“मैं मुश्किल से 5 साल की थी, जब मेरे माता-पिता का देहांत हुआ। लेकिन मैं खुशकिस्मत हूँ कि मुझे मेरी आंटी मिल गईं और उन्होंने मुझे अपनी बेटी की तरह पाल-पोसकर बड़ा किया। अगर वह नहीं होती तो शायद आज मैं इतनी शिक्षित और सशक्त नहीं होती। पर इस दुनिया में हर किसी की किस्मत ऐसी नहीं है। बहुत से ऐसे बच्चे भी हैं जिनके माता-पिता हैं लेकिन फिर भी उन्हें वह बचपन नहीं मिल पाता, जिसके वे हक़दार हैं,” यह कहना है 21 वर्षीय जूली काकोती का।
असम के गुवाहाटी में रहने वाली जूली गुवाहाटी यूनिवर्सिटी में मास्टर्स की छात्रा हैं। साथ ही, वह शहर के जेएमसी स्लम एरिया के बच्चों को पढ़ातीं हैं। पिछले एक-डेढ़ साल से जूली इन बच्चों को पढ़ा रही हैं और बहुत-से बच्चों को उन्होंने फिर से स्कूल से जोड़ा है।
सिर्फ बच्चों को ही नहीं जूली इनके माता-पिता को भी जागरूक कर रही हैं और खासकर, महिलाओं को उनके बच्चों की शिक्षा, उज्जवल भविष्य और उनके अपने अधिकारों के बारे में बता रहीं हैं। उन्होंने अपने इस अभियान को नाम दिया है- ‘चक्षु’ (आँखें)।
वह कहतीं हैं, “यहाँ के लोग जो है उसी में खुश है। वे पीढ़ियों से यहीं रह रहे हैं और यहाँ से निकलने के बारे में सोचते ही नहीं। मुझे लगा कि उनका ज़िंदगी को देखने का और समझने का नजरिया ही गलत है। इसलिए मैंने अपने अभियान को ‘चक्षु’ नाम दिया है, जिसका उद्देश्य है इन बच्चों को एक बेहतर भविष्य का दृष्टिकोण देना। इन्हें समझाना कि वे सिर्फ झुग्गियों में रहने और छोटे-मोटे कामों के लिए नहीं है, अगर मेहनत करेंगे तो वे भी अपनी एक पहचान बना सकते हैं।”
कैसे हुई शुरुआत:
जुलाई, 2018 में जूली जब मास कम्युनिकेशन के आखिरी सेमेस्टर में थीं, और क्लासेस न होने की वजह से घर पर ही होती थीं। इसी दौरान उनकी अपने घर में काम करने वाली दीदी से बातें होने लगीं।
एक दिन बातों-बातों में जूली को दीदी ने उस झुग्गी बस्ती के बारे में बताया जहाँ वह रहती थीं। वह अपने बेटे को लेकर बहुत चिंतित थीं, क्योंकि इस बस्ती का माहौल बद से बदतर होता जा रहा था।
“मुझे पता चला कि कैसे छोटे-छोटे बच्चे नशे की लत में पड़ रहे हैं और उनका स्कूल से कोई वास्ता नहीं है। किसी का स्कूल में दाखिला ही नहीं हुआ है और जिनका हुआ है, वे कभी स्कूल जाते ही नहीं। माता-पिता भी रोज़गार के चक्कर में अपने बच्चों पर ध्यान नहीं देते हैं। मुझे यह सब बहुत बुरा लगा क्योंकि मैं बचपन से ही इन सब मुद्दों की तरफ एक खिंचाव महसूस करती हूँ। उनके जाने के बाद भी मेरे दिमाग में ये सब बातें घुमती रहीं,” जूली ने आगे बताया।
