“बक्सर और बागपत जैसी जगहों पर जब हमने ब्रेस्ट कैंसर अवेयरनेस कैंप किये और वहां के गांवों में महिलाओं से बात करने की कोशिश की। तो कई बार हमें सीधा-सीधा घर से निकल जाने के लिए कह दिया जाता था। इतना ही नहीं, बहुत से गांवों में तो आज भी औरतों को इलाज के लिए भी अस्पताल जाने की इजाजत नहीं है और किसी पुरुष डॉक्टर के पास तो बिलकुल भी नहीं।”
डॉ. ध्रुव कक्कड़ जब मुझे अपने ये अनुभव बता रहे थे तो मेरे ज़ेहन में महाश्वेता देवी की लिखी लघु कथा, ‘स्तनदायिनी’ चल रही थी। उस कहानी में भी जब नायिका को ‘ब्रेस्ट कैंसर’ हो जाता है तो उसका खुद का परिवार और वे सभी लोग, जिनके लिए उसने ताउम्र काम किया, सब उसे नकार देते हैं।
‘स्तनदायिनी,’ महाश्वेता देवी ने 80 के दशक में लिखी थी, अब से लगभग 40 साल पहले। पर उन्होंने जो लिखा, वह आज भी हमारे समाज का आइना है। आज के डिजिटल युग में भी महिलाओं की शारीरिक और मानसिक समस्याओं को तवज्जो नहीं दी जाती है। शहरों की लड़कियां भी माहवारी और ब्रेस्ट कैंसर जैसे विषयों पर खुलकर बात नहीं कर पाती हैं तो गांवों की स्थिति का अंदाज़ा तो लगाया ही जा सकता है।
साल 2017 में दिल्ली निवासी डॉ. ध्रुव कक्कड़, डॉ. प्रियांजलि दत्ता और शबील सलाम ने ‘आरोग्या’ संगठन की नींव रखी। आरोग्या को शुरू करने की सोच डॉ. प्रियांजलि की थी, तो डॉ. ध्रुव कक्क्ड़ ने उनके इस आईडिया में न सिर्फ इन्वेस्ट किया, बल्कि प्लानिंग और टीम की ट्रेनिंग की ज़िम्मेदारी भी उन्हीं पर है।
शबील सलाम, संगठन के चीफ ऑपरेटिंग अफसर हैं, जिन्होंने भारत के 43 शहरों तक आरोग्या की मुहिम को पहुंचाया। डॉ. दत्ता कहती हैं कि उनकी अब तक की सफलता किसी एक नाम की वजह से नहीं है, बल्कि यह सफलता आरोग्या की पूरी टीम की है, जिसमें बहुत से सलाहकार, डॉक्टर्स और वॉलंटियर्स शामिल हैं।
उनका उद्देश्य घर-घर जाकर लोगों को इस विषय पर जागरूक करना है ताकि महिलाओं में फर्स्ट स्टेज में ही बीमारी का पता चल जाये क्योंकि डॉ. दत्ता के मुताबिक, देर से कैंसर का पता चलने के कारण भारत में 10 में से 8 महिलाएं ट्रीटमेंट के बाद 5 साल से ज़्यादा नहीं जी पातीं।
लेकिन आरोग्या ने अपने प्रयासों से स्थिति को बहुत हद तक बदल दिया है। उनकी टीम अब तक 20 लाख से ज़्यादा महिलाओं को ब्रेस्ट कैंसर या फिर किसी भी तरह की अन्य बिमारी के लिए टेस्ट कर चुकी है। जिनमें से लगभग 52, 000 को कोई न कोई बीमारी थी। इनमें से कैंसर पीड़ित लगभग 3, 000 थे और ब्रेस्ट कैंसर के लगभग 2, 000 केस थे।
आरोग्या की मुहिम अब तक सात राज्यों- मेघालय, उत्तर-प्रदेश, हरियाणा, बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड और दिल्ली एनसीआर के 18 जिलों तक पहुँच चुकी है।
शुरुआत:
32 वर्षीय ध्रुव बताते हैं कि आरोग्या शुरू करने का ख्याल ग्रामीण इलाकों में हेल्थ कैंप्स के दौरान आया। डॉ. दत्ता उस वक़्त उनके मार्गदर्शन में अपनी इंटर्नशिप कर रही थीं। इन हेल्थ कैंप्स के दौरान उन्हें समझ आया कि अगर उन्हें बड़े स्तर पर बदलाव लाना है तो खुद को पूरी तरह से इसी के लिए समर्पित करना होगा।
