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दिल्ली की ‘सुपरकॉप’ सुनीता! ढूंढ निकाले 75 लापता बच्चे, विभाग ने दिया आउट ऑफ टर्न प्रमोशन

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कभी सोचकर देखा है कि अगर आपके जिगर का टुकड़ा आपको बिना बताए घंटे दो घंटे के लिए कहीं चला जाए तो? दिल दहल जाता है न! हमारे देश में हर रोज़ हज़ारों की संख्या में मासूम बच्चे लापता होते हैं। ऐसे में दिल्ली पुलिस की ASI सुनीता अंतिल जैसे लोग किसी मसीहा से कम नहीं होते।

समयपुर बादली थाने में तैनात ASI यानी सहायक पुलिस निरीक्षक सुनीता अंतिल ने अपनी दिन-रात की बेजोड़ मेहनत से कोई एक दो नहीं, बल्कि पूरे 75 लापता बच्चों का पता लगाकर उन्हें उनके मां-बाप से मिलवाया है। इनमें 8 साल से लेकर 16 साल तक के नाबालिग शामिल हैं।

काम के लिए उनके लगन और बाकी पुलिसकर्मियों को प्रेरित करने के उद्देश्य से सुनीता को ‘आउट ऑफ टर्न प्रमोशन’ दिया गया है। वह अब भी अपने कर्त्तव्य पथ पर डटी हुई हैं।

द बेटर इंडिया से बातचीत करते हुए सुनीता ने कहा, “हमारा लक्ष्य बस यही है कि अपनी ड्यूटी को पूरे समर्पण के साथ निभा सकें।”

मिसिंग बच्चों को ढूंढ़ने के लिए रात-रात भर सोते नहीं थे: ASI सुनीता

सुनीता कहती हैं कि पुलिस की नौकरी 24×7 वाली है, लेकिन कई रातें ऐसी होती हैं जब उन्हें बिलकुल सोने नहीं मिलता।

वह आगे बताती हैं, “लापता बच्चों में एक ऐसी लड़की भी थी, जो तीसरी बार घर छोड़कर गई थी। वह दिमाग़ी रूप से ठीक नहीं थी। रेप का भी कुछ मामला था। उसे हमने रात को दो बजे ट्रेस किया।”

सुनीता के मुताबिक़, “लड़कों की बात करें तो वे ज़्यादातर मां-बाप की डांट से गुस्सा होकर घर से भागे थे और लड़कियों की बात करें तो वे किसी न किसी की बातों में आकर घर छोड़कर चली गई थीं। ऐसे केसेज़ में सबसे बड़ी लीड ज़्यादातर मां-बाप की तरफ़ से मिलती है। उन्होंने जिन लोगों पर शक जताया था, उनके मोबाइल वग़ैरह सर्विलांस पर रखकर, उनकी एक्टिविटीज़ को ट्रेस करके हम बच्चों तक पहुंचे।”

सुनीता कहती हैं कि बच्चों के लापता होने से मां-बाप बहुत परेशान होते हैं। ऐसे में उन्हें ढूंढ़कर, परिवार को सौंपने में जो अहसास होता है, वह शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।

ASI सुनीता किसे मानती हैं अपना आदर्श?

ASI सुनीता अंतिल, सीमा ढाका को अपना आदर्श मानती हैं। वह बताती हैं कि उन्होंने सीमा ढाका के साथ मिलकर भी कई केस सॉल्व किए। सीमा को भी कई लापता बच्चों को ढूंढ निकालने के लिए ‘आउट ऑफ टर्न’ प्रमोशन मिला था। इस बीच उनका शाहबाद डेरी थाने में ट्रांसफर हो गया; लेकिन अब भी दोनों इस तरह के केस में साथ रहती हैं।

लापता बच्चों को ट्रेस करने की क्या रणनीति थी?

सुनीता ने बताया कि उन्होंने हर एक केस को बहुत सीरियसली लिया। वह केवल CCTV फुटेज के सहारे नहीं बैठीं। उन्होंने बच्चों के मां-बाप से बात की, मामले से जुड़े लोगों के मोबाइल फोन की कॉल डिटेल रिकॉर्ड निकाली। लोकेशन ट्रेस करने के लिए मोबाइल सर्विलांस का इस्तेमाल किया। अपने खबरी नेटवर्क को मेंटेन करके रखा। छोटी से छोटी लीड पर भी ध्यान दिया और फॉलो किया।

वह कहती हैं- “हमें नतीजे जल्दी भी चाहिए थे और ठीक भी। क्योंकि मामला बच्चों का था, देरी से नुक़सान हो सकता था।” इसी वजह से वह इतने सारे बच्चों को ट्रेस कर पाईं।

क्या इस काम में कभी जान का ख़तरा भी रहा?

