भारत रत्न भार्गव की उम्र करीब 80 बरस हो चली है, राजधानी में घर के ठाट और विदेश में बसे बच्चों संग-साथ जैसे आकर्षणों को ठेंगा दिखाते हुए वे अजमेर रोड, जयपुर स्थित भांकरोटा में नए युग का गुरुकुल – ‘नाट्यकुलम’ चला रहे हैं। संगीत नाटक अकादमी में ऊंचे पद से रिटायर होने के बाद अपनी सारी पूंजी लेकर वे जयपुर चले आए और एक शांत, सुरम्य, आश्रमनुमा माहौल देखकर कोठारीगढ़ में ही ठहर गए।
यहां नेत्रहीनों को अभिनय के गुर सिखाने के लिए उन्होंने ‘दिव्यांग कलाश्रम’ की स्थापना की जिसमें रंगमंच का ककहरा सीखने के अलावा ये बच्चे ब्रेल लिपि में पढ़ाई भी करते हैं और यहां तक कि उनके आंखों के इलाज का बंदोबस्त भी किया जाता है।
दिव्यांग बच्चों को नाटक खेलने की तालीम देते हुए कुलगुरु भार्गव अपनी उम्र को भी चकमा देने लगे हैं। उनकी आंखों से बच्चों जैसा उत्साह चमकता है तो दिनभर वर्कशॉप में उन्हें तल्लीनता से जुटे देखकर यह वाकई सच लगता है कि उम्र बस एक आंकड़ा भर है।
”आसान नहीं था उन्हें अभिनय सिखाना जो खुद भाव-भंगिमाएं देख तक नहीं पाते, उन्हें कुदरती खूबसूरती का आभास नहीं होता और वे वस्तुओं के आकार से भी नावाकिफ होते हैं। जिन पहाड़ों, नदियों, आसमान, तितली, खरगोश, शेर जैसी आकृतियों से आम बच्चे परिचित होते हैं, उसका कोई सिरा भी इन दृष्टिहीन बच्चों की कल्पनाओं में नहीं होता। ऐसे में हमने तय किया हम ऐसा नाटक इन बच्चों को सिखाएंगे जिसमें मूल मानवीय संबंधों के मार्मिक प्रसंग जुड़े हों, ऐसा प्रसंग जिससे वे खुद को जुड़ा महसूस कर सकें, मुक्ति का अनुभव कर सकें। यानी, हमने ‘ड्रैमेटिक रिलीफ’ का सहारा लिया।”
कैसे सीखते हैं नेत्रहीन बच्चे रंगमंच की बारीकियां
अभिनय, संगीत, सुर-लय-ताल का ज्ञान हासिल करना क्या आसान होता है हम दृष्टि संपन्न लोगों के लिए? और उस पर अगर दृष्टि बाधित को यह प्रशिक्षण देना हो तो? विभिन्न भावों के संप्रेषण के लिए आंगिक और वाचिक प्रशिक्षण कैसे दिया जाए ? इससे भी बड़ी समस्या यह पेश आती है कि एक बार मंच पर प्रवेश के बाद किरदार किस दिशा में जाएंगे, किस स्थान पर उन्हें संवाद बोलना है या मंच से प्रस्थान की दिशा को वे कैसे जानेंगे?
