भारत में हॉकी का अगर कोई दुसरा नाम है तो वह है – मेजर ध्यानचंद। तनाव पूर्ण स्थिति में भी वे ऐसे गोल करते थे कि आज भी भारतीय हॉकी में कोई उनका मुकाबला नहीं कर सकता है।
इस महान खिलाड़ी के सम्मान में उनके जन्मदिवस को ‘राष्ट्रीय खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।
इलाहबाद से ताल्लुक रखने वाले ध्यानचंद ने 16 साल की उम्र में भारतीय सेना में भर्ती हुए और यहीं से उनका सफ़र शुरू हुआ, जो राष्ट्रीय सुरक्षा बल के गलियारों से ओलिंपिक के मैदान तक पहुंचा।
वैसे तो मेजर ध्यानचंद के बारे में बहुत-सी कहानियाँ मशहूर हैं, उनके खेल के बारे में, उनके नेतृत्व के बारे में और जब वे ओलिंपिक खेलों में तूफ़ान मचाया करते थे उस समय के बारे में। लेकिन एक और दिलचस्प किस्सा है उनकी ज़िन्दगी का जिसके बारे में शायद ही किसी को पता हो।
किस्सा उस समय का है जब हॉकी का यह महान खिलाड़ी विश्व में मशहूर नाज़ी तानाशाह एडॉल्फ हिटलर से मिला, इस वाकये को शायद ही कोई भूल पाए!
साल 1936 – बर्लिन ओलिंपिक में हॉकी टूर्नामेंट का आखिरी मैच
आमने-सामने हैं भारत और जर्मनी की टीम। वहां बैठे हर एक दर्शक की नजर खेल से हट नहीं रही थी क्योंकि लोग हैरान थे कि कैसे भारतीय हॉकी टीम के कप्तान ने जर्मनी के छक्के छुड़ा रखे हैं।
आख़िर में जीत भारत की हुई वह भी पूरे सात गोल ज़्यादा मारकर। मैच के दौरान एक जर्मन खिलाड़ी ने अपना दांत खो दिया और मैच हारने के बाद उनका कप्तान गुस्से में बाहर चला गया। लेकिन एक और शख्स की नजर इस खेल पर थी और वह थे एडोल्फ हिटलर।
कहा जाता है कि इस खेल में ध्यान चंद की महारत से प्रभावित होकर हिटलर ने उन्हें जर्मन नागरिकता से साथ-साथ जर्मन सेना में एक ऊँचे पद की पेशकश की थी।
एक सच्चे देशभक्त ध्यानचंद ने जर्मनी पर राज करने वाले इस तानाशाह की पेशकश को ठुकरा दिया और अपने देश में ही रहने का फ़ैसला किया।
आज हम इस घटना के बारे में भले ही कितने भी आराम से बात कर लें, लेकिन उस वक़्त अगर एक भी गलत शब्द कहा गया होता तो स्थिति कुछ और हो जाती। हिटलर की गिनती उन लोगों में होती थी, जो अपने से असहमत होने वाले लोगों को मरवाने में एक पल भी नहीं लगाते थे। लेकिन ध्यानचंद ने अपनी सूझ-बूझ से इस बात को संभाला लिया।