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ओझा ने बताया था कि उनके बेटे में बुरी आत्मा है – और फिर शुरू हुई उनकी लड़ाई, इस अंधविश्वास के खिलाफ !

बिरुबाला – एक साठ-सत्तर साल की महिला। भारत के एक सबसे पिछड़े माने जाने वाले गाँव में रहनेवाली। बस नाम मात्र पढ़ी लिखी। आर्थिक तौर पर बेहद गरीब। और समाज की सताई हुई। पर समाज से अंधविश्वास मिटाने के लिए इस महिला ने जो करके दिखाया है उसकी आप कल्पना भी नहीं सकते। इन्द्राणी रायमेधी की लिखी और सेज (Sage) द्वारा प्रकाशित किताब ‘माय हाफ of द स्काई’ से लिए कुछ अंश से जाने भारत की इस वीरांगना की कहानी।

बिरुबाला ने सुनीला को अपनी छाती से लगाया और चिल्लाने लगी, “शर्म आनी चाहिए आप लोगो को। “क्या अब आप लोगो को ये डायन जैसी लगती है? क्या डायन का इस तरह खून बहता है? क्या डायने बेहोश होती है? अरे जाहिलो, सुनीला तुम में से ही एक है। उसे भी तुम्हारी तरह भूख लगती है। वह भी तुम्हारी ही तरह ठंडी, गर्मी, सुख, दुःख सब महसूस कर सकती है। उसके कपडे देखो जो तुम्हारे कपड़ो जैसे ही मैले कुचैले है, उसका घर देखो, जिसे तुमने जलाकर ख़ाक में मिला दिया, वो घर भी तुम्हारे घर की तरह एक छोटी सी कुटिया ही थी। अगर उसमे डायन की शक्तियां होती तो क्या वह उन्हें एक बेहतर ज़िन्दगी जीने के लिए इस्तेमाल नहीं करती? क्या वो इन शक्तियों के बल पर कही और मज़े करने नहीं चली जाती? क्या ज़रूरत थी उसे यहाँ गरीबी और भुखमरी में दिन गुज़ारने की? किसने बताया तुम लोगो को की ये डायनी है? उस ओझा ने? और तुम सब ने उसकी बाते माँ ली? अगर ऐसा ही है तो तुम लोगो में और भेड बकरियों में कोई फर्क नहीं है।“

धीरे धीरे भीड़ कम हो गयी। एक औरत एक फटे हुए कपडे को पानी में भिगोकर सुनीला के ज़ख्म धोने लगी। सुनीला का पति और बच्चे उसके पास आकर फूट फूट कर रोने लगे। बिरुबाला ने अपनी शाल सुनीला को ओढाई और एक लम्बा रास्ता तय करके अपने गाँव की ओर चल दी।

बिरुबाला असम और मेघालय की सीमा पर बसे गोलपारा जिल्हे के छोटे से गाँव ठाकुरविला में रहने वाले एक अत्यंत गरीब किसान की पत्नी है। बिरुबाला के शुरुवाती जीवन को देखकर कोई ये नहीं कह सकता था की एक दिन वह अन्याय के खिलाफ लड़ने वाली एक निर्भीक कार्यकर्ता बनेंगी।

बिरुबाला राभा- मेघालय की सीमा पर बसे गोलपारा जिल्हे के छोटे से गाँव ठाकुरविला से अंधविश्वास की लडाई लड़ रही है

बिरुबाला सिर्फ ६ साल की थी जब उनके माता पिता का देहांत हो गया। पर इतनी छोटी सी उम्र में अनाथ हुई बिरुबाला ने कभी हिम्मत नहीं हारी। मुश्किल हालातो से गुज़रते हुए वे सिर्फ छटी कक्षा तक ही पढ़ पायी। पर शिक्षा की इस कमी को उन्होंने अपनी बाकि कलाओं के साथ पूर्ण किया। बिरुबाला पाक कला, सिलाई, कढाई, बुनाई जैसी कई गुणों की धनी है।

सोलह साल की होते होते बिरुबाला का विवाह चंद्रेश्वर राभा के साथ हो गया। और जल्द ही वे ३ बेटों और एक बेटी की माँ भी बन गयी। बड़ा बेटा धर्मेश्वर, मझला बिष्णु प्रभात, छोटा दोयालू और बेटी कुमोली!

हालाँकि गरीबी ने ज़िन्दगी को मुश्किल बना दिया था पर फिर भी ये सभी अपने परिवार में खुश थे। पर एक दिन उनके इन खुशियों पर तब ग्रहण सा लग गया जब उनका सबसे बड़ा बेटा धर्मेश्वर कुछ बदला बदला सा रहने लगा। धर्मेश्वर अपने आप से ही बाते करता, कई कई दिनों तक घर से गायब रहता, कुछ वहम सा भी हो जाता उसे मानो कोई दुश्मन उसके आस पास हो, और तो और वो अपनी माँ पर भी हाथ उठाने लगा था। घबराकर एक दिन उसके पिता ने एक ओझा से मदत मांगी। ओझा ने इन बातो की जो वजह बतायी वो धर्मेश्वर के अजीबोगरीब व्यवहार से भी ज्यादा अजीब थी।

“मुझे लगता है की इस लड़के ने एक चुड़ैल के साथ विवाह कर लिया है। और अब वो चुड़ैल इसके बच्चे की माँ बनने वाली है। जैसे ही वो, इसके बच्चे को जन्म देगी, इसे इस धरती से जाना होगा। अब सिर्फ तीन दिन बचे है तुम्हारे बेटे के पास।”

