कुछ साल पहले एक टी सॉमेलियर का संदेश पढ़ा था,“चाय की हर चुस्की के साथ उन मेहनतकश हाथों को याद करना जरूरी है जो चाय की पत्तियों को तोड़ने में पसीना बहाते हैं।“ उस दिन से मेरे लिए चाय के मायने ही बदल गए। यहाँ तक कि इसी चाय की शान में सफर की अगली मंजिल तय कर डाली। पहुंच गई दार्जिलिंग जिसकी पहाड़ी ढलानों पर दुनिया की सबसे उम्दा चाय पैदा होती है। यहां से कुर्सोंग, कलिंपोंग तक बिछे कितने ही चाय-बागानों में ठिठकी, बगीचों में फैली चाय की झाड़ियों से उलझी और बंगाल-नेपाल सीमा से सटे हिल स्टेशन मिरिक के एक बागान में तो ठहर ही गई। उस सफर में होटलों से जैसे कट्टी हो गई थी और पूरब के चाय बगीचों से ऐसी कसकर यारी हुई कि अब तक आंखों में वह हरियाली जमा है।
चलिए लिए चलती हूं आज आपको भी उसी अलबेले सफर पर जो चाय की गुमटी से शुरू होकर, केतलियों-प्यालों से गुजरता है, कभी किसी टी-स्टॉल या टी-लाउंज में निखरता है, चाय बुटीकों या चाय बार तक पहुंचता है और बागानों में जाकर भी कहां थमता है! चाय कारोबार का नाता औपनिवेशिक विस्तारवाद से भी रहा है और कितने ही देशों ने चाय के व्यापार से कमाई दौलत का इस्तेमाल अपनी महत्वाकांक्षाओं के विस्तार तक के लिए करने से परहेज़ नहीं किया था। यहां तक कि गुलामों की खरीद-फरोख़्त में भी चाय की बिक्री से कमाए मुनाफे का हाथ होता था। युद्धों से लेकर मिथकों तक में गुंथी रही है चाय। और तो और, क्रांतियों का सबब भी बनी। बॉस्टन टी पार्टी के नाम से मशहूर ऐतिहासिक घटना याद है न, जो अमरीकी क्रांति का कारण बनी। कहते हैं अंग्रेज़ों को चाय का दीवाना पुर्तगालियों ने बनाया था। सत्रहवीं सदी में जब सम्राट चार्ल्स द्वितीय ने पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन ऑफ ब्रेगेंज़ा से ब्याह रचाया तो दहेज में जेवरातों, मसालों, और टैंजरिन और बंबई के बंदरगाहों के अलावा चाय की पेटी भी मिली थी।
इतिहास से पर्यटन की सड़क तक छायी रही चाय
चाय की कीमियागिरि सिर्फ मूड बढ़िया बनाने के काम ही नहीं आती, बल्कि इसके इर्द-गिर्द आज अच्छा-खासा पर्यटन भी खड़ा हो चुका है। ‘टी-टूरिज़्म’ की इसी झलक को दिखाने के लिए पूर्वोत्तर में असम, दार्जिलिंग, सिक्किम हैं तो उत्तर में हिमाचल, उत्तराखंड और दक्षिण में नीलगिरि की पहाड़ियां हैं। चाय की मेरी दीवानगी परवान चढ़ी तो दार्जिलिंग की लेबॉन्ग घाटी को अपनी मंजिल चुना। यहां करीब डेढ़ सौ साल पुराने एक बड़े चाय बागान- गिंग टी एस्टेट के हेरिटेज बंगले में ठहरी जिसे चारों तरफ से हरे-भरे गलीचों ने घेरा हुआ था। दरअसल, ये गलीचे थे करीब छह सौ एकड़ में फैले हुए चाय बागानों की शक्ल में।
बागान का डायरेक्टर बंगला 1864 में बनकर तैयार हुआ था और आज इसे छह लग्ज़री कमरों वाले हेरिटेज बंगले में तब्दील किया जा चुका है। जब बारिश और बादलों की साजिशें नहीं होती हैं तो इसी बंगले के लॉन से कंचनजंगा के दर्शन भी होते हैं। नवंबर से फरवरी के दौरान जाड़े के महीने मुफीद होते हैं कंचनजंगा के दीदार के लिए। टी एस्टेट की मालकिन ने हमें यहां आने से पहले ही यह बता दिया था लेकिन हमने उन्हें नहीं बताया कि हम तो बौछारों में भीगती चाय की पत्तियों से पैदा होने वाले रोमांस को जीने आए हैं। विरासत, बारिश और चाय की क्या खूब जुगलबंदी साबित हुआ था वह सफर।
बंगला ऊंचाई पर था और चाय फैक्ट्री काफी नीचे थी। बारिश ने उस तक पहुंचने के रास्ते बंद कर दिए थे। सो, पहला दिन हमने बगीचों की खाक छानते हुए चाय की ताज़ी पत्तियों को चुनते हाथों की लय-ताल सुनने में बिताया। मेहनतकश औरतों को सिर पर छाता ताने हुए पीठ पर लटकी टोकरियों को पत्तियों से लबालब करते देखा। ये पत्तियां चाय फैक्टरियों से होते हुए हमारे-आपके ड्राइंग रूम में पहुंचने से पहले जिस लंबे सफर से गुजरती हैं, उसे देखने की तलब बढ़ती जा रही थी।
