Site icon The Better India – Hindi

ऐसे वैसे, कैसे–कैसे म्‍यु‍ज़‍ियमों की फेहरिस्‍त में अनूठा है ‘झाड़ू म्‍युज़‍ियम’!

अमूमन घर के किसी कोने में गुमसुम, छिपकर पड़ी रहने वाली झाडू को भी कोई म्‍युजि़यम समर्पित हो सकता है? अगर आपको भी यह सवाल चौंकाता है तो आज हमारे संग चलिए इस अजब-गजब म्युज़ियम की वर्चुअल सैर पर। 

यह है झाड़ू संग्रहालय। थार के बियाबान में रंगों और संगीत की स्वरलहरियों से परे बसा है झाड़ुओं का आश्चर्यलोक जो अपनी सादगी से हतप्रभ कर डालता है। 

जोधपुर से करीब 15 किलोमीटर दूर पोखरन रोड पर है अरना झरना थार डैज़र्ट म्युज़ियम और यहीं जमा हैं राजस्‍थान के अलग-अलग इलाकों में बसे लोक समाजों में इस्‍तेमाल होने वाली तरह-तरह के झाड़ू।  

अरना झरना थार डैज़र्ट म्युज़ियम में लेखिका अलका कौशिक

 

 

लोककथाओं के सुविख्‍यात अध्‍येता और संगीत-शास्‍त्री कोमल कोठारी ने सन् 2003 में यह अद्भुत संग्रहालय बनाया था। इसे बनाया गया था फोर्ड फाउंडेशन के सहयोग से मगर आज यह किसी तरह अपनी हस्‍ती संभाले खड़ा है। 

कोमल कोठारी, संस्थापक- अरना झरना संग्रहालय

 

 

दो-तीन माटी घर हैं, उनमें ही चलता है साधारण-सा दिखने वाला ब्रूम म्‍युज़‍ियम। 

झाड़ू संग्रहालय

संग्रह का तरतीब से दस्‍तावेजीकरण आपको हैरत में डालता है कि महानगरीय सुख-सुविधाओं से दूर, रेगिस्‍तान की तपिश और सन्‍नाटे के बीच एक व्‍यक्ति ने इस विशाल भौगोलिक प्रदेश की जनजातियों, लुहारों, घुमंतुओं, कृषक समाजों द्वारा इस्‍तेमाल की जाने वाली बहुपयोगी झाड़ुओं को जतन से जुटाकर यहां प्रदर्शित करने के लिए इस संग्रहालय को बनाने का जिम्‍मा संभाला।

 

मगर झाड़ू ही क्‍यों? 

कमल कोठारी के बेटे और अब संग्रहालय की बागडोर संभाल रहे कुलदीप कोठारी कहते हैं – ”देसी समाजों के पारंपरिक ज्ञान को समेटने की खातिर कमल कोठारी ताउम्र राजस्‍थान की लोक-कथाओं, वाचिक परंपराओं, और लोक सामग्री को सहेजते रहे थे। इनमें लोककलाकारों के वाद्यों, कठपुतलियों, राजस्‍थान की विशिष्‍ट कथा वाचन शैली के कावड़ आदि शामिल हैं। झाड़ूओं के जरिए उन्‍होंने न सिर्फ लोक समाजों को जाना बल्कि उनके वनस्‍पति संसार, जैव विविधता, जीवन शैली, उनके संघर्षों और उनकी चुनौतियों को भी समझा। इन्‍हें इकट्ठा करने के लिए हमारी टीमों ने सालों तक राजस्‍थान के चप्‍पे-चप्‍पे को टटोला, हम अमूमन 25,000 प्रांतों, गांवों, कस्‍बों, नगरों में गए और वहां बसने वाले लोगों के इस्‍तेमाल में आने वाली रोज़मर्रा की मामूली झाड़ू, उससे जुड़े किस्‍सों, रीति-रिवाज़ों, अंधविश्‍वासों, परंपराओं, आदतों, व्‍यवहारों का रिकार्ड भी रखते रहे। आज हमारे आर्काइव में अमूमन 2000 घंटों की रिकार्डिंग है और इनमें से कुछ संग्रहालय में दर्शकों के लिए उपलब्‍ध है।”