भार्गव जी कहते हैं – ”आपके पास इरादों की पूंजी हो तो आगे का रास्ता खुद-ब-खुद खुलता चला जाता है। हमारे कलाश्रम में इनोवेटिव तरीके से उन बच्चों को अभिनय सिखाया जाता है जो खुद देख नहीं सकते। मंच पर कहां से प्रवेश कर किस तरफ बढ़ना है, कहां से मंच छोड़ना है या कब-किस तरफ मुड़ना है, इन तमाम निर्देशों के लिए वॉयस प्रॉम्पटिंग का सहारा लिया जाता है। यानी, मंच पर ठीक जगह पहुंचने पर उन्हें थाप दी जाती है, जो उनके लिए रुकने का इशारा होता है। और भी रोचक होता है उन्हें दाएं-बाएं, आगे-पीछे बढ़ने के संकेत देना। इसके लिए जिस दिशा में उन्हें जाना होता है उस तरफ से विभिन्न संगीत वाद्यों जैसे खंजरी, मंजरी, खड़ताल और घंटी वगैरह की आवाज़ की जाती है।”
ध्वनि, गंध और स्पर्श की भाषा से निर्देशन हुआ आसान
ध्वनियों और गंध का व्यापक साम्राज्य ही नेत्रहीनों का कला-प्रांगण है। ऐसे में संगीत कैसे पीछे रह सकता है। कभी इस गुरुकुल में कत्थक की थाप सुनायी देती है तो कभी ढपली-मंजीरे जैसे लोक वाद्यों की संगीत लहरियां गूंजती हैं। और स्वरों-वाद्यों के सहारे न सिर्फ नाटकों का स्वाद बढ़ाने का जतन होता है बल्कि इनसे ही निर्देशन भी किया जाता है। गीतों का प्रयोग ज्यादा होता है और ऐसे में दिव्यांग कलाश्रम के बैनर तले ज्यादातर नाटक संगीतात्मक रहे हैं।
कुछ साल पहले प्रेमचंद की चर्चित कहानी ‘ईदगाह’ का मंचन इन नेत्रहीन बच्चों ने किया तो कुलगुरु ने नाट्य-निर्देशन का नया मुहावरा गढ़ दिया। इस नाटक में जश्न-ए-ईद के वक्त हामिद अपनी दादी के दिए तीन पैसे से अपने लिए मिठाई या खिलौना खरीदने की बजाय दादी के लिए चिमटा खरीद लाता है। उसे दादी की उंगलियों का ख्याल था, जो चिमटा न होने की वजह से रोटी बनाते वक्त जल जाती थीं। जब हामिद के साथी उसका चिमटा देखकर उसका उपहास उड़ाते हैं तो वह उन्हें अपने जबर्दस्त जवाबों से चित्त कर देता है। इतना कि वही साथी उसके चिमटे की तरफ हाथ उठाकर कहते हैं ‘हामिद का चिमटा जिंदाबाद’। नाटक मंचन के वक्त सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि हामिद का चिमटा किस तरफ होगा, यह बाकी के साथी किरदारों को कैसे पता चलेगा। अब एक युक्ति ईजाद की गई।
हामिद ने चिमटा उठाया दाएं हाथ में और बाएं हाथ से चुटकी बजायी जिसे सुनकर बाकी किरदारों को चिमटे की दिशा का पता चल गया। ऐसे दृश्य और दृश्यों का निर्देशन दर्शकों को कई स्तरों पर प्रभावित करता है।
कुलगुरु भार्गव जी कहते हैं, ‘’मैंने इन बच्चों के साथ काम करते हुए पाया कि गंध को लेकर ये बेहद संवेदनशील होते हैं। उसी गंध के सहारे ये अपनी वेशभूषा, अपने वाद्यों और प्रॉप्स आदि को पहचानते हैं। इसी तरह, स्पर्श की जुबान वे खूब समझते हैं। स्पर्श उनके लिए भावों को समझने का ज़रिया होता है। इसलिए बहुत जरूरी होता है इन बच्चों के साथ काम करने से पहले इनका मनोविज्ञान समझना।”
और अब गर्मियों की छुटि्टयों में इन बच्चों के लिए एक माह की थियेटर वर्कशॉप चालू हो चुकी है। जयपुर और आसपास के गांव-देहात के गरीब, साधनहीन, समाज के हाशिए पर गुजर-बसर करने वाले परिवारों के दृष्टिहीन बच्चों को अभिनय का हुनर सिखाने का बिगुल बज चुका है। बच्चों को कलाश्रम लाने में उनके घरवाले कोई आना-कानी न करे, इस वास्ते हर बच्चे के लिए महीने भर तक मुफ्त रहने, खाने और प्रशिक्षण के अलावा उनके आने-जाने पर होने वाले खर्च के लिए 500/रु नकद देने की व्यवस्था भी की गई।
नाटक सीखने के बाद ये बच्चे बाकायदा रंगमंच पर उसका मंचन भी करेंगे। और हर बार की तरह इस बरस भी गुलाबी नगरी में दुनिया देखेगी उन बच्चों के हुनर जो खुद देख नहीं सकते।
संपर्क- नाट्यकुलम, कोठारीगढ़, भांकरोटा, अजमेर रोड, जयपुर
मोबाइल- 9811621626/ 8209634802/ 8107863913/ 8209634868
ईमेल : natyakulam@gmail.com फेसबुक पेज- https://web.facebook.com/natyakulam.bhargava