आज पूरे विश्व में हमारे देश की पहचान बनाने में खेल और खिलाड़ियों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत ने न सिर्फ़ दूसरे देशों के खेलों पर महारत हासिल की है, बल्कि अपनी विरासत को भी सहेजकर रखा है। जितना हमारे देश को क्रिकेट ने ऊँचा उठाया है, उतना ही नाम भारत की मिट्टी से जन्मी ‘कुश्ती’ ने भी पूरे विश्व में कमाया है।
शतरंज की ही तरह ‘कुश्ती’ का खेल भी हमारे देश ने ही संसार को दिया। ओलिंपिक खेलों में भी कुश्ती की शुरुआत बहुत पहले हो गयी थी। साल 1896 में जब ओलिंपिक खेलों की शुरुआत हुई, तो उस समय निश्चित किये गए 9 खेलों में से ‘कुश्ती’ भी एक थी।
उसी समय से भारत के पहलवान इस खेल में देश का नाम रौशन करते आ रहे हैं। ये पहलवान न सिर्फ़ अपने देश के लिए बल्कि अन्य देशों के पहलवानों के लिए भी प्रेरणा हैं। कुश्ती की दुनिया का एक ऐसा ही प्रेरणात्मक नाम हैं ‘महाबली’ सतपाल सिंह!
सतपाल सिंह ने इस खेल में न सिर्फ़ खुद नाम कमाया, बल्कि दुनिया के नक्शे पर सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त जैसे न जाने और भी कितने भारतीय पहलवानों को खड़ा किया है।
1 फ़रवरी 1955 को दिल्ली के बवाना गाँव में जन्मे सतपाल सिंह की ट्रेनिंग मशहूर गुरु हनुमान के अखाड़े में हुई। सतपाल के पिता कभी भी नहीं चाहते थे कि सतपाल एक रेसलर बने, क्योंकि सतपाल बचपन में पढ़ाई में बहुत अच्छे थे और उनके पिता चाहते थे कि वे पढ़ाई पर ही ध्यान केन्द्रित करें।
पर शायद किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था। एक दिन स्कूल में सतपाल की लड़ाई किसी और लड़के से हो गयी और इसमें उन्हें काफ़ी चोट आई। इस घटना से प्रभावित होकर उनकी माँ ने जिद्द की, कि सतपाल को भी अखाड़ा ले जाया जाए और वे कुश्ती के दांव-पेंच सीखें; ताकि फिर कोई उनके बच्चे से न भिड़े।
सतपाल ने बताया कि कुश्ती के लिए उनकी सबसे पहली पाठशाला उनके गाँव में एक तालाब के पास का खुला मैदान था। यहाँ पर एक साल तक अभ्यास करने के बाद उन्होंने दिल्ली का प्रसिद्द ‘गुरु हनुमान अखाड़ा’ ज्वाइन किया। यहाँ से सतपाल का सफ़र कुश्ती के महान गुरु हनुमान सिंह के शिष्य के रूप में शुरू हुआ और आज उन्हें खुद ‘कुश्ती के द्रोणाचार्य’ के नाम से जाना जाता है।
उन्होंने कुश्ती में अपना करियर 35 किलोग्राम वेट कैटेगरी से शुरू किया, जो कि आगे चलकर 100 किलोग्राम कैटेगरी तक पहुँचा। अपने करियर में उन्होंने 3, 000 से भी ज्यादा छोटे-बड़े मुकाबलों में जीत हासिल की। 16 बार वे नेशनल हेवी-वेट चैंपियन रहे हैं।
एक वक़्त था जब सतपाल सिंह एक ही दिन में लगभग 21 कुश्ती के मैच लड़ा करते थे।
उन्होंने तीन बार एशियाई खेलों में और पाँच बार कॉमनवेल्थ गेम्स में रेसलिंग चैंपियनशिप में मेडल जीत कर देश का नाम रौशन किया है। वर्ल्ड रेसलिंग चैंपियनशिप में भी उन्होंने समय-समय पर भाग लिया।
साल 1981 में उन्होंने अपने करियर का सबसे लम्बा मैच खेला। बेलगाम में हुए एक कुश्ती के मुकाबले में वे उस समय के महाराष्ट्र केसरी और रुस्तम-ए-हिंद पहलवान, दादू चौगुले के सामने उतरे। यह मुक़ाबला पूरे 40 मिनट चला।
सतपाल बताते हैं,
“उस समय की कुश्ती और अभी की कुश्ती के खेल में बहुत फर्क आया है। अब यह बहुत तेज़ी से होती है। सिर्फ़ 2- 2 मिनट के राउंड होते हैं, पर उस समय यह लगभग 40 मिनट तक चला। पर आख़िर में, मैंने उन्हें हरा दिया।”
हालांकि, उनका सबसे कम समय का मैच बनारस में एक पाकिस्तानी पहलवान के खिलाफ़ हुआ था। यहाँ उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी को मात्र 5 सेकंड में धूल चटा दी थी।
साल 1982 में जब उन्होंने एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता, तो पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने उन्हें ‘महाबली’ नाम दिया।
‘महाबली’ सतपाल सिंह कई बार ‘भारत केसरी’ और ‘रुस्तम-ए-हिंद’ भी रहे। कुश्ती से रिटायर होने के बाद भी, उनका और अखाड़े का रिश्ता कभी भी खत्म नहीं हुआ। उन्होंने अपने गुरु हनुमान की परम्परा को आगे बढ़ाया और कुश्ती की भावी पीढ़ी का जिम्मा अपने कंधों पर ले लिया।
उन्होंने दिल्ली में छत्रसाल अखाड़े की शुरुआत की, जहाँ वे वर्षों से युवा पहलवानों को पूरे समर्पण के साथ कुश्ती सिखाते हैं। उन्हें कुश्ती में प्रशिक्षित करने के अलावा, उनके खाने-पीने और अन्य ज़रूरतों का ख्याल भी सतपाल सिंह रखते हैं। उनके शिष्यों में विश्व चैंपियन सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त का भी नाम शामिल है।
कुश्ती के लिए उनके इस समर्पण को देखते हुए ही उन्हें समय-समय पर भारत सरकार ने कई सम्मानों से नवाज़ा है। साल 1974 में उन्हें उनकी उपलब्धियों के लिए अर्जुन पुरस्कार से नवाज़ा गया, तो साल 1983 में उन्हें पद्म श्री मिला। इसके आलावा कुश्ती के खेल को हर बार बेहतर से बेहतर खिलाड़ी देने के लिए उन्हें साल 2009 में द्रोणाचार्य पुरस्कार और साल 2015 में पद्म भूषण मिला।
फ़िलहाल, सतपाल सिंह दिल्ली सरकार में फिजिकल एड्युकेशन डिपार्टमेंट और स्कूल गेम्स फेडेरेशन ऑफ इंडिया से जुड़े हुए हैं। वे स्कूली स्तर पर कुश्ती को आगे बढ़ा रहे हैं ताकि आने वाली पीढ़ी भी भारत का नाम इसी तरह विश्व-स्तर पर आगे बढ़ाती रहे।
( संपादन – मानबी कटोच )