 

झाड़ुओं का संसार भी वैज्ञानिक हो सकता है, यह अंदाज़ा यहीं आकर लगता है। समूचे राजस्‍थान के अलग-अलग इलाकों में, कच्‍ची ज़मीन पर, खेत में, चूल्‍हे के इर्द-गिर्द, कमरों के आलों में, दीवारों पर, फर्श पर जमा हुई रेत-मिट्टी को बुहारने के लिए किस्‍म-किस्‍म की झाड़ुएं इस्‍तेमाल में लायी जाती हैं। अपनी बमुश्किल दो-तीन तरह की झाड़ुओं प्‍लास्टिक, नारियल या घास की, बांस की तीलियों वाली झाड़ू से परिचित हम शहरी तो इन्‍हें देखकर हैरत में पड़ जाते हैं। ज्‍यादातर झाड़ू वो हैं जो आंगन में, भूसाघर में, देवी-देवताओं के स्‍थानों पर, खलिहानों में, जानवरों के बाड़ों में, गोशालाओं में, ऊंटघर में इस्‍तेमाल होती हैं। प्रयोग के हिसाब से इनकी बुनावट, बनावट, आकार-प्रकार, मोटाई आदि में फर्क साफ दिखता है। कुछ महीन, बारीक सूखी घास से बनती हैं तो कुछ को झाड़‍ियों, पेड़ों की पतली टहनियों या शाखाओं और पत्तियों से बनाया जाता है। किस जगह के लिए झाड़ू चाहिए, उस जरूरत के मुताबिक इसे बनाने की सामग्री चुनी जाती है। 

 

 

 

झाड़ुओं का नामकरण भी

असेलिया रो हावरणो जालौर जिले की झाड़ू है जो जीरे के खेतों में उगने वाली झाड़ से बनती है। आमतौर पर यह इस्‍तेमाल होती है जीरे की फसल कटने के बाद उससे झड़ने वाले तिनके वगैरह बुहारने के लिए। इसी तरह, कारी गेंगसी रो हावरणो को गरसिया जनजाति बनाती है पशुओं के बाड़े की सफाई के लिए। यह झाड़ू स्‍थानीय देवी-देवताओं के स्‍थान और आसपास की खुली जगह की सफाई के काम भी आती है। झोझरी रो बारो को भी गरसिया जनजाति झोझरी झाड़ी से बनाती है जो बारिश के मौसम में पशुओं के चरने की जगह पर उगती है। इसका उपयोग गाय का बाड़ा बुहारने या खुरदुरी जगह की सफाई के लिए किया जाता है। कारी मेहँदी रो बारो, बैड रो हावरणो भी झाड़ुओं के नाम हैं जो इनकी उत्‍पत्ति, क्षेत्र या उपयोग की ओर इशारा करते हैं। 

गुंचो खेजूर झाड़ू को सीधे खजूर के पेड़ से प्राप्‍त किया जाता है। दरअसल इस पेड़ की सूखी शाखों से बनी यह झाड़ू घर में मकड़ी के जाले छुड़ाने के काम आती है। भील और कुछ अन्‍य जनजातियां इसे खासतौर से बनाती हैं।  

सीणिया का बुंगरा, लोणा रो बुंगरो, लोवा रो बुंगरा, अरणा रो बुंगरा, बुई री बु्ंगरी नामों में खनक है, धमक है और झलक है इनके उपयोग की। सीणिया का बुंगरा झाड़ू जिस सीणिया घास से बनती है वह रेतीली और बंजर जमीन पर उगने वाली एक छोटी झाड़ होती है। इस झाड़ू का प्रयोग पशुओं के बाड़े को बुहारने के लिए किया जाता है और बाजरे के खलिहान में अनाज भरने से पहले जमीन की गोबर और मिट्टी से लिपाई के लिए भी यह काम में आती है।

झाड़ुओं के नाम से से ही इनके लिंग भी जान सकते हैं। जैसे बुआरी, बुंगरी या हावरणी मादा झाड़ू होती हैं और बुंगरा, हावरणो नर झाड़ू है।

 

मेल और फीमेल झाड़ू! 