इस दिशा में पहला कदम उठाते हुए जुली ने दीदी के बेटे को पढ़ाना शुरू किया। उसे वह हर दूसरे दिन कुछ न कुछ नया पढ़ातीं। उन्होंने देखा कि अगर बच्चों पर सही ध्यान दिया जाए तो वे अच्छी प्रगति करते हैं। उस बच्चे से बात करके उन्हें और तीव्र इच्छा होने लगी कि वह उन स्लम के बच्चों के लिए कुछ करें। उनकी ग्रैजुएशन पूरी हुई और उन्होंने मास्टर्स की तैयारी शुरू कर दी। लेकिन साथ ही ठान लिया कि वह एक बार तो स्लम में जाकर अपनी कोशिश करेंगी।
नवंबर-दिसंबर, 2018 से उनका सफ़र शुरू हुआ। एक दिन वह पहुँच गई स्लम और वहां के अध्यक्ष से बात की। लेकिन उन्हें स्लम में ऐसा कुछ भी करने की अनुमति नहीं मिली। इसके कई कारण थे, एक तो जूली की उम्र उस समय मुश्किल से 20 वर्ष थी।
“दूसरा, उन्हें लगा कि मैं भी बाकी संगठनों की तरह हूँ। बहुत बार संगठन बच्चों को पढ़ाने और उनके उत्थान के नाम पर उनका शोषण करते हैं। पहले ऐसी घटनाएं हो चूकीं थीं, इसलिए भी अनुमति नहीं मिली। मुझे उनकी बात समझ में आई। इसलिए मैंने धीरे-धीरे अपनी कोशिश की। पूरा दिसंबर का महीना उन्हें समझाने में गया और जनवरी 2019 में मुझे अनुमति मिली कि अगर बच्चे आते हैं पढ़ने के लिए तो मैं पढ़ा सकती हूँ,” उन्होंने बताया।
चुनौतियाँ नहीं थीं कम:
अध्यक्ष से अनुमति मिलना सिर्फ एक पड़ाव था जो जूली ने पार किया था। असल मुश्किलें तो अब शुरू हुई थीं। पढ़ाई के नाम पर बच्चे उनसे बात भी नहीं करते थे और न ही वहां के लोग कोई रूचि दिखाते। बच्चों से दोस्ती करने के लिए जूली ने बहुत अलग-अलग तरीके अपनाए। वह कहतीं हैं जहां बड़ी-बड़ी बातें कम नहीं आतीं, वहां उन्होंने कला का सहारा लिया।
जूली ने डांस और ड्राइंग से शुरूआत की। वह बच्चों के लिए खाने-पीने की चीजें ले जातीं और उन्हें डांस और ड्राइंग की प्रतियोगिता के लिए बुलातीं। बच्चों को म्यूजिक, डांस, और रंग जैसी बातें बहुत आकर्षित करतीं हैं। सबसे पहले ये बच्चे जूली के दोस्त बनें और फिर छात्र। जूली हर दिन 2-3 घंटे उनके साथ बितातीं हैं।
“आखिरकार, जब इन बच्चों ने मुझसे पढ़ना भी शुरू किया तो मुझे और भी बातों का पता चला। जैसे कि अगर कोई बच्चा आठवीं कक्षा में भी है तो उसका स्तर पहली कक्षा के बच्चों जैसा ही है। उन्हें मामूली गुणा-भाग भी नहीं आते क्योंकि इस सब पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया। मुझे हर एक बच्चे के साथ जीरो से शुरू करना था और कहीं न कहीं ये आसान रहा क्योंकि मुझे किसी को भी अलग-अलग लेकर नहीं बैठना पड़ा,” उन्होंने बताया।
अभी वह इन बच्चों को स्लम के एक कॉमन स्टोर रूम में पढ़ातीं हैं। उन्होंने अध्यक्ष से बात करके स्टोर रूम को साफ़ किया, जिसके आधे हिस्से में सामान रखा है और आधी जगह में जूली पढ़ा रही हैं।
