वह 1993 का साल था। चंडीगढ़ की पंजाब यूनिवर्सिटी के इतिहास में पहली बार एम.ए. के एक स्टूडेंट को बहुत जल्द ही अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। या यूँ कहें कि उसकी सेक्शुअलिटी को लेकर लगातार मजाक उड़ाकर साथ पढ़ने वाले स्टूडेंट्स ने उसे पढ़ाई छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। जब भी वह क्लास में आते तो उसे छक्का और हिजड़ा कहकर ताने मारे जाते। यूनिवर्सिटी में उसके साथ शारीरिक छेड़छाड़ होना आम बात हो गई थी। वह लगातार कई तरह की परेशानियों का सामना कर रहे थे, लेकिन न तो यूनिवर्सिटी प्रशासन को अपनी परेशानी बता पा रहे थे और न ही घर वालों को। तनाव जब उसके बर्दाश्त से बाहर हो गया तो उसने पढ़ाई छोड़ दी। लेकिन पढ़ने की ललक उसमें हमेशा बनी रही।
साल-दर-साल बीतते गए, फिर एक दिन ऐसा आया जब उसके दिन फिरे। ठीक 23 साल बाद साल 2016 में उसने दोबारा यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया। एडमिशन भी लिया तो अपनी अलग पहचान के दम पर। उसी अलग पहचान की वजह से ठीक 23 साल पहले इसी यूनिवर्सिटी में उसकी पढ़ाई पूरी नहीं हो पाई थी।
वह पहचान है उसका ट्रांसजेंडर होना और इस स्टूडेंट का नाम है धनंजय चौहान।
अपने इस सफ़र को धनंजय चौहान याद करते हुए कहती हैं, “ऐसा नहीं है कि मेरे साथ छेड़छाड़ सिर्फ यूनिवर्सिटी में आने के बाद ही हुई थी। बचपन से ही अलग सेक्शुअल पहचान की वजह से मुझे लोगों की दरिंदगी का शिकार होना पड़ा। मैं शरीर से भले लड़का थी, लेकिन मन से लड़की। स्कूल, कॉलेज, घर, तकरीबन हर जगह मैं घुटी-घुटी सी रहती थी। पढ़ाई छूटने के बाद मैंने जॉब भी किया, लेकिन वहाँ भी प्रताड़ना झेलनी पड़ी। सिर्फ़ दो जेंडर्स (लिंग) होने की अवधारणा समाज में इस क़दर जड़ जमा चुकी है कि लोग यह समझ ही नहीं पाते कि तीसरा जेंडर होना भी सामान्य बात है और ऐसे लोगों को वे समाज में बिल्कुल जगह नहीं देना चाहते। वे हमें कुछ देते तो वो थीं गंदी गालियाँ और भयंकर तनाव।”
यह सब कहते हुए धनंजय की आँखों से आँसू टपक पड़ते हैं। फिर अपनी सफेद सूती फूलदार साड़ी के पल्लू से वह आँसू पोछती हैं।
लगातार छेड़छाड़ के कारण पढ़ाई और जॉब से उनका मन ऊब गया था। वह घर में घुट-घुटकर रहतीं। उस अकेलेपन में सिर्फ़ किताबें ही धनंजय का सहारा बनीं। वह पढ़ाई जारी रखना चाहती थीं। इसलिए किताबों से उन्होंने रिश्ता बनाए रखा। किताबों से ही उन्हें पता चला कि अपने अधिकारों के लिए उन्हें लड़ाई लड़नी होगी, जिसे कमरे में बंद रह कर नहीं लड़ा जा सकता। इसके लिए उन्हें बाहर निकलना होगा और अपने जैसे लोगों से जुड़ कर अपने अधिकारों और समाज में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष करना होगा।
घर से बाहर निकलकर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने के बारे में वह बताती हैं, “मैं साल 2008 में खुलकर बाहर आ गई। उस समय मेरी मुलाकात कई दूसरे ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट्स से हुई। उनसे मिलने के बाद मुझे बहुत हौसला मिला। मैंने चंडीगढ़ और आसपास के इलाकों में ट्रांसजेंडर्स के अधिकारों के लिए काम शुरू कर दिया। बाहर निकलने के बाद मुझे मेरे जैसे साथी मिलते गए और मैं उनसे जुड़ती चली गई। उस समय देश-विदेश में ट्रांसजेंडर अपनी पहचान पर गर्व महसूस करते हुए ‘प्राइड वॉक’ नाम से सड़कों पर उतरते थे। मैंने भी साल 2013 में चंडीगढ़ में ‘प्राइड वॉक’ का आयोजन करवाया। उस समय पंजाब यूनिवर्सिटी ने हमें अनैतिक कहकर नकार दिया था, लेकिन हमने अपनी लड़ाई जारी रखी।”