और एक मजेदार बात बताए बगैर हम आपको इस संग्रहालय से नहीं निकलने देंगे। यहां झाड़ू संग्रह दो तरह का है – एक है मादा झाड़ुओं का संसार जो पतली, बारीक, छोटी झाडू हैं और इनका इस्‍तेमाल आमतौर से घर के भीतर की सफाई के लिए होता है। इन्‍हें मिट्टी या गोबर की लिपाई वाली सतह के अलावा सीमेंट, पत्‍थर या प्‍लास्‍टर वाली सतह पर लगाया जाता है, लेकिन घर से बाहर, सड़कों पर या गोशाला में, मवेशियों के बाड़े की सफाई के काम में नहीं इस्‍तेमाल किया जाता। आमतौर पर घरों के अंदर इस्‍तेमाल की जाने वाली झाड़ू का संबंध धन की देवी लक्ष्‍मी से होता है और इन्‍हें लिटाकर रखने की परंपरा है। इन्‍हें घर से बाहर नहीं निकाला जाता। लोक समाजों में इन ‘घरेलू’ झाड़ुओं को लेकर काफी मान्‍यताएं और रीतियां हैं।

इनके उलट, आंगन में, खेत में, भूसाघर में, सड़क पर यानी घर से बाहर लगने वाली झाड़ू नर है जिसे अक्‍सर खड़ा करके रखा जाता है।


 

 

संग्रहालय में झाड़ू बनाने की विधि पर एक वीडियो फिल्‍म भी दिखायी जाती है। इस वीडियो से आप झाड़ुओं को बुनने, बनाने, कसने, बांधने, बरतने वाले समुदायों को करीब से देख सकते हैं। झाड़ू के बहाने इस श्रमजीवी समाज की तन्‍मयता और ध्‍यानमग्‍नता देखकर उनके प्रति सम्‍मान का भाव जगाती है यह फिल्‍म। और यह भी कि जिस झाड़ू को हम कोई भाव नहीं देते उसका भी एक शास्‍त्र होता है। मसलन, पन्‍नी घास से बनने वाली झाड़ू को ही लें। दौसा जिले में बारिश के मौसम में ढीली भूमि पर यह घास उगती है जिसे कार्तिक के महीने में काटा जाता है और सफाई करने वाली जाति के लोग इसे खुली जगहों की सफाई के लिए बनाते हैं। 

 

 

अरना झरना म्‍यजि़युम की झाड़ुओं का संसार स्‍थानीय पारंपरिक ज्ञान और पर्यावरण का आईना है। वैसे एक मायने में यह खुद हम दर्शकों को भी आईना दिखलाता है। राजस्‍थान के थार के जिस सिरे पर यह ख़ड़ा है, वहां दूर-दूर तक सिवाय रेत और बियाबान के कुछ नहीं है। आप झाड़ुओं से मुखातिब होते हैं और सोचते रह जाते हैं कि आम जिंदगी की कितनी आम जरूरत है ये साधारण-सी झाड़ू जो कितनी सादगी से आपकी रोज़बरोज के जीवन का हिस्‍सा बन चुकी है।

 

इससे चूके नहीं: संग्रहालय के माटीघरों में जाने के रास्‍ते पर कैर के कंटीले झाड़ खड़े हैं जिनमें दुबकी सैंकड़ों चिड़‍ियाओं की चहचहाहट सुनने के लिए कुछ पल ठिठकना बनता है।

यह भी पढ़ें – लग्‍ज़री होटल को गुडबाय बोलें, चुनें विलेज टूरिज्‍़म का सुकून!

संपादन – मानबी कटोच 

Exit mobile version