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'दामोदर सभ्यता' को दुनिया के सामने लाने वाले पद्म श्री बुलू इमाम

80 साल के इमाम, तीन दशकों से भी ज़्यादा समय से आदिवासी संस्कृति और विरासत को बचाने की मुहिम पर हैं।

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6000 से ज़्यादा महिलाओं को पर्यावरण कार्यकर्ता बुलू इमाम के प्रयासों से एक नई पहचान मिली है।

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स्थानीय लोग प्यार से उन्हें ‘पापा’ कहते हैं।

सांस्कृतिक क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए बुलू इमाम को साल 2019 में पद्म श्री पुरस्कार से नवाज़ा गया था।

बुलू इमाम का जीवन काफी रोमांचक रहा है। 1960-70 के दौरान, वह एक बड़े शिकारी हुआ करते थे और उन्होंने कई हाथियों और आदमखोर बाघों को अपना शिकार बनाया।

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लेकिन धीरे-धीरे उन्हें जंगलों से लगाव होने लगा और 1980 के दशक में वह एक पर्यावरण कार्यकर्ता के तौर पर उभरे।

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साल 1991 में बुलू इमाम ने कर्णपुरा घाटी में एक दर्जन से भी अधिक शैलचित्रों यानी Rock Arts की खोज की, जो 5000 साल से भी ज़्यादा पुरानी थीं।

इन रॉक आर्ट्स पर बनीं कलाकृतियों से ही उन्होंने कोहबर, यानी विवाह कला और मिट्टी के घरों पर बनी सोहराय (फसल) कला को पूरी दुनिया के सामने रखा।

बुलू इमाम ने कोहबर और सोहराय कला को बढ़ावा देने के लिए, 1993 में संस्कृति म्यूजियम एंड आर्ट्स गैलरी की शुरुआत की। 

इसकी शुरुआत उन्होंने अपने घर से ही की थी।

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उन्होंने दुनिया में झारखंड की जनजातीय कला को एक नई पहचान दिलाई।

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बुलू इमाम ने 1993 में Tribal Women Artists’ Cooperative नाम की एक संस्था को भी शुरू किया। आज इससे छह हज़ार से ज़्यादा महिलाएं जुड़ी हुई हैं।

इसके अलावा उन्होंने एक सोहराय स्कूल भी खोला है, जिसमें हर दिन 60 बच्चे इस प्राचीन कला को सीखने के लिए आते हैं।

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“दुनिया की सबसे महान और प्राचीन सभ्यताओं में से एक इस कला को बचाने के लिए हमें आपस में भाई चारा बनाए रखना होगा। हमें जाति-धर्म, ऊंच-नीच, सबकुछ भुला कर सिर्फ देश के लिए काम करना होगा। तभी हम अपने उद्देश्यों में सफल हो पाएंगे।”                           -बुलू इमाम