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झारखंड: साइंटिस्ट से कम नहीं हैं ये महिलाएं, रेशम की वैज्ञानिक खेती कर कमा रही हैं मुनाफा!

अपने जंगलों एवं वनोत्पादों के लिए मशहूर झारखंड के जनजाति परिवार के लोग वन आधारित उत्पादों से ही अपनी आजीविका चलाते हैं। झारखंड का पश्चिमी सिंहभूम जिला अपने प्राकृतिक संपदा एवं वन प्रदेश समेत जनजाति लोगों के लिए भी जाना जाता है। इस इलाके में आदिवासी महिलाओं ने रेशम की वैज्ञानिक खेती के जरिए अपनी विकास यात्रा की नींव रखी है। यहाँ गाँवों में जहाँ तसर की खेती से खुशहाली लौटी है वहीं ग्रामीण परिवार आर्थिक रुप से भी सशक्त हुए हैं।

कल तक मजदूरी या पेट भर खाने के लिए खेती के जरिए जीवन यापन करने वाले गरीब आदिवासी परिवार की महिलाएँ आज तसर की खेती एवं कीटपालन से जुड़कर अच्छी आय कर रही हैं। झारखंड के आदिवासी इलाकों में तसर की खेती काफी पहले से होती रही है क्योंकि यहाँ प्रकृति ने वरदान स्वरुप हरे-भरे पेड़, जंगल एवं उचित जलवायु प्रदान की है। पुराने समय में लोग जंगलों में तसर के बीज खोजते थे, जिनमें से अधिकतर कीड़े बीमारी या अन्य वजहों से मर जाते थे वहीं कुछ कीड़े जो बचते भी थे उनके अंडे की गुणवत्ता सवालों में रहती थी, अधिकांश अंडे खराब हो जाने की वजह से एवं तसर उत्पादन के ज्ञान की कमी की वजह से लोग लगातार तसर की खेती से दूर होते गए एवं अपनी आजीविका को समेटते गए।

तसर की वैज्ञानिक खेती से बदली फिजा  

ऐसे मुश्किल समय में तसर की खेती को स्थापित करने के लिए राज्य में महिला किसान सशक्तिकरण परियोजना के जरिए ग्रामीण महिलाओं को तसर की वैज्ञानिक एवं तकनीकी विधि से जोड़ने की पहल की गई। ‘परियोजना रेशम’ के तहत उत्पादक समूह के गठन के जरिए इस पहल की जिम्मेदारी पूर्ण रुप से समुदाय को सौंप दी गई है। साल 2017 में शुरू की गई इस पहल के तहत समुदाय को तकनीकी मदद के साथ जरुरी कृषि यंत्र एवं उपकरण भी उत्पादक समूहों को उपलब्ध कराए गए है, जिसका उपयोग कर समुदाय की आमदनी में लगातार इजाफा हो रहा है।

इस पहल के जरिए तसर की खेती को बढ़ावा देने हेतु करीब 150 महिलाओं को ‘आजविका रेशम मित्र’ के रुप में मास्टर ट्रेनर बनाया गया जो अपनी सेवाएँ गाँव में किसानों की मदद के जरिए दे रही है वहीं समुदाय आधारित संगठन को कुकून बैंक एवं अन्य कार्यों की जिम्मेदारी दी गई है। ग्रामीण महिलाएँ जंगल में मौजूद अर्जुन एवं आसन के पौधों से साल में दो बार वैज्ञानिक तरीके से कीटपालन एवं कुकून उत्पादन कर रही हैं।

दो महीने की मेहनत से करीब 40 हजार की हो रही कमाई

राज्य में करीब 7500 परिवारों के साथ तसर व रेशम की वैज्ञानिक खेती को बढ़ावा दिया गया है। महिलाएँ कुकून के उत्पादन के जरिए 35 हजार से 45 हजार रुपये सालाना मात्र 2 महीने की मेहनत से कमा रही है। जंगल में पहले से मौजूद अर्जुन एवं आसन के पौधों के जरिए कीटपालन कर महिला किसान अच्छी कमाई कर रही हैं।

तसर की खेती से जुड़ी हाटगम्हरिया प्रखण्ड की महिला किसान सरिता पिंगुआ की चेहरे की चमक उनके जीवन में हुए बदलाव को बयाँ करती है। सरिता पिंगुआ ने द बेटर इंडिया को बताया, “मैं करीब 1800 रुपये लगाकर सलाना 48 हजार रुपये की आय कर लेती हूँ। सिर्फ कुछ ही महीने की मेहनत से कुकून तैयार हो जाता है। पहले रेशम की खेती से हम महिलाओं को डर लगता था क्योंकि इसमें बहुत घाटा होता था, लेकिन वैज्ञानिक खेती से हमारी आय बढ़ी है और गाँव बदल रहा है।”