जूली ने मूलभूत भाषा ज्ञान और गणित से शुरूआत की। साथ में, बच्चों के आर्ट कम्पटीशन भी चलते रहे। बच्चों के साथ-साथ, उन्हें उनके माता-पिता को भी समझाने में काफी मेहनत करनी पड़ी। वह कहतीं हैं कि माँ-बाप खुद बच्चों को स्कूल नहीं भेजते, खासकर लड़कियों को, क्योंकि उन्हें लगता है कि फिर घर का काम कौन करेगा? कुछ बच्चे इधर-उधर से मांगकर भी लाते हैं तो वह कमाई भी रुक जाएगी। ऐसे में, उन्हें यह बच्चों को हर दिन स्कूल भेजने के लिए मनाना बहुत मुश्किल था।
सबसे पहले जूली ने बच्चों के साथ अपना रिश्ता गहरा किया। उनकी कोशिशें रंग लाने लगीं और बच्चों के व्यवहार में और बोल-चाल में काफी फर्क आया। यह अंतर स्लम के सभी लोगों को दिखने लगा।
“मैंने बच्चों को स्कूल जाने के लिए समझाया। उन्हें मैं समझाती कि स्कूल जाना क्यों ज़रूरी है? अगर वे पढ़ेंगे-लिखेंगे तो वे अच्छी नौकरी करके अच्छे घर में रह सकते हैं,” उन्होंने कहा।
लेकिन बच्चों की उनके माता-पिता के आगे कैसे चले। एक लड़की सुनीता का उदाहरण देते हुए, उन्होंने बताया कि सुनीता को अपने घर पर अपने भाई-बहनों की देखभाल करनी पड़ती और घर का काम भी। उस लड़की का नाम स्कूल में है लेकिन वह कभी स्कूल जा ही नहीं पाती।
जब उसने जूली की कक्षा में आना शुरू किया तो उन्होंने देखा कि वह लड़की पढ़ाई में अच्छी है। जल्दी चीजें सीखती है और कहीं न कहीं उसे पढ़ना पसंद भी है। इसलिए जूली ने उसकी माँ से बात करने की ठानी। हालांकि, उसकी माँ को इस बात की ज्यादा चिंता थी कि अगर सुनीता स्कूल जाएगी तो घर का काम कौन देखेगा।
“ऐसे में, मैंने एक रूटीन बनाया, उनके घर के हिसाब से। जिससे सुनीता पढ़ाई के साथ-साथ घर के काम में भी उनकी मदद कर सकती है। मैं उन्हें यह नहीं कह सकती थी कि वे अपनी बेटी से घर का काम क्यों करा रहे हैं। इसलिए मुझे कोई बीच का रास्ता खोजना था और मैंने वही सुनीता को समझाया। अब वह लड़की हर रोज़ स्कूल जा रही है और उसमें काफी बदलाव आया है,” उन्होंने कहा।
इसी तरह, जूली ने एक और बच्चे के जीवन को बिगड़ने से बचाया। आयुष, 6-7 साल का लड़का है लेकिन स्लम के कुछ किशोर युवाओं के पीछे-पीछे वह गलत आदतों में पड़ गया। उसके हाथ पर हमेशा एक रुमाल बंधा रहता, जिसमें शायद उसे कोई तो नशे की चीज़ दी जाती। उसके माता-पिता ने भी कभी इस बात पर गौर नहीं किया।
“मुझे थोड़ा-थोड़ा तो समझ में आता था उसे देखकर, लेकिन वह बहुत ही कम मेरे पास आता। इसलिए मैंने उसके दोस्तों से कहना शुरू किया कि वे आयुष को भी लेकर आया करें। उसे पहले चॉकलेट, टॉफ़ी दीं और फिर उसके माँ-बाप को भी बताया कि वह किस और जा रहा है। मैंने उन्हें कहा कि आयुष को इस बारे में बिना पता चले ही उसे इस आदत से निकालना होगा,” जूली ने बताया।
जूली की बात उसके माता-पिता ने मानी। सबसे पहले उसके हाथ से वह रुमाल हटवाया और फिर धीरे-धीरे उसे उन बड़े लड़कों की संगति में जाने से रोका। वह बतातीं हैं कि आयुष की उम्र कम है और इसलिए वे उसे संभालने में सफल रहे।
