Site icon The Better India – Hindi

दी अनसूटेबल गर्ल: दीदी से दादा बनने की एक प्रेरक कहानी!

“क्यूँ ना एक शाम रखी जाए
जिस्मों के आगे रूहों के नाम रखी जाए
मैं लड़का हूँ, मैं लड़की हूँ, मैं किन्नर हूँ, मैं आदम हूँ!
अरे ओ काफ़िरों में इंसान की औलाद हूँ, मुझे इंसान रखा जाए।” – डिम्पल मिथिलेश चौधरी

इन पंक्तियों की ही तरह डिम्पल भी कुछ ऐसी ही हैं- आज़ाद, आवारा, सतरंगी लेकिन प्रभावी। हमारी पहली मुलाक़ात दिल्ली स्थित हमसफ़र ट्रस्ट के ऑफिस में हुई, जहाँ हर रविवार की सुबह वो फ़्लैश मॉब की डांस प्रैक्टिस के लिए आया करती थी। लड़को सा हेयर स्टाइल, लोफर सा अंदाज़ और स्कूटी से ही हीरो की तरह एंट्री लेकर छुट्टी के दिन वो आलस से भरे लोगो में ऊर्जा भर देती थी। उसके आने से ही माहौल खुशनुमा हो जाता था।

मेरे दोस्त जब उसे ‘दादा’ (बड़ा भाई) कह कर बुलाते थे तो मुझे बहुत अजीब लगता था, लेकिन जैसे-जैसे मैं उसे जानता गया, मुझे ‘दादा’ शब्द के मायने समझ आने लगे। वो समाज के बनाये स्त्री-पुरुष के पैमानों से बहुत दूर एक ऐसी शख़्सियत है, जिसने लोगों को जीना और विपरीत परिस्थियों से लड़कर खुश रहना सिखाया।

अपने भाई बहनो के साथ डिम्पल

लेकिन कभी एहसास ही नहीं हुआ कि आज जो डिम्पल, चौधरी परिवार का मज़बूत स्तम्भ बनकर खड़ी है, उसने अपने जीवन में कितना कुछ देखा होगा। हमेशा से खुद को अलग समझने वाली उस ‘अनसूटेबल गर्ल’ को धीरे-धीरे ज़माने के ठेकेदार ये महसूस कराने की कोशिश करने लगे कि वो सिर्फ़ अलग ही नहीं, बल्कि ग़लत भी है। कोफ़्त होती थी, दम घुटता था, कलेजा मुँह को आता था, कई बार ख़ाली दीवारों से लिपट के सिसकियाँ भी भरती, मगर ना जवाब आया और ना उसे क़रार मिला।

यादों के झरोखे से

चौधरी परिवार की जडें उत्तर प्रदेश के सासनी से हैं और डिम्पल का बचपन भी उसी छोटे से कस्बे में छोटी सोच के बीच संघर्ष करते हुए गुज़रा। ज़िंदग़ी की धूप-छाँव में डिम्पल के 33 बसंत गुजर गए लेकिन उसका परिवार अब भी सावन जैसा है। तकलीफ़ों की धूँप में दरख़्त जैसा खड़ा रहता है, अड़ा रहता है। माँ ‘मिथिलेश’, घरेलू महिला हैं, जिन्होंने ऐसे दिन भी देखे हैं कि जब उन्हें 10 रुपए भी छिपा कर संदूक में रखने होते थे ताकि अगले दिन के लिए कुछ बचा रह जाए।

डिम्पल ने बताया कि वो माँ ही है जिसने घर बनाने का बड़ा फ़ैसला लिया और एक-एक ईंट खुद अपने बच्चों के साथ मिलकर लगाई। दूसरी तरफ़ बेहद सीधे-साधे पिता ‘अशोक सिंह’ जिन्होंने ज़िंदगी के 35 साल अपने ट्रक के पहियों में हिंदुस्तान की सड़कें नापीं और पुराने हिंदी गानों के साथ मुसाफ़िर की तरह बस चलते रहे।

डिम्पल बताती हैं, “मैं जाट परिवार से हूँ, बचपन बेहद कश्मकश और ग़रीबी में गुज़रा। हम तीन बहनें और एक भाई हैं। हमारे यहां लड़कियां मारी या हिकारत की नजर से नहीं देखी जाती थीं, हालांकि लड़की को लड़की की तरह होना चाहिए, इस पर भी पूरा परिवार, मुहल्‍ला और गाँव वैसे ही एकमत था, जैसे पूरा देश था। लड़की को प्‍यार दो, लेकिन लड़की होने के नियम क़ानून भी बता दो।”

