सीता का पहले अपहरण किया गया, फिर बलात्कार किया गया और फिर उसे रेल की पटरी पर मरने के लिए छोड़ दिया गया. पर इसके बाद अपनी ही माँ द्वारा ठुकराई हुई सीता ने इस विद्यालय मे एक नया जीवन पाया जहाँ उसी की तरह दुर्भाग्यपूर्ण लड़कियो को सपने देखने का और अपने जीवन की नयी शुरूवात करने का मौका दिया जाता है
व्हील-चेयर पर बैठी २० वर्षीय सीता साहस और ढुद संकल्प की एक अद्भुत मूर्ति है. उसके चेहरे का तेज और मुस्कान देखकर कोई ये अंदाज़ा भी नही लगा सकता की राजस्थान के चित्तौरगर जिलहे के छोटे से गाँव फतेहपुरा से आई यह साधारण सी दिखने वाली लड़की किस नर्क से गुज़र कर आई है. अपहरण! सामूहिक बलात्कार! विकलांगता! और फिर परित्यक्त!! – इस छोटी सी उमर मे सीता ने इन सारे भयानक स्थितियो का बेहद हिम्मत से मुकाबला किया है तथा एक सशक्त व्यक्तित्व के रूप मे उभर कर आई है. ना केवल उसने अपने साथ दुष्कर्म करने वाले उन आरोपियो को सज़ा दिलवाई बल्कि आज वह अपने जीवन को बिल्कुल नये सिरे से दुबारा शुरू करने की पुरज़ोर कोशिश कर रही है.
सीता के साथ ये सब होने से पहले वह अपनी विधवा माँ की आर्थिक मदत के लिए एक देहाडी मज़दूर का काम करती थी. एक बार उसकी अपने किसी सहकर्मी के साथ किसी बात को लेकर झड़प हो गयी. जिसके बाद उस सहकर्मी ने उसे सबक सिखाने की धमकी दे डाली. उस वक़्त भी साहसी सीता इन बातो से नही डरी तथा उसने उस सहकर्मी को जो मर्ज़ी आए वो करने को कहा.
हमारे पुरूषप्रधान समाज मे किसी महिला द्वारा इस तरह बेझिझक बोलने पे, इस पुरूष का अहम आहत हो गया और उसने अपने कुछ साथियो के साथ,जिनमे से एक फतेहपुरा गाँव का सरपंच भी था ,को लेकर काम से वापस आ रही सीता को अगवा कर लिया. सीता के लिए ये तो मुसीबतो की एक शुरूवात भर थी. ये राक्षस जैसे लोग उसका सिर्फ़ अपहरण करने पर नही रुके. उन्होने चलती गाड़ी मे कई घंटो तक सीता का बलात्कार किया. और फिर इस डर से की कही वह पुलिस मे उनकी शिकायत ना कर दे, उन्होने बेहोश सीता को रेल की पटरियो पर मरने के लिए फैंक दिया.
सीता शायद मर ही जाती, यदि उस रात ट्रेन-चालक ने उसे समय रहते देखा ना होता. पर दुर्भाग्यवश जब तक उन्होने सीता को देखा तब तक उसके पैर इंजिन के पहियो के नीचे आ चुके थे. पर इस भले मानस ने सीता को तुरंत उदयपुर के अस्पताल मे पहुँचाया, जहा उसका ३ माह तक इलाज चलता रहा. सीता की यहाँ जान तो बच गयी पर बदक़िस्मती से उसके पाँव काटने पड़े. इसी दौरान सीता के साथ दुष्कर्म करने वाले आरोपियो पर मुक़दमा चला तथा उन्हे सलाँखो के पीछे डाल दिया गया. इस मुश्किल वक़्त मे सीता की माँ उसका ख्याल रखने लगी. अस्पताल से छुट्टी मिलने के बाद सीता की माँ उसे दुबारा घर ले गयी.
पर बदक़िस्मती से सीता की माँ का प्यार और अच्छा व्यवहार जल्द ही इस सच्चाई के नीचे दब गये की सीता अब एक विकलांग है और वो अपनी माँ की ज़िम्मेदारियाँ बढ़ाने के अलावा और किसी काम नही आ सकती.
