंड चांस’ की। एलीना ने अपने इस अभियान को ‘सेकंड चांस’ नाम दिया, जिसका मतलब है कि इन कैदियों को अपनी ज़िंदगी सुधारने और संवारने का दूसरा मौका देना। सेकंड चांस के तहत एलीना और उनकी टीम इन कैदियों को इस काबिल बनाना चाहती है कि जेल से बाहर निकलने पर उन्हें कहीं ढंग की नौकरी मिल सके और वे एक नए सिरे से अपनी ज़िंदगी शुरू करें।

एलीना का यह प्रोजेक्ट ‘तिहाड़ जेल’ में तो चल ही रहा है, लेकिन व्यापक स्तर पर बदलाव लाने के लिए ज़रूरी है कि भारत के सभी जेलों में इस तरह के प्रोग्राम्स हों। सभी जेलों के कैदियों को खुद को सुधारने का एक ‘सेकंड चांस’ मिले। इसके लिए एलीना ने इस प्रोजेक्ट को एक ‘सोशल एंटरप्राइज’ के रूप में खड़ा करने की सोची, जो कि इन कैदियों का सर्वेक्षण कर, उनकी ज़रूरत के हिसाब से ‘सेकंड चांस लर्निंग किट’ तैयार करेंगें। इस लर्निंग किट में उनके लिए एक महीने यानी कि 30 दिन का कर्रिकुलम है, जिसमें कॉमिक्स, फ़्लैश कार्ड्स, बोर्ड गेम्स और हिंदी शब्दावली के स्पेशल चार्ट आदि हैं।

इस लर्निंग किट को तिहाड़ जेल के लगभग 150 कैदियों के साथ मिलकर बनाया गया है और इस सबसे उनके व्यवहार में एक सकारात्मक बदलाव देखने को मिला। ‘सेकंड चांस’ को एक सोशल एंटरप्राइज के तौर पर खड़ा करने में एलीना की मदद की पीडब्ल्यूसी-एसएससी फ़ेलोशिप प्रोग्राम ने, जहाँ उन्हें किसी भी एंटरप्राइज को कैसे शुरू किया जाता है, किन-किन बातों का ध्यान रखना ज़रुरी है और कैसे इसकी मार्केटिंग करें, आदि सिखाया गया।

फोटो साभार: एलीना जॉर्ज

ट्रेनिंग किट्स के साथ-साथ एलीना और भी लोगों को इन कैदियों को पढ़ाने के लिए ट्रेन कर रही हैं। हालांकि, इस सोशल एंटरप्राइज को एक बड़े लेवल पर चलाने के लिए उन्हें काफ़ी फंडिंग की ज़रूरत है, लेकिन फ़िलहाल वे सिर्फ़ इतना चाहती हैं कि हमारा समाज भी इन कैदियों को एक दूसरा मौका दे। जेल जाने वालों के प्रति जो घृणा-भाव हमारे समाज में है, उससे हमें बाहर निकलना होगा।

“अब हमें सोचना होगा कि आख़िर क्यों सभी साधन होने के बावजूद अपराध बढ़ रहे हैं। कहाँ हमारा समाज बच्चों की परवरिश में कमी कर रहा है। जेल, पुलिस स्टेशन, और किसी भी तरह के अपराधों के बारे में जागरूकता लाने के लिए स्कूलों से शुरूआत करनी होगी। अगर बच्चों को बचपन से ही इन सब विषयों पर खुलकर समझाया जाये, तो हमारी आने वाली पीढ़ी बेहतर बनेगी। इसके लिए हमें सामाजिक और सामूहिक तौर पर शुरुआत करनी होगी,” इस विचार के साथ एलीना ने एक बेहतर कल की उम्मीद जताई।

यदि आप एलीना की इस पहल से जुड़ना चाहते हैं, तो ‘सेकंड चांस फेलोशिप‘ के लिए अप्लाई करें!

संपादन – मानबी कटोच


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