गरीबी की वजह से बेटी के लिए जूते नहीं खरीद पाईं, तो पूराने जूतों की सोल पर ही ऊन से नया जूता बुन खड़ी कर दी शूज़ इंडस्ट्री और साथ ही बना ली पद्म श्री तक की राह भी। यह कहानी है एक माँ की, मणिपुर की रहनेवाली पद्म श्री बिज़नेसवुमन मुक्तामणि मोइरंगथेम की। लगभग तीन दशक पहले, 1989 तक अपने क्षेत्र की दूसरी महिलाओं की तरह ही वह भी अपने बच्चों के लिए घर पर ऊनी मोजे और मफलर बुनतीं, खेतों में काम करती थीं और शाम को सब्जियां बेचती थीं।
साथ ही मणिपुर के काकचिंद की रहने वाली मुक्तामणि, कुछ और पैसे कमाने की चाह में रात में झोले और हेयरबैंड्स भी बुना करती थीं। बावजूद इसके उनके हालात बेहद खराब थे, जैसे-तैसे घर का खर्च चल रहा था। एक बार उनकी बेटी के जूते खराब हो गए, तब उन्होंने जूते के ऊपरी हिस्से को हटाकर, सोल के ऊपर ऊन से जूता बुन दिया। स्कूल में उनकी बेटी की टीचर को ये जुते इतने पसंद आए कि उन्होंने अपनी बेटी के लिए भी ऑर्डर दिया।
शूज़ इंडस्ट्री शुरू कर 5 दिन में बेचे 1500 जोड़ी जूते
कुछ समय बाद, गश्त के दौरान वहां तैनात सेना के जवानों ने बच्ची के पैरों में हाथ से बुने जूते देखे और उन्होंने भी अपने बच्चों के लिए जूतों का ऑर्डर दिया और यहीं से हाथ से बुने इन जूतों को मणिपुर के बाहर पहुंचने का रास्ता मिल गया। काम बढ़ता देख मोइरंगथेम ने 1990 में अपनी खुद की कंपनी ‘मुक्ता शूज़ इंडस्ट्री’ की शुरुआत की और नई दिल्ली के प्रगति मैदान में लगे एक मेले में उन्होंने केवल पांच दिनों में 1500 जोड़ी जूते बेचे और अब उनके प्रोडक्ट्स जापान, रूस, सिंगापोर और दुबई जैसे देशों में भी जाने लगे हैं।
आज लगभग 20 लोग उनके लिए काम कर रहे हैं, जिनमें से ज्यादातर महिलाएं हैं। मोइरंगथेम, एक ट्रेनिंग सेंटर खोलना चाहती हैं, जहां युवाओं को यह कला सिखाकर स्वरोजगार से जोड़ा जा सके और इस कला को विलुप्त होने से बचाया जा सके। मोइरंगथेम को उनकी इसी सोच और गरीब महिलाओं को सशक्त बनाने के प्रयासों ने पहचान दिलाई और उन्हें उनकी कला के लिए साल 2022 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया।
मुक्ता यह कर सकती हैं, तो आप भी कर सकते हैं…बस इस ‘एक चुस्की उम्मीद की’ लेकर अपने हुनर को पहचानें और पूरे विश्वास के साथ बढ़ाएं कदम, सफलता ज़रूर मिलेगी।
‘सफलनामा’ के अगले एपिसोड में किसकी कहानी जानना चाहेंगे आप, हमें ज़रूर बताएं।
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