उस समय बेशक मुश्किलों का सामना करना पड़ा, लेकिन प्राइड वॉक ने धनंजय के संघर्ष को नई ऊंचाइयाँ दी। साल 2014 में हुए ‘नाल्सा जजमेंट’ को लागू करवाने के आंदोलन में धनंजय सक्रिय हो गईं। इस आंदोलन में ट्रांसजेंडर्स की जीत हुई और अब जेंडर वाले कॉलम में दो की जगह तीन कॉलम हो गए। तीसरा कॉलम ट्रांसजेंडर्स का था।
इस जीत के बाद धनंजय अपनी ज़िंदगी का वह खूबसूरत अध्याय लिखने जा रही थीं, जिसका उन्हें सालों से इंतज़ार था। धनंजय ने साल 2016 में एक बार फिर से पंजाब यूनिवर्सिटी में एडमिशन करवाया। इस बार उन्होंने एडमिशन अपनी पहचान छुपाकर नहीं, बताकर करवाया था।
धनंजय पंजाब यूनिवर्सिटी की फर्स्ट ट्रांसजेंडर स्टूडेंट बनीं।
एडमिशन होने के बाद धनंजय की खुशी का ठिकाना न रहा। लेकिन उनकी खुशी पहले दिन ही फीकी पड़ गई, जब वह क्लास में पहुँचीं। उस दिन उन्हें अकेले बैठना पड़ा। न लड़कों ने उन्हें अपने साथ बैठाया और न ही लड़कियों ने। वह उदास जरूर हुईं, लेकिन निराश नहीं। वह जानती थीं कि समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।
क्लास में अलग-थलग पड़ने से ज्यादा बड़ी एक और परेशानी उनके सामने खड़ी थी। वह थी टॉयलेट की। यूनिवर्सिटी में लड़कों और लड़कियों के लिए टॉयलेट थे, लेकिन ट्रांसजेंडर्स के लिए नहीं। धनंजय ने यूनिवर्सिटी प्रशासन और डीन से मिलकर अपनी समस्या के बारे में बताया और प्रशासन को कई पत्र भी लिखे।
ठीक एक साल बाद 2017 में यूनिवर्सिटी ने ट्रांसजेंडर्स के लिए टॉयलेट बनवाने के लिए 23 लाख का बजट पास कर दिया।
धनंजय के लिए यह बहुत बड़ी जीत थी। धनंजय बताती हैं, “यह मेरे लिए खुशी का पल था। ट्रांसजेंडर्स के लिए टॉयलेट बनवाने वाली पंजाब यूनिवर्सिटी भारत की पहली यूनिवर्सिटी थी। यह खुशी भी एक जिम्मेदारी के साथ आई थी। वह ज़िम्मेदारी थी ट्रांसजेंडर्स को यूनिवर्सिटी के दायरे में लाने की। फ़ीस की वजह से ट्रांसजेंडर्स एडमिशन नहीं लेना चाहते थे, क्योंकि उनके पास कमाई का कोई ज़रिया नहीं होता। पेरेंट्स उन्हें उनकी अलग पहचान की वजह से सपोर्ट नहीं करते। इसलिए मैंने फ़ीस माफ़ करवाने के लिए दोबारा पीयू प्रशासन का दरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया। करीब दो साल के संघर्ष के बाद प्रशासन हमारी मांग मानने के लिए तैयार हो गया और 2018 में ट्रांसजेंडर स्टूडेंट्स की फ़ीस भी माफ़ हो गई। अभी ट्रांसजेंडर्स के होस्टल के लिए संघर्ष जारी है। शायद जल्द ही हमें होस्टल भी अलॉट हो जाएगा।”
यह सब बताते हुए धनंजय के चेहरे पर ख़ुशी साफ़ नज़र आ रही थी और उनकी आँखें आत्मविश्वास से चमक रही थीं। धनंजय अब तक 6 ट्रांसजेंडर्स का यूनिवर्सिटी में एडमिशन करवा चुकी हैं। वह यूनिवर्सिटी में सभी छात्रों के साथ घुल-मिल गई हैं। आज यूनिवर्सिटी का हर छात्र उन्हें जानता है।
उनके संघर्ष का ही नतीजा है कि चंडीगढ़ प्रशासन ने ट्रांसजेंडर वेलफेयर बोर्ड भी बनाया है। अभी भी समाज में अपनी पहचान बनाने की उनकी लड़ाई जारी है।
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संपादन – मनोज झा