लेकिन वो अलग थी, बचपन से ही! और जो वो आज है उसकी झलक उस ज़माने में भी देखने को मिल जाती थी। दूसरी लड़कियों की तरह उसे गुड्डे-गुड़ियों के खेल में कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही। वो घर में तो होती थी, लेकिन उसका मन घर के सामने वाले बड़े से चौक में खेल रहे लड़को के खेल में लगा रहता। जैसे ही मौका मिलता लपक कर खेलने पहुंच जाती और जब लौटकर घर आती तो माँ का गुस्सा झेलना पड़ता। कभी-कभी तो पिटाई भी हो जाती थी। सिर्फ खेल कूद ही नहीं, बल्कि डिम्पल ने बचपन से ही खुद को कभी भी लड़कियों वाले कपड़ो में सहज महसूस नहीं किया। हँसते हुए बताती है कि उसकी नज़र हमेशा उसके भाई के पैंट-शर्ट पर रहती थी। वो पढ़ाई में हमेशा अव्वल होने के साथ-साथ बेहद संवेदनशील रही।

पिता अशोक सिंह और माँ मिथिलेश के साथ डिम्पल

बचपन के दिनों को याद करते हुए डिम्पल बताती हैं कि “स्कूल में लड़कियों से घिरा रहना याद है मुझे, मगर तब अपने सही और ग़लत होने वाले समाज के थोपे गए दकियानूसी ख़याल मारते नहीं थे। बस अहसासों का हाथ पकड़कर ज़िंदगी मुझे बड़ा होना सिखा रही थी और समाज मुझे याद दिलाता रहता था कि कुछ तो ग़लत है मुझमें।”

डिम्पल ने अपने पिता से सीखा है कि कोई भी काम छोटा या बड़ा या शर्म का नहीं होता, बस उसमें अपनी मेहनत और ईमानदारी झोंक दो। वो पिता जो उसके लिए महज़ पिता नहीं, बल्कि ऐसा बरगद है जिसने अपनी लगभग आधी उम्र बिना थके, बिना रुके चौधरी परिवार को सींचने में ख़र्च दी।

बचपन को याद करते हुए उसने बताया कि वो एक ऐसे परिवार से है जहाँ पिता से खुलकर बात नहीं करते, माँ से सारी खबरें पिता तक पहुँचतीं थीं। मगर ये कड़ी तब टूटी जब डिम्पल ने को-एड कॉलेज में दाख़िला लेने का मन बनाया, जिसके सब ख़िलाफ़ थे। फ़ैसला तो कर लिया था लेकिन फॉर्म भरने से लेकर कॉलेज पहुँचने तक का सफर किसी जंग से कम नहीं था। एक तो जाट परिवार से और दूसरा ये कि ऐसी जगह जहां बिना दुपट्टे वाली लड़की को ‘बैड करैक्टर’ का सर्टिफिकेट देने वाले हमेशा ताक़ में खड़े रहते थे। ऐसे में फॉर्म तो मंगवा लिया था लेकिन जब पिता से दस्तख़त माँगे तो उन्होंने फाड़ कर फेंक दिया।

थोड़ी भावुक होकर उस दिन की यादों में खोयी डिम्पल बोली, “उस दिन पिता से पहली बार किसी ने अपने हक़ की बात की। मैंने उनसे कहा कि पापा आपकी ज़िंदगी से मैंने बहुत सीखा है। मैं घर के चूल्हे चौके से भी आगे की दुनिया देखना चाहती हूँ, बाहर की दुनिया आपकी दुआएँ लेकर के देखना चाहती हूँ – मुझे पढ़ने दो। वक़्त के साथ पढ़ाई और लेखन में जब उन्हें मेरा नाम अख़बारों में दिखने लगा तब रिश्तेदारों के मुँह भी बंद होने लगे। राइफल और पिस्तौल शूटिंग में कई इनाम जीते और जब स्टेट लेवल शूटिंग चैम्पियनशिप के लिए दिल्ली में गोल्ड मेडल मिला तो वो दिन था और आज का दिन है, उन्होंने कभी मेरा साथ नहीं छोड़ा।”

‘आदर्श महिला’ की परिभाषा

दिल्ली प्राइड के दौरान तसवीरें खींचती डिम्पल

समाज की बनायी ‘आदर्श महिला’ की परिभाषा को डिम्पल बचपन से चुनौती देती आयी है। उसका मानना है कि हम उस समाज में रहते हैं जहाँ अगर लोगो को कुछ समझ नहीं आता, तो उनकी परिभाषा में वो ग़लत है। औरत की जिस ब्रा की स्टेप को देखकर समाज फबतियाँ कसता है, आदमी के अंडरवीयर को वो उन्हीं फ़ब्तियों की खूँटी पर शान से सुखाता है। डिम्पल को ऐसे समाज की आदर्श महिला बनने से ऐतराज़ है, जो उसकी पसंद या परवाह को ताक पर रखकर उसे सराहे या स्वीकारे।