“मेरे लिए ये जानना बहोत दुखदायी था की मेरे लिए मेरी माँ का प्यार निस्वार्थ नही है. मैं उनके लिए अब बोझ बन गयी थी और और उन्हे सिर्फ़ पैसो से प्यार था. मुझे मिले मुआफ़ज़े की २ लाख रुपये की रकम को वे हड़प लेना चाहती थी. यही नही, उन्हे ये भी लगता था की ये रकम एक अपंग लड़की की उम्र भर देखभाल करने के लिए काफ़ी नही है. इसलिए वे उन लोगो को जेल से निकलवाने के लिए सौदा करने लगी जिनकी वजह से मैं बर्बाद हुई थी. और जब मैने उनके खिलाफ केस वापस लेने से इनकार कर दिया तो उन्होने मुझे ही छोड़ दिया.” , सीता ने अपनी आपबीती कुछ इस तरह सुनाई. हालाँकि उसके मन की पीड़ा एक बार भी उसकी आवाज़ मे कंपन ना ला सके.
कहते है मुसीबते इंसान को बहोत कुछ सीखा देते है. सीता को भी उसकी मुसीबते हर मुश्किल का डटकर मुकाबला करना सीखा गयी. अपने अधिकारो को जानने वाली और किसीसे ना डरने वाली सीता ने अपनी माँ के खिलाफ भी थाने मे शिकायत दर्ज़ कर दी. पर सीता के सामने एक चुनौती अब भी खड़ी थी. उसके पास रहने का कोई ठिकाना नही था. और क्युकि चित्तौरगर मे महिलाओ के रहने के लिए कोई भी आश्रय घर नही था, इसलिए पुलिस उसे ‘प्रयास’ नामक एक गैर सरकारी संस्था मे ले आई. यह संस्था इस इलाक़े मे ग़रीबो को उनके स्वास्थ से जुड़े अधिकार दिलाने मे मदत करती थी. और इस तरह सीता आधारशिला आवासीय विद्यालय पहुँची जो ग़रीब, आदिवासी महिलाओ के लिए चलाया जा रहा था.
आधारशिला मे आना सीता के जीवन का सबसे खूबसूरत पड़ाव साबित हुआ. यहाँ उसका परिचय किताबो से हुआ जो उसके जीवनभर के साथी बन गये. यही नही सीता ने अपनी प्रवेश परीक्षा भी पास की और उसे पास ही के सरकारी स्कूल, कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय मे आठवी कक्षा मे दाखिला भी मिल गया.
“मैं जब स्कूल मे होती हूँ तो बेहद खुश होती हूँ. मेरे वहाँ बहोत से मित्र है. हर दिन मेरी किताबे मुझे कुछ ना कुछ नया सिखाती है. इसके साथ साथ मैं कपड़े सीना भी सीख रही हूँ, जिससे की मैं आगे चलकर आत्मनिर्भर बन सकु. फिर भी जब छुट्टियाँ होती है और बाकी की लड़कियाँ अपने अपने घर जाती है, तो मैं यहाँ आधारशिला स्कूल के हॉस्टिल मे आ जाती हूँ. और तब कई बार मुझे अपने घर की याद आती है. पर मुझे किसी भी बात का पछतावा नही है. मुझे यहाँ भी समय बिताना बहोत अच्छा लगता है.” , सीता ने मुस्कुराते हुए कहा.
संयोगवश सीता के साहस से प्रभावित होकर एक जर्मन पत्रकार ने उसे कृत्रिम पैर उपलब्ध कराये जिससे की सीता को अब चलने मे आसानी होती है.
सीता एक अकेली ऐसी लड़की नही है यहाँ. इस स्कूल मे आपको कई और ऐसी लड़कियाँ मिलेंगी जिनके संघर्ष की कहानी हमारे लिए प्रेरणास्रोत का काम करती है. २००८ मे जब निचले जाती की लड़कियो के शिक्षा स्तर को बढ़ाने के लिए इस विद्यालय की शुरूवात हुई तब यहाँ का साक्षरता दर केवल ३ प्रतिशत था. पर आज यहाँ कई ऐसी लड़कियाँ है जो शहर मे रहनेवाले अपने समकक्ष लड़कियो को जीवन का बहुमूल्य पाठ पढ़ा सकती है. आधारशिला मे रहकर इन लड़कियो को एक उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद मिलती है.