उनके अभियान की शुरुआत डॉ. दत्ता के होमटाउन मेघालय से हुई। उन्होंने कुछ इलाके छांटे और वहां जागरूकता अभियान, वर्कशॉप आदि करना शुरू किया।
आरोग्या की टीम सबसे पहले इलाके और गांवों के बारे में रिसर्च करती है। वे पता लगाते हैं कि किन गांवों के आसपास प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों या फिर सरकारी अस्पतालों की सुविधाएं हैं। स्वास्थ्य केंद्र, सरकारी अस्पताल और प्राइवेट अस्पतालों के साथ भी वे टाई-अप करते हैं। ताकि कैंसर या फिर कोई भी अन्य बीमारी डिटेक्ट होने पर मरीजों को तुरंत वहां रेफर किया जा सके।
आरोग्या की टीम गांवों में घर-घर जाकर लोगों से बात करती है। उन्हें उनके रेग्युलर हेल्थ-चेकअप के लिए स्वास्थ्य केंद्रों में जाने के लिए प्रोत्साहित करती है। चेकअप के दौरान यदि किसी के लक्षण दिखते हैं कि उसे कोई बीमारी हो सकती है तो डॉक्टर्स एक आर्टिफीशियल इंटेलिजेन्स डिवाइस की मदद से उनके शरीर का मुआयना करते हैं और फिर उन्हें पास के अस्पताल में इलाज के लिए रेफर कर दिया जाता है।
काम की चुनौतियां:
आरोग्या की टीम के इस मध्यस्तता की वजह से बहुत-से मरीजों में शुरूआती स्टेज में ही कैंसर या फिर अन्य कोई घातक बीमारी का पता चल पाया और समय रहते उनका इलाज हो रहा है। हालांकि यह सफर इतना आसान नहीं है, जितना कि लिखते समय शायद मुझे और पढ़ते समय हमारे पाठकों को लगे।
सूरजमल अस्पताल और ईएसआई जैसे अच्छे अस्पतालों में काम कर चुके डॉ. कक्क्ड़ बताते हैं,
“गांवों में किस तरह से लोगों को इस विषय पर एप्रोच करना है, कैसे महिलाओं और लड़कियों से बात करनी है, उनसे क्या सवाल करने है, उन्हें क्या समझाना है, इन सब बातों को ध्यान में रखकर खुद मैंने हमारी टीम के लिए एक तकनीक तैयार की। अपने वॉलंटियर्स और अन्य डॉक्टर्स को मैं खुद इसके लिए ट्रेन करता हूँ। पर फिर भी लोगों को यह विषय समझाना और महिलाओं को चारदीवारी से बाहर लाना बहुत मुश्किल हो जाता है।”
उन्होंने आगे बताया कि सबसे पहले उन्हें गांवों के मुखिया या सरपंच को समझाना पड़ता है और उनकी परमिशन के बाद ही टीम गाँव की लड़कियों और महिलाओं से बात कर सकती है। बहुत बार तो उनके साथ ऐसा भी हुआ है कि जब वे महिला से उसके स्वास्थ्य के बारे में सवाल-जवाब करते हैं तो घर के पुरुष सदस्य लाठी लेकर उनके सिर पर खड़े होते हैं।
अक्सर हमें लगता है कि युवा लड़कियों को समझाना शायद आसान रहे। पर डॉ. दत्ता के अनुभवों के मुताबिक, उम्रदराज महिलाएं गंभीरता से उनकी बात सुनती हैं क्योंकि उन्होंने कम उम्र में स्वास्थ्य से संबंधित वो परेशानियां झेली हैं जिनके पीछे छिपी वजह के बारे में अब उन्हें बताया जा रहा है। जबकि लड़कियां तो माहवारी, स्तन कैंसर जैसे शब्द सुनते ही चुप हो जाती हैं।
पर ‘आरोग्या’ की टीम की लगन और मेहनत के चलते धीरे-धीरे ही सही, लेकिन इस विषय को गांवों की चौपाल और चूल्हा, दोनों तक पहुंचाने में सफल रहे हैं।
अन्य पहल:
वक़्त के साथ उनकी पहुँच और टीम दोनों में ही बढ़ोतरी हुई है। डॉ. दत्ता बताती हैं कि अपने अभियान की पकड़ को देखते हुए आरोग्या ने और दो पहल शुरू की हैं। एक तो वे युवा कॉलेज ग्रेजुएट्स को उनके साथ फ़ेलोशिप करने का मौका दे रहे हैं, दूसरा वे हर एक गाँव में एक ‘आरोग्या मित्र’ तैयार कर रहे हैं। इन दोनों ही पहलों के बारे में डॉ. दत्ता ने विस्तार से बताया,