सुनीता बताती हैं कि वह हमेशा टीम लेकर काम पर निकलती थीं। इसके अलावा, कभी ज़्यादा रात हो जाती तो उनके फार्मासिस्ट पति विकास भी उनके साथ जाते थे। इसलिए कभी जान का संकट नहीं पड़ा।
घर को संभालने में भी वह अपने पति और सास के सपोर्ट का ज़िक्र करना नहीं भूलतीं।

‘फूल बने अंगारे’ से प्रेरित हो पुलिस में भर्ती हुई थीं ASI सुनीता

12 अक्तूबर, 1984 को हरियाणा के झज्जर जिले स्थित दुल्हेड़ा गांव में जन्मीं, 38 साल की सुनीता अंतिल बताती हैं कि वह बचपन से ही पुलिस में जाना चाहती थीं। दरअसल, उन्होंने अपने बचपन में ‘फूल बने अंगारे’ मूवी देखी थी, जिसके बाद उनमें पुलिस में भर्ती होने और अन्याय के ख़िलाफ़ लड़ने का जज़्बा पैदा हुआ।

यहां तक कि सुनीता चाहती हैं कि उनके बच्चे भी पुलिस विभाग का हिस्सा बनें, लेकिन अच्छी रैंक पर। उनके लिए बच्चों की अच्छी परवरिश भी प्राथमिकता है, ताकि वे अपने जीवन में अच्छी राह पर चलें।

जब भी टाइम मिलता है, वह अपने परिवार के साथ ही बिताना पसंद करती हैं।

बचपन में ही पिता की मृत्यु, आजीविका के लिए संघर्ष

सुनीता अंतिल ने बताया कि उनके पिता बचपन में ही गुज़र गए थे। उस समय वह सिर्फ़ 6 साल की थीं। उनका कोई भाई नहीं है, वे चार बहनें हैं। उनके लिए ज़िंदगी का सफ़र आसान नहीं रहा।

वे बहनें पहले पढ़ने जातीं, फिर आकर खेतों में काम करतीं। घर की रखवाली एक बहन के ज़िम्मे रहती। खेत भी अपने नहीं थे; दूसरों के खेत किराए पर लेकर खेती करते थे। सुनीता बताती हैं कि उनकी मां बाला देवी ने उन्हें हमेशा आत्मसम्मान से जीना और दूसरों की मदद करना सिखाया। यही भावना आज भी उनके दिल में बसी हुई है।

16 साल पहले दिल्ली पुलिस में भर्ती से शुरू हुआ सफ़र

सुनीता बताती हैं कि उन्होंने गाँव में ही रहकर ही 12वीं पास की। इसके बाद ग्रेजुएशन के लिए वह बहादुरगढ़ गईं। यहां के वैश्य कॉलेज से बी.कॉम की परीक्षा पास की। इसके बाद उन्होंने पुलिस में भर्ती होने की तैयारी शुरू कर दी।

खेतों में काम करने की वजह से फिज़िकल निकालने में कोई मुश्किल नहीं हुई। इस तरह आज से 16 वर्ष पहले, साल 2006 में वह दिल्ली पुलिस में भर्ती हो गईं। 2014 में उन्हें हेड कांस्टेबल बनाया गया।

शादी के बाद बच्चों की ज़िम्मेदारी, लेकिन कर्त्तव्य से समझौता नहीं

सुनीता बताती हैं कि उनकी शादी हरियाणा राज्य के सोनीपत में हुई। अब उनके कंधों पर दो बच्चों की अच्छी परवरिश की ज़िम्मेदारी भी है, इसके बावजूद उन्होंने अपने कर्त्तव्य से कभी समझौता नहीं किया।

वह ड्यूटी फर्स्ट के सिद्धांत पर भरोसा करती हैं। वह कहती हैं कि ज़्यादा से ज़्यादा लड़कियां पुलिस में भर्ती हों तो अच्छा है। इससे पुलिस का लहज़ा भी मानवीय और संवेदनशील बना रहता है।

संपादन – भावना श्रीवास्तव

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