पश्चिमी सिंहभूम जिले के करीब 6500 किसानों ने पिछले साल करीब 3 करोड़ कुकून का उत्पाद और बिक्री के जरिए 7.54 करोड़ की कमाई की है। कोकून उत्पादन से ही ये परिवार आज आत्मनिर्भर हो चुके हैं।

 

बीएसपीयू एवं सीएसपीयू साबित हुआ मील का पत्थर

उत्पादक समूह से जुड़ी महिला तसर किसानों के नेतृत्व में ही बेसिक सीड प्रोडक्शन यूनिट( बीएसपीयू) एवं कॉमर्शियल सीड प्रोडक्शन यूनिट (सीएसपीयू)का गठन किया गया है। जहाँ अंडा के हैचरिंग से लेकर कुकून के टेस्टिंग एवं रोग मुक्त लेइंग के टेस्टिंग की सुविधा है।

खूंटपानी के ग्राम आहबुरू की रहने वाली रानी हाईबुरू बताती हैं, “हमलोग खुद अंडा एवं बीज का भंडारण करते हैं। माइक्रोस्कोप से टेस्टिंग कर रोग मुक्त कुकून का उत्पादन करते हैं, जिसकी अच्छी मांग है। रेशम परियोजना से हमें जो मदद एंव प्रशिक्षण मिला उससे हमलोग तसर एक्सपर्ट हो गए हैं। अभी हमलोग खेत के मेढ़ पर अर्जुन एवं आसन का पौधा भी लगा रहे हैं, जिससे तसर के उत्पादन को बढ़ाया जा सके। पिछले साल की खेती से मुझे 49 हजार रुपये का मुनाफा हुआ है।”

सैकड़ों महिलाएँ जो कल तक स्मार्ट फोन तक भी नहीं देख पायी थीं, आज बीएसपीयू एवं सीएसपीयू  के माध्यम से माइक्रोस्कोप के जरिए अंडा एवं कीट उत्पादन के टेस्टिंग का कार्य कर अतिरिक्त आय कमा रही हैं।

टेस्टिंग करती महिलाएँ

कम लागत से ज्यादा आमदनी 

पहाड़ी, पथरीली, बंजर जमीन पर अर्जुन व आसन के पौधे लगाकर उस पर रेशम के कीट पाले जाते हैं।जबकि पश्चिमी सिंहभूम में पारंपरिक रुप से हजारों की तादाद में ये पौधे उपलब्ध है। अंडा खरीद अब महिलाएं अपने बीएसपीयू से करती है और टेस्टिंग से लेकर सारा काम उत्पादक कंपनी के जरिए उचित दर पर हो जाता है जिससे किसानों की कमाई अच्छी हो रही है।

सगजोड़ी गांव की तसर किसान चमनी गुड़िया बताती हैं, “कल तक हमलोग जंगल से साल पत्ता, लकड़ी, चिरौजी चुनकर अपनी आजीविका चलाते थे साथ में मजदूरी भी करते थे लेकिन पिछले दो साल से करीब 2000 रुपये खर्च कर करीब 40 हजार की आमदनी कर रही हूँ। अभी तो हमलोग कुकून बेचकर ही अच्छी आमदनी कर रहे हैं। उत्पादक कंपनी के जरिए हमलोग धागा उत्पादन से भी जुड़ेंगे।”

झारखंड राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत इन परिवारों को प्रशिक्षण एवं अन्य सहयोग मिल रहा है जिससे ये आज आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर हैं। ग्रामीण विकास विभाग, झारखंड के विशेष सचिव राजीव कुमार बताते हैं, “आदिवासी परिवार की बहनों ने तसर उत्पादन के जरिए एक मिसाल कायम की है जिसको आगे बढ़ाने के लिए हमलोग प्रयासरत हैं। ग्रामीण महिलाओं एवं उनके संगठन के जरिए एमकेएसपी परियोजना के तहत जो मॉडल तैयार किया गया है उसे राज्य के अन्य इलाकों में भी बढ़ाया जाएगा ताकि ज्यादा से ज्यादा परिवार तसर की खेती से जुड़ें और झारखंड तसर का सर्वाधिक उत्पादन कर सके। दीदियों की कमाई अच्छी हो इसीलिए हम लोगों ने वैज्ञानिक खेती को प्रोत्साहित किया है जिसका फायदा उनकी बढ़ती आय से दिख रहा है। इस साल मुझे उम्मीद है कि दीदियां पूरे राज्य में करीब 8 करोड़ कुकून का उत्पादन करेंगी।”

तसर की खेती से झारखंड के ग्रामीण इलाकों से पलायान रूका है। इस खेती ने ग्रामीण महिलाओं के हौसलों को बुलंद किया है। झारखंड की इन महिलाओं को द बेटर इंडिया सलाम करता है।

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