बिरुबाला की लड़ाई तब शुरू हुई जब उनके बेटे को बुरी आत्मा का शिकार बताया गया

Photo: twocircles.net

ओझा के ये शब्द सुनते ही बिरुबाला और उसका परिवार बहोत सहम गया और एक तरह से धर्मेश्वर की मौत से पहले ही उसका मातम मनाने लगा। कई दिन बीत गए पर धर्मेश्वर को कुछ नहीं हुआ। बिरुबाला को इस बात से राहत तो मिली पर ओझा के इस सफ़ेद झूठ पर उन्हें गुस्सा भी बहुत आया।

बिरुबाला को समाजसेवा का गुण अपनी माँ सागरबाला से विरासत में मिला था। इसी विरासत को आगे बढ़ाते हुए बिरुबाला ने ‘ठकुरविला महिला समिति’ की शुरुवात की। इसी संगठना के ज़रिये ही उन्होंने सबसे पहले लोगो में काले-जादू और झाड फूंक के खिलाफ जागरूकता फैलाने की शुरुवात की। इसके बाद वे ‘ग्रेटर बोर्झारा महिला समिति’ की सचीव बन गयी। साल १९९९ में वे ‘असम महिला समता सोसाइटी’ की भी सदस्य बनी।

अचानक ऐसा क्या हो जाता है कि एक सीधा साधा गाँव वाला एक बुरी आत्मा या एक डायन बन जाता है?

“ हर गाँव में एक ओझा होता है, एक हकीम और एक ज्योतिष भी होता है जो आपको आपका भविष्य बताता है और अगर ये इंसान एक बार भी ये कह दे कि कोई डायन है तो हर कोई उसपे विश्वास करने लगता है।

गांववाले डायन या बुरी आत्मा को ढूंड निकालने का एक और तरीका अपनाते है। यदि कोई बीमार हो और किसी भी दवा से ठीक नहीं हो रहा हो तो उसे सिर से लेकर पाँव तक एक जाले से ढक दिया जाता है। और फिर सभी लोग इकठ्ठा होकर उसे छड़ी से मारते है। मरीज़ दर्द के मारे चीखता है, चिल्लाता है पर गाँववाले उसे बुरी आत्मा का नाम पूछते रहते है और मारते रहते है। अपने आप को इस मार से बचाने के लिए ये मरीज़ किसी का भी नाम ले लेता है। और गाँव वाले उसे डायन या बुरी आत्मा समझने लगते है।“

इसके बाद जो होता है वो आपके रौंगटे खड़े कर देगा। जिस भी महिला का नाम मरीज़ डायन के तौर पर लेता है, उसे सभी गाँव वालो के सामने हाज़िर किया जाता है। और फिर इस महिला को पुरे गाँव में भगा भगा कर मारा जाता है या जाले में कैद करके इसे नुकीले भाले चुभाये जाते है।

और अगर इन सब यातनाओ के बाद उसकी मृत्यु हो जाती है तो उसके शरीर के छोटे छोटे टुकड़े करके अलग अलग जगहों पर दफ्न किया जाता है ताकि वह दुबारा जन्म न ले सके। डायन समझे जानेवाले इस व्यक्ति की सारी संपत्ति भी हड़प ली जाती है। और इस मामले में उसके घरवाले भी कुछ बोलने की हिम्मत नहीं कर पाते, इस डर से कि कही उनके साथ भी वैसा ही कुछ न हो जाये। काला जादू या डायन घोषित करने की ये प्रथा सिर्फ पिछडे हुए गाँवों में सामाजिक बुराई का ही प्रतीक नहीं है बल्कि ये सरासर मानवाधिकार की धज्जियां उड़ाने जैसा है।

एक लम्बे संघर्ष के बाद बिरुबाला की ज़िन्दगी ने कुछ अच्छे लम्हे भी देखे। २००५ में नॉर्थ ईस्ट नेटवर्क ने उन्हें शांति पुरस्कार (नोबल पीस प्राइज) से सम्मानित किया।

अन्धविश्वास को जड़ से मिटाने के लिए लड़ रही है बिरुबाला

 

Photo: twocircles.net

उसी साल उन्हें रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड की ओर से रियल हीरोज़- आर्डिनरी पीपल, एक्स्ट्राऑर्डिनरी सर्विस का खिताब भी दिया गया। स्विजरलैंड के १००० महिला पीस प्रोजेक्ट, जिसने दुनियाभर की ISO देशो की १००० महिला पीस वर्कर्स (शांति दूतो) को समान्नित किया है, ने भी उनका नाम इनमे शामिल किया है।

पर इतने सारे सम्मान और पुरस्कार पाने के बावजूद भी बिरुबाला का जीवन उतना ही सादा और संघर्षो भरा है।

बिरुबाला इतनी स्वाभिमानी है कि वे अपने आर्थिक तंगी के बारे में एक शब्द भी नहीं बोलती। अपनी गरीबी से निराश होने के बजाय वे एक बहोत ही नेक काम करने के सपने देखती है। उनका सपना है कि वे डायन करार दिए गए पीडितो के लिए एक ऐसा आसरा बनाए जहाँ मनोरोग विशेषग्य उनकी इस मानसिक पीड़ा से निकलने में मदत करे। एक ऐसी जगह- जहाँ इन पीडितो को इलाज मिले, खाना मिले, पहनने को कपडे मिले, खुद कुछ करने का साधन मिले, नयी हिम्मत मिले, लड़ने की शक्ति मिले और एक नया जीवन शुरू करने की दिशा मिले।

(Excerpted from ‘My Half of the Sky’ by Indrani Raimedhi; Published by Sage Publications; Pp: 200; Price: Rs 495/Hardback)

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