वो मुश्किल दौर – संघर्ष भरा सफ़र

दिल्ली प्राइड के दौरान अपनी तस्वीरों पर चर्चा करते हुए

पत्रकार, कवयित्री, लेखिका, तस्वीरबाज़, बाइकर, LGBTQ एक्टिविस्ट – अपनी पेशेवर ज़िंदगी में डिम्पल ने बहुत उतार-चढ़ाव देखे।

‘अलग लेकिन गलत नहीं’, वाली सोच के साथ वो हर चुनौती का सामना अपने ही निराले अंदाज़ में करती रही। लिखने में रूचि होने के कारण उसका रुझान पत्रकारिता की ओर बढ़ा। लेकिन करियर की पहली ही सीढ़ी पर उसे जीवन के वो सबक मिले, जिन्होंने उसके होंसलो को और भी मज़बूत बना दिया।

अपने पत्रकारिता के दिनों के अनुभव को साझा करते हुए डिम्पल ने बताया कि “अपनी सेक्शुयालिटी को लेकर ख़ून के आंसू थूके हैं मैंने, जहां किसी छूआछूत की बिमारी की तरह मेरी सेक्शुयालिटी को लेकर लोग क़सीदे गढ़ते थे। खैर कई सालों की पत्रकारिता के बाद आख़िरकार इस उत्पीड़न के ख़िलाफ़ F.I.R. की और उनके माफ़ीनामे के बाद पत्रकारिता छोड़ दी।”

पत्रकारिता तो छोड़ दी और कभी नौकरी ना करने का मन भी बना लिया, लेकिन उसे चुनौतियाँ हर जगह लगभग एक जैसी मिली। मगर उसने सबके साथ खुद का वैसा ही होना चुना जैसी वो है। 

जब डिम्पल ने बाइकिंग शुरू की तो उसे एक ऐसा अलग परिवार मिला जिसने जीने की उम्मीद और अलग होने की सच्चाई को ताक़त दी। यहाँ ऐसी रूहें मिलीं जिन्होंने ना सिर्फ़ उसका बल्कि उसके जैसे होने की परिभाषा को बाहें खोल कर अपनाया और अपने दिलों में रज रज के रखा।

देखते ही देखते वक़्त बीत गया और संघर्ष करते करते, आज वो खुद को एक सफ़ल और मशहूर फोटोग्राफर के तौर पर स्थापित कर चुकी है, जिसकी तस्वीरों की प्रदर्शनी दुबई और एम्स्टर्डम तक हो चुकी है।

अपनी बाइकर गैंग के साथ दी अनसूटेबल गर्ल

दिलवालों की दिल्ली में मिला सतरंगी परिवार

दिल्ली आने के बाद जब अपने ही जैसे लोगों के बीच उठने बैठने का मौका मिला तो उसे महसूस हुआ कि उसके जैसे इश्क़ करने वाले इतने ज़िंदा चेहरे भी हैं दुनिया में, जो एक दूसरे का परिवार हैं। एक ऐसी दुनिया जहां ये बाहर वाली दुनिया के ख़ौफ़ से मरने का डर निकाल फेंकते हैं।

“ऐसे Queer इवेंट्स में मुझे अपनी कविताओं से पहचान मिली और धीरे-धीरे मेरी कविताएं, लोगों की शक्लों पर उम्मीद और आज़ादी का मिज़ाज लाने लगीं, और जब वो कस के गले लगाकर अपना-अपना सुकून बाँट देते थे तो मेरा चेहरा उनके दिलों में धड़कने लग गया। दरअसल सच तो ये है कि वही लोग किसी को मुहब्बत बाँट सकते हैं जिनके दिल पहले से ही मुहब्बत से भरे हों, और उन सबके दिल भरे हुए थे। हर शख़्स को मैंने भरपूर इत्मिनान और बिना सवाल के गले लगाया, जो जैसा है उसमें इश्क़ ढूँढा और अपना बाँट दिया, बस मुहब्बत मिलती रही और जाने कब मैं ये बन गया जो अब हूँ।”

बाइकर डिम्पल मिथिलेश चौधरी

डिम्पल ,दिल्ली के LGBTQ समुदाय का एक प्रमुख युवा चेहरा है, जिसने हर आंदोलन में अहम् भूमिका निभाते हुए समुदाय के लोगो के साथ कंधे से कंधा मिला कर संघर्ष किया। चाहे हिजड़ा हब्बा हो, मुम्बई और आगरा में LGBTQ फैशन शो हो, कॉलेज या यूनिवर्सिटी के कार्यक्रमों में बतौर मेहमान शामिल होना हो, अपने किन्नर दोस्तों के लिए उनकी एक आवाज़ पर उनके साथ होना हो या किसी भी मंच से दुनिया को चीख-चीखकर ये बता देना कि हम सब की आज़ादी पर किसी और का नहीं, सिर्फ़ हमारा हक़ है।

