सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट का ‘मास्टर ब्लास्टर’ कहा जाता है, तो वहीं जब भी बास्केटबॉल की बात हो, तो ‘स्कोरमशीन’ खुशीराम का नाम सबसे पहले आता है। साथ ही, हॉकी के उस्ताद मेजर ध्यानचंद और फुटबॉल के ‘रोनाल्डो’ जरनैल सिंह ढिल्लों को भी कोई नहीं भूल सकता।
ऐसा ही एक नाम है, जिम्मी जॉर्ज, जिन्हें अगर भारत में वॉलीबॉल का ‘बादशाह’ भी कहा जाए, तो शायद गलत नहीं होगा। वॉलीबॉल के विश्व मैप पर भारत को सफ़लता के नये आयाम तक पहुँचाने वाले इस खिलाड़ी का आज तक कोई सानी नहीं हुआ।
8 मार्च 1955 को केरल में मालाबार क्षेत्र के पेरावूर में जन्मे जिम्मी जॉर्ज, वॉलीबॉल खिलाड़ियों के परिवार से ही संबंध रखते थे। उनके पिता यूनिवर्सिटी लेवल के वॉलीबॉल खिलाड़ी थे। उन्होंने ही जिम्मी और उनके सात भाईयों को वॉलीबॉल खेलना सिखाया था।
आठ भाइयों में दूसरे, जिम्मी बहुत बार अपने सभी भाईयों की एक ही टीम बनाकर, तो कभी अलग-अलग टीम में एक-दूसरे के आमने-सामने खेलते।
बचपन से ही वॉलीबॉल के खेल में जिम्मी अपने सभी भाईयों में सबसे आगे रहे। साल 1971 में मात्र 16 साल की उम्र में उन्होंने केरल राज्य टीम में अपनी जगह बना ली थी। इसके बाद, अलग-अलग टूर्नामेंट्स में उन्होंने 9 बार केरल का प्रतिनिधित्व किया।
उन्हें आज भी उनके कूदने और हवा में उछलने के तरीकों के लिए याद किया जाता है। कहते हैं कि शायद गुरुत्वाकर्षण के नियम जिम्मी के मामले में काम नहीं करते थे। वे ज़मीन से 1 मीटर से भी ज़्यादा ऊँचा उछल सकते थे। साथ ही, वे बाकी सब खिलाड़ियों से कुछ पल ज़्यादा हवा में ठहर सकते थे। जो भी उन्हें उछलकर पूरे फ़ोर्स के साथ बॉल को शॉट करते हुए देखता था, बस देखता रह जाता था।
बेहतरीन वॉलीबॉल खिलाड़ी होने के आलावा जिम्मी एक अच्छे तैराक भी थे। उन्होंने अपनी पढ़ाई के दिनों में तैराकी प्रतियोगिताओं में भी 4 गोल्ड मेडल जीते थे। पर वॉलीबॉल के लिए उनका जुनून कुछ अलग ही था।
जिम्मी एक मेडिकल छात्र थे, पर 1976 में उन्होंने पढ़ाई छोड़कर केरल पुलिस फाॅर्स ज्वाइन कर ली। हालांकि, अपने खेल के चलते वे अक्सर ड्यूटी से छुट्टी लेते रहते थे। साल 1979 से, एक रूसी कोच के सुझाव पर, उन्होंने वॉलीबॉल को प्रोफेशनल तौर पर खेलना शुरू किया।
उनका अंतर्राष्ट्रीय क्लब करियर अबू धाबी स्पोर्ट्स क्लब के साथ शुरू हुआ। बाद में, उन्होंने इटली के क्लब के साथ भी कॉन्ट्रैक्ट किया। इटली में अपने छह टूर्नामेंट्स में ही, उन्होंने एक ख़ास पहचान बना ली थी।
साल 1974 के तेहरान एशियाई खेलों के बाद जिम्मी, बैंकोक (1978) और सियोल (1986) में हुए एशियाई खेलों में भी भारत की राष्ट्रीय वॉलीबॉल टीम के लिए खेले। सियोल एशियाई खेलों में भारत ने कांस्य पदक जीता। साल 1985 में सऊदी अरब में खेलने गई भारतीय टीम के वे कप्तान थे, और 1986 में हैदराबाद में हुए इंडिया गोल्ड कप इंटरनेशनल वॉलीबॉल टूर्नामेंट में भारतीय टीम को उन्होंने ही जीत दिलाई थी।
वॉलीबॉल के खेल में उनके योगदान के लिए, मात्र 21 साल की उम्र में भारत सरकार ने उन्हें अर्जुन अवॉर्ड से नवाज़ा।
इसके अलावा, अबू धाबी स्पोर्ट्स क्लब के साथ उनके बेहतरीन प्रदर्शन के लिए, उन्हें गल्फ रीजन में सबसे अच्छा खिलाड़ी माना गया।
फिर एक दौर आया, जब न सिर्फ़ भारत, बल्कि पूरी दुनिया में लोगों की जुबान पर जिम्मी का नाम था। लोग जिम्मी से और उनके खेल से इतना प्यार करते थे कि वे चाहे कहीं भी खेलें, उनका खेल देखने के लिए स्टेडियम भर जाता था।
वॉलीबॉल खेल का यह लीजेंड अपनी किस्मत में बेशुमार प्यार और शोहरत तो लाया था, पर इस शोहरत को जीने के लिए उम्र नहीं। साल 1987 में, जिम्मी अपने एक टूर्नामेंट के लिए इटली गये थे और यहीं पर एक कार दुर्घटना में उनका निधन हो गया।
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जिम्मी की मौत की ख़बर, न सिर्फ़ उनके परिवार और देश के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए चौंका देने वाली थी। उनके गाँव पेरावूर में हज़ारों लोग उनके अंतिम दर्शन के लिए आये थे। तो वहीं दूसरी तरफ, इटली में बहुत सम्मान के साथ उनकी याद में एक इंडोर स्टेडियम बनवाया गया।
केरल में भी जिम्मी के नाम पर एक स्टेडियम बनाया गया और कन्नूर के पुलिस मुख्यालय में कॉन्फ्रेंस हॉल को भी उनका नाम दिया गया। जॉर्ज परिवार ने उनकी याद में ‘जिम्मी जॉर्ज फाउंडेशन’ की स्थापना की और अब यह फाउंडेशन केरल के बेहतरीन खिलाड़ियों को ‘जिम्मी जॉर्ज अवॉर्ड’ से सम्मानित करती है।
जिम्मी जॉर्ज ने भारतीय वॉलीबॉल को एक वक़्त पर उसका ‘स्वर्णिम दौर’ दिया था। उनसे पहले और अब उनके बाद, शायद ही कोई वॉलीबॉल खिलाड़ी है, जो उनके स्तर को छू भी पाया हो। बेशक, आने वाली हर एक पीढ़ी इस महान खिलाड़ी की ऋणी रहेगी, क्योंकि जब भी विश्व में वॉलीबॉल के बारे में चर्चा होती है, तो भारत के जिम्मी जॉर्ज का नाम ज़रूर शामिल होता है।
( संपादन – मानबी कटोच )