“मुझे समझ में आया कि इन बच्चों के साथ-साथ इनके माता-पिता की काउंसलिंग भी कितनी ज़रूरी है। मैंने उनकी मम्मियों के साथ सेशन किए। जिसमें मैंने खुद उनके स्वास्थ्य के बारे में उन्हें समझाया। उन्हें माहवारी और स्वच्छता के बारे में जागरूक किया ताकि वे खुद के और अपनी बेटियों के प्रति ज़िम्मेदार हों। ये सेशन सफल रहे और अब इन महिलाओं को मुझ पर भरोसा है। बल्कि एक आंटी ने खुद मुझसे आकर कहा कि आप हमें भी पढ़ा दो, कम से कम अपना नाम लिखना तो सीखेंगे,” जूली ने बताया।
उठाए छोटे-छोटे कदम:
जूली कहती हैं कि उन्होंने किसी भी बात में जल्दबाजी नहीं की। उन्होंने धीरे-धीरे अपनी जगह बनाई। वह बिना ज़रूरत के कभी भी कोई फैंसी चीज़ लेकर नहीं गईं। फंडिंग के बारे में वह बताती हैं कि उन्होंने कभी भी इतना कुछ बड़ा नहीं किया कि उन्हें बहुत पैसों की ज़रूरत पड़े।
उन्होंने बच्चों के लिए कॉपी, पेंसिल, बोर्ड और मार्कर-डस्टर आदि अपनी बचत के पैसों से ख़रीदा। इसके अलावा, वह पार्ट टाइम एंकरिंग के प्रोजेक्ट करतीं हैं, जिससे उन्हें काफी मदद मिलती है।
जैसे-जैसे उनके बारे में आस-पास के लोगों को पता चला तो उनकी टीम में और भी सदस्य शामिल हुए। पहले एक से दो फिर दो से चार और आज 8 लोग उनके साथ काम कर रहे हैं। ये सभी अपनी सहूलियत के हिसाब से वक़्त निकालकर बच्चों को पढ़ाते हैं।
“मैंने टीम के सदस्य बनने के लिए 150 रुपये रजिस्ट्रेशन फीस रखी है। इससे भी काफी मदद हो जाती है। मैंने कभी कोई प्राइवेट डोनेशन नहीं लिया है क्योंकि अभी मैंने चक्षु का रजिस्ट्रेशन नहीं कराया है। इसलिए मूझे लगा कि किसी से यूँ ही मदद लेना गलत होगा और फिर पारदर्शिता भी नहीं रहेगी। इसलिए अभी हम लोग मिलकर ही यह सब मैनेज कर रहे हैं।”
मिली सफलता:
जूली के पास फ़िलहाल 100 बच्चे पढ़ने के लिए आते हैं, जिनमें से 80 बिल्कुल नियमित तौर पर आते हैं। इन बच्चों में लगभग 40 बच्चों के नाम स्कूल में भी हैं। जूली के मुताबिक, उनके समझाने के बाद 30 बच्चों ने स्कूल जाना शुरू कर दिया और कुछ बच्चों के नए दाखिले भी हुए हैं। जूली को पता है कि उन्हें अभी एक लम्बा सफ़र तय करना है, जिसकी शुरुआत हो चुकी है।
अपनी आगे की योजना पर वह सिर्फ इतना कहतीं हैं, “फ़िलहाल, मैं सिर्फ इन बच्चों को स्कूल से जोड़ने और साथ ही, यहाँ की महिलाओं को पढ़ाने के बारे में सोचती हूँ। मुझे बच्चों के साथ-साथ इन महिलाओं को भी सशक्त करना है। बस यही प्लान है अभी।”
यह भी पढ़ें: #गार्डनगिरी: ‘खुद उगाएं, स्वस्थ खाएं’: घर की छत को वकील ने बनाया अर्बन जंगल!
अगर आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है तो आप जूली से उनके फेसबुक पेज चक्षु के ज़रिए संपर्क कर सकते हैं!