दूसरे दिन झमाझम बारिश रुकी तो हमारे पैरों की खलिश हमें दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की सवारी कराने ले आई थी। दरअसल, 1878 में चालू हुई इस रेलवे लाइन का नाता भारत में चाय कारोबार से बहुत गहराई से जुड़ा है। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी पूर्वी चाय बागानों में तैयार चाय को रेलों पर लदवाकर बंदरगाहों तक पहुंचाया करती, जहां से यह समुद्री जहाज़ों में लदकर यूरोपीय बाज़ारों में पहुंचती थी।
चाय का औपनिवेशिक अतीत
ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1833 में जब चीनी कारोबार पर एकाधिकार खोया तो भारतीय चाय को ग्लोबल बनाने की योजना बनायी। इस बीच, चीन से चाय के पौधों की किस्में और बीजों को चुराने के लिए कई जासूसी अभियान भी चलाए गए थे। पूर्वी भारत में, असम से दार्जिलिंग तक चाय बगीचों ने पैर पसारा तो लंदन की कंपनियों के साथ-साथ विज्ञापनदाताओं ने भारतीय चाय को वैश्विक बाज़ारों में चमकाने की मुहिम तेज़ कर दी। देखते ही देखते ब्रिटेन का राष्ट्रीय पेय, पूर्वी भारत की चाय और दक्षिणी अमरीकी कैरिबियाई उपनिवशों से आने वाली चीनी के दम पर पश्चिम के बाज़ारों में इठलाने लगा। 1838 में भारत से चाय की पहली खेप लंदन पहुंची और 1881 में तो लंदन की प्रसिद्ध ऑक्सफर्ड स्ट्रीट पर पहला इंडियन टी स्टोर खुल चुका था। दार्जिलिंग की आबोहवा में खिलने वाली चाय की पत्तियां नीलामी बाज़ारों में ऊंची कीमतों पर बिकने लगी थीं। ब्रिटिश भारत के उस दौर की कहानी कहते कितने ही बंगले आज चाय की विरासत का हिस्सा हैं। कहीं ये खस्ताहाल हैं तो कहीं पर्यटन चक्र का हिस्सा बन चुके हैं।
यह है असम के सोनितपुर जिले में आदाबाड़ी टी एस्टेट के तहत् होम स्टे ‘वाइल्ड माहसीर’ जिसकी भव्यता और सत्कार परंपरा चुपके से कह जाएगी कि असम के सीने में छिपा एक राज़ है यह बंगला।
इस होम स्टे में प्रकृति और इतिहास की मेहमाननवाज़ी का अद्भुत मेल मिलता है।
चाय के सफर की एक अहम् कड़ी है बागानों में पत्तियों की तुड़ान। एक कली दो पत्तियों को तोड़ती उंगलियां मुझे ध्यानावस्था की याद दिलाती हैं। चाय के जीवन-चक्र के इस पहलू को देखने के लिए मैंने दार्जिलिंग के बाद मिरिक को अगली मंजिल चुना था। हालांकि कुर्सोंग से मिरिक तक के रास्ते में पड़ने वाले लेपचा जगत का सौंदर्य भी किसी तिलिस्म से कम नहीं है। कुहासे में नहाए चीड़ों के इस जंगल को पार करते हुए आपको बरबस ही रोड ट्रिप सुहाने लगने लगते हैं।
मिरिक के गोपालधारा और रोहिणी टी एस्टेटों की खूबसूरती के बारे में सुन रखा था, इसलिए चाय यात्रा की अगली कड़ी इसी हिल स्टेशन को बनाया। गोपालधारा तो इस इलाके में सबसे ऊंचाई पर खड़ा चाय बागान है और इसके गोलाकार बगीचों का सौंदर्य मंत्रमुग्ध करने वाला है। चाय की सुगंध का पीछा करते हुए एक दफा यहां भी चली आयी थी और बागान में ही मैनेजर बंगले में रुकी। अगली सुबह चाय बागानों पर बादलों की पहरेदारी लगी थी और धुंध में नहायी चाय की झाड़ियों को लजाती नववधू की तरह पाया था।
चाय फैक्टरियों से होते चाय की पत्तियां हमारे-आपके ड्राइंग रूम में पहुंचने से पहले जिस लंबे सफर से गुजरती हैं, उसे देखना-समझना भी वाकई एक अलग अनुभव था।
दिनभर टी फैक्ट्री में जिस चाय को सूखते-निखरते देखा उनकी टेस्टिंग का शास्त्र भी कम दिलचस्प नहीं था। मज़ेदार बात यह है कि अक्सर टी एस्टेट पर हेरिटेज बंगलों में टिके मेहमानों के लिए टी टेस्टिंग और प्लांटेशन टूर की व्यवस्था पैकेज का हिस्सा होती हैं। और ऐसे भी चाय बागान हैं जो होम स्टे या बंगलों की पेशकश तो नहीं करते मगर विरासत की इस सैर को शिद्दत से कराते हैं। टी कैफे और टी बुटिक हैं जहां चाय की एक और रूमानी दुनिया बसती है, तरह-तरह की चाय, केतलियां, प्याले, इंफ्यूज़न्स के संग।
कैसा लगा चाय का सफर? क्यों न सफर की थकान मिटाने के लिए अब एक-एक प्याली चाय हो जाए!
संपादन- पार्थ निगम
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