इश्क़ की बात करें तो हर किसी की अपनी-अपनी कहानियाँ हैं। डिम्पल का दावा है कि उसने जब भी इश्क़ किया रज के किया, बेख़ौफ़ किया लेकिन उसकी सभी माशूक़ाएँ एक वक्त पर आकर अपनी-अपनी मुहब्बत समेट कर किसी और पंछी के साथ उड़ गईं।

डिम्पल बताती हैं, “मेरे रिश्तों में साफ़गोई की चमक रही हमेशा, जिसका हूँ दुनिया के सामने हूँ। अगर दुनिया इस काबिल है कि मुझे मोहब्बत कर सके तो करे। यक़ीनन मुझे तकलीफ़ होती रही, हर बार दिल धक्क से टूट जाने की। मगर हाँ, अपनी माशूकाओं से ना कभी नफ़रत कर पाया, ना शिक़यत। क्योंकि सबकी अपनी पसंद है और दिल तोड़ जाने की शायद फेंटसी भी, तो जानेमन दुआ में रहेंगी मगर मुझे भी ख़ुद से इश्क़ करना आता है। फ़िलहाल सिंगल हूँ, खुश हूँ, मलँग हूँ और आज़ाद भी। इसका एक फ़ायदा ये भी है कि अब सबसे भरपूर इश्क़ करने की आज़ादी है।”

और बन गयी एक ट्रक ड्राइवर की बेटी मॉडल

डिम्पल की मॉडल बहन – प्रतिभा

जब छोटी बहन प्रतिभा चौधरी मॉडल बनी तो उसकी कहानी ने मीडिया में खूब सुर्खियां बटोरीं। एक ट्रक ड्राइवर की बेटी का मॉडल बन जाना मीडिया के लिए एक मसालेदार ख़बर थी। लेकिन इस खबर से डिम्पल की भावनाएं जुड़ी हैं, जिसने अपनी छोटी बहन के सपने को पूरा करने के लिए सूत्रधार का काम किया। सोशल मीडिया से लेकर प्रोडक्शन हाउस या मॉडलिंग एजेंसी तक अपनी बहन के लिए उसने जमकर हाथ पैर मारे। जहां-जहां मुमकिन हुआ उसकी तस्वीरें भेजने से लेकर मीटिंग्स तक दिन रात एक कर दिया।

प्रतिभा को जब पहला बड़ा ऑफर मिला तो ख़ुशी और चिंता की मिली-जुली भावनाओं को साझा करते हुए डिम्पल ने कहा, “जब उसे दुबई का ऑफ़र मिला, तब साँस थमी हुई थी। आख़िर कैसे उसे पराए देश में महीनों तक यूँ अकेले छोड़ पाने का साहस जुटा पाती? 3 महीने लगे और आख़िरकार फ़ैसला लिया कि अब उसे अकेले सफ़र तय करना चाहिए, आख़िर उसकी दुनिया बदलने के इस बेहतरीन मौक़े को अब सच बनाना था। हम दोनों बहनें एक दूसरे के लिए ज़िंदग़ी के सिरे जैसे हैं, उसके बिना मुझे और मेरे बिना उसे साँस कहाँ आती है। मैं लड़खड़ाता हूँ तो बच्चे की तरह बाहों में भर कर संभाल लेती है पगली।”

एक हादसे में डिम्पल घायल हो गयी थी, हॉस्पिटल की चार दीवारों के बीच जब होश आया तो देखा कि प्रतिभा उसका हाथ थाम कर बग़ल के सिरहाने माथा टिकाए हुए है। उसने उसके सिर पर हाथ फेरा ही था कि उठ कर बोलती है “दादा सुन, मैं भी शादी नहीं करूँगी और हमेशा तेरे साथ रहूँगी, दोनों एक दूसरे का ख़याल रखेंगे किसी की ज़रूरत नहीं है हमें”। और दोनों की थोड़ी सी मुस्कुराहट के साथ आंसू छलक पड़े।

संपादन- पार्थ निगम

यह भी पढ़ें- जिंदगी जोखिम में डालकर लड़कियों को मानव तस्करी से बचा रही है पिता-बेटी की जोड़ी!

यदि आपको इस कहानी से प्रेरणा मिली है, या आप अपने किसी अनुभव को हमारे साथ साझा करना चाहते हो, तो हमें hindi@thebetterindia.com पर लिखें, या Facebook और Twitter पर संपर्क करें। आप हमें किसी भी प्रेरणात्मक ख़बर का वीडियो 7337854222 पर व्हाट्सएप कर सकते हैं।

Exit mobile version