“हम कॉलेज-यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएट हुए ऐसे बच्चों को फ़ेलोशिप देते हैं जोकि आगे जाकर विदेशों की टॉप यूनिवर्सिटीज में पढ़ना चाहते हैं। क्योंकि बाहर की यूनिवर्सिटी में दाखिला लेने के लिए सोशल वर्क एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है। हम इन बच्चों को गांवों में जाकर सर्वे करने के लिए ट्रेन करते हैं। उन्हें सिखाते हैं कि गांवों में कैसे वे बदलाव का ज़रिया बन सकते हैं।”
इस तरह से देश के युवा छात्रों को गांवों की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों के बारे में जानकारी मिलती है। किताब-क्लासरूम से बाहर असल दुनिया की समझ उन्हें अपने इन रिसर्च प्रोजेक्ट्स के दौरान होती है। जो भविष्य में उनके लिए बहुत मददगार साबित होगी।
इसके अलावा, आरोग्या की टीम को ऑनग्राउंड डाटा मिलता है, जिससे उन्हें अपने अभियान को ज़्यादा से ज़्यादा इलाकों तक पहुँचाने में मदद मिलती है।
“जब एक गाँव में हमारा कैंप पूरा हो जाता है तो हम गाँव की सबसे एक्टिव महिला को वहां पर ‘आरोग्या मित्र’ नियुक्त करते हैं। ताकि वह हमारे बाद भी गाँव में महिलाओं के स्वास्थ्य पर एक चेक रख सके और कभी भी हमें रिपोर्ट भेज सकें। उनका काम हमारी मुहिम को वहां बनाये रखना है,” डॉ. दत्ता ने कहा।
इसके अलावा, उनकी टीम लड़कियों को खुद का मुआयना करने की ट्रेनिंग भी देती है ताकि अगर उनके शरीर में कुछ बदलाव हों तो वे उसे अनदेखा न करें। सरकारी कर्मचारी जैसे एएनएम, आशा वर्कर्स को भी खास तौर पर ट्रेन किया जाता है।
फ़िलहाल, आरोग्या को कुछ प्राइवेट डोनर्स और सरकार की तरफ से अपने हेल्थ कैंप्स, वर्कशॉप और अन्य गतिविधियों के लिए फंडिंग मिल रही है। उनकी कोशिश रहती है कि जिन भी मरीजों को टीम डिटेक्ट करती है, उनका इलाज सरकारी अस्पतालों में हो, क्योंकि गांवों में बहुत ही कम लोग खर्चा उठा सकते हैं। यदि कभी प्राइवेट अस्पताल में उन्हें किसी को रेफर करना पड़ा है तब भी वे खर्च को कम से कम कराने की कोशिश करते हैं।
अंत में डॉ. कक्क्ड़ सिर्फ एक ही सन्देश देते हैं कि रोकथाम, इलाज से बेहतर विकल्प है।
“ज़रूरी नहीं कि आप अपना चेकअप तभी करवाएं जब आपको बीमारी हो जाये। क्योंकि अक्सर जिस रेग्युलर चेकअप में खर्च होने वाले पैसे को हम बचाते रहते हैं, बीमारी हो जाने पर उससे भी कई गुना ज़्यादा पैसा हमें इलाज में खर्च करना पड़ता है। इसलिए खुद के और अपने परिवार के स्वास्थ्य के बारे में सतर्क रहें। साथ ही, अपने आस-पास के लोगों को भी जागरूक करें।”
हमारे देश में स्वास्थ्य के क्षेत्र में गरीब, ग्रामीण लोगों और स्वास्थ्य सुविधाओं के बीच जो खाई है, ‘आरोग्या’ की टीम उसे पाटने की कोशिश कर रही है। उनकी यह कोशिश पूरे देश में बदलाव तभी ला सकती है जब हम और आप उनका साथ दें। इसलिए आज से ही खुद के स्वास्थ्य को प्राथमिकता दें और रेग्युलर हेल्थ चेकअप को अपनी आदत बनाएं!
संपादन – मानबी कटोच