“प्रयास नामक संस्था ने यह विद्यालय, छात्रावास के साथ ही खोला है ताकि इन लड़कियो को ३ साल बाद अपनी पाँचवी कक्षा की पढ़ाई पूरी करने के लिए सरकारी स्कूल जाने से पहले औपचारिक कक्षाओ मे जाने की आदत हो जाए. इसके बाद उन्हे कस्तूरबा विद्यालय मे दाखिला मिलता है, जहाँ वे बारवी कक्षा तक पढ़ सकती है.” – आधारशिला की वॉर्डन, सुमन जी ने हमे बताया. आधारशिला इस समय ५६ बेसहारा लड़कियो का घर है.
हिन्दी, अँग्रेज़ी तथा गणित जैसे मूल विषयो को पढ़ाने के साथ साथ यहाँ कई मनोरंजक कार्यक्रमो का भी आयोजन किया जाता है जिससे की यहाँ के विद्यार्थियो का हर क्षेत्र मे विकास हो. पर ज्ञान और आत्मविश्वास प्रदान करने से भी बढ़कर एक काम जो यह विद्यालय इन बच्चियो के लिए कर रहा है वह है, इन्हे सपने देखने की आज़ादी देना.
दस साल की आरती बन्बारि के पिता नशे मे धुत होकर दो व्यक्तियो का कत्ल करने के जुर्म मे जेल मे सज़ा काट रहे है. आरती इस विद्यालय मे खूब मेहनत से पढ़ रही है ताकि एक दिन बड़ी होकर वह पुलिस अफ़सर बन सके. आरती की दोनो बड़ी बहने भी इसी आत्मविश्वास के साथ आधारशिला से निकल कर अब कस्तूरबा विद्यालय मे पढ़ रही है. पिता की मृत्यु के बाद दूसरी शादी करने के लिए अपनी ही माँ द्वारा त्यागी गयी ‘केसर’ शिक्षिका बनना चाहती है. और केसर की ही तरह शीला, ममता और रीना भी यही सपना देखती है. दस साल की विजयलक्ष्मी की माँ ने अपने बेटे और बेटी मे से बेझिझक होकर अपने बेटे को चुना. इस दर्द के साथ भी विजयलक्ष्मी आज खेल-कूद मे अव्वल आती है तथा आगे चलकर एक नर्स बनना चाहती है ताकि वो दूसरो की मदत कर सके.
आज के युग मे जहाँ सफलता के मापदंड ही कुछ और है, इन बच्चियो के ये छोटे छोटे सपने कई लोगो को बहोत साधारण लगेंगे. परंतु ऐसे बच्चो के लिए, जिनके परिवार मे किसीने आजतक विद्यालय की शक्ल तक नही देखी, ये छोटे छोटे सपने एक बहोत बड़ी उपलब्धि है. यदि ये बच्चे आगे जाकर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बन सके तो ये उस समाज मे एक बहोत बड़ा बदलाव ला सकते है जहाँ आज भी लड़कियो को स्कूल भेजना व्यर्थ माना जाता है तथा आज भी बाल विवाह जैसे रूढ़िवादी परंपरा को माना जाता है.
आधारशिला मे भी कई ऐसी बाल वधुए है जो निश्चित रूप से आधारशिला के बाहर रहनेवाली अपनी जैसी दूसरी लड़कियो से ज़्यादा भाग्यशाली है. ९ साल की पुष्पा की शादी तब कर दी गयी थी जब वह महज़ कुछ महीनो की थी. अब वो गत तीन वर्षो से आधारशिला मे पढ़ती है. जब की उसका पंद्रह वर्षीय पति अहमदाबाद मे काम करके अपना पेट पालता है. पुष्पा एक डॉक्टर बन कर अपने समाज मे बदलाव की प्रतीक बनना चाहती है. आधारशिला की अध्यापीकाओ की मदत से ११ वर्षीय नीरू ने अपने माता पिता से तब तक उसे अपने ससुराल ना भेजने के लिए आश्वस्त कर लिया है जब तक वह एक महिला पुलिस अफ़सर नही बन जाती.
सही मायने मे यह एक ऐसा स्कूल है जहाँ उम्मीदे जन्म लेती है, सपने पूरे होते है- और नन्ही बच्चियाँ सामाजिक बंधनो को तोड़कर एक आत्मविश्वास से भरपूर महिला बनना सीखती है.
यह लेख मूलतः अंनपूर्णा झा द्वारा विमन’स फीचर सर्विस (डब्ल्यू. एफ.एस) के लिए लिखा गया था और उनके सहयोग से यहाँ पुनः प्रकाशित किया गया.