जिम कॉर्बेट के ‘बड़े दिल वाले शरीफ़जादे‘ से मुलाकात की मेरी तीसरी कोशिश भी बेकार गई थी। शिवालिक की गोद में पसरे जिस जंगल ने कॉर्बेट को कुमाऊं के इश्क में उलझाया था, उसी का हर साल बिना नागा फेरा लगाने चली आती हूं और ‘कारपेट साहब’ का ‘जैंटलमैन‘ बाघ हर बार लुकाछिपी के खेल पर आमादा रहता है। इस बार भी यही हुआ। मगर मैं रत्ती भर निराश नहीं थी। ठानकर आयी थी कि बाघ न सही, जंगल की हर शै से खेलना है।
आखिर हिंदुस्तान के पहले नेशनल पार्क में जो थी। 1936 में खुद जिम कॉर्बेट ने इस अभयारण्य को बनवाने में अहम् भूमिका निभायी थी और संयुक्त प्रांत के गवर्नर लॉर्ड मैलकम हेली के नाम पर इसे हेली नेशनल पार्क के रूप में पहचान मिली। कॉर्बेट के सम्मान में 1957 में सरकार ने इसका नाम बदलकर जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क कर दिया।
सवेरे की धुंध में लिपटी पहाड़ियों और ओस में भीगी घास-पत्तियों से घिरी हमारी जीप अपनी मंथर चाल से जंगल को चीरती चल रही थी। जंगल धीरे–धीरे आंखे खोल रहा था। तभी एक डाल से छलांग लगायी लंगूर ने, नीचे एक मुर्गा सर्र से भागा, दूर एक सांप का लहलहाता बदन मेरे रौंगटे खड़े कर गया और इस बीच, सांभरों का एक झुंड हमें देख शरमाकर भाग खड़ा हुआ। जंगल के उस सौंदर्य में कहीं कोई कोर-कसर न रह जाए, शायद यही सोचकर हिरनों की एक टोली भी सुनहरी घास के उस पार से ताकाझांकी करती दिखी।
करीब साढ़े तीन घंटे बीत चुके थे और जंगल था कि हर मोड़ पर भरमाने से बाज़ नहीं आ रहा था। धूप भी ऐंठ दिखाने लगी थी और पसीने में तरबतर हमारे बदन लौटने का मन बना चुके थे।
उत्तराखंड में नैनीताल जिले के जिस हिस्से में मैंने डेरा डाल रखा वहां कॉर्बेट की विरासत के ऐसे कई कालखंड जिंदा हैं। उन्हें टटोलने की जिद पाले बार–बार लौट आती हूं इस तरफ। उस दिन भी सफारी की थकान बदन से झाड़कर हम पवलबढ़ फॉरेस्ट रेस्ट हाउस की तरफ चल पड़े थे। कोसी बैराज पार कर छोई और बैलपड़ाव के रास्ते से होते हुए रेस्ट हाउस तक की दौड़ में भूख ने हलकान कर डाला था। दोपहर के भोजन का इंतज़ाम यहीं था। मैं इतरा रही थी ठीक उसी रैस्ट हाउस में कुछ देर सही, सांसे लूंगी जिसमें कभी शिकार पर निकले कॉर्बेट रुका करते थे।
लेकिन मन के बावरेपन के सामने भूख भी अता-पता भूल जाती है। दरअसल, रैस्ट हाउस में दाखिल होते ही अंगद के पैर-सा दिखता सेमल का विशाल पेड़ हमें अपने मोहपाश में डाल चुका था। यही तो वह ऐतिहासिक वृक्ष है जिसकी ओट में छिपे घायल ‘बैचलर ऑफ पवलबढ़’ के माथे पर दो गोलियां ठोंककर कॉर्बेट ने उसे हमेशा की नींद सुला दिया था।
अपनी पहली किताब मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं में कॉर्बेट ने लिखा है – ”1930 की सर्दी में जब वे बाघ की तलाश में घात लगाए थे, तो एकाएक हर चीतल हुंकारा था, हर लंगूर मारे घबराहट के चीखा था, हर मुर्गे की फड़फड़ाहट उसकी बदहवासी का इशारा थी और पेड़ों की टहनियों पर फुदकते वानरों की टोलियों की चिल्लाहट से उस बीहड़ की हर शै थरथरा उठी थी। और यह इशारा था कि हमारा लक्ष्य आसपास ही था।”
1920-1930 के दशक में यह बाघ पवलगढ़ में हौआ बन चुका था। उस रोज़ घायल शिकार बच निकला और पूरे चार दिन लुकता-छिपता रहा था। आखिरकार इस सेमल वृक्ष के नीचे छितरायी झाडि़यों में कॉर्बेट ने उसे खोज निकाला और आतंक का उसका खेल चौपट कर दिया।
शिकार से संरक्षण की राह
कहते हैं इसी दुर्दांत नरभक्षी को मारने के बाद कॉर्बेट का मन जानवरों के शिकार से उचाट होने लगा था। बाघों से इंसानों को बचाने के इस लंबे सिलसिले को पलटकर वे इंसान से जंगल के इस शहंशाह को बचाने के बारे में सोच-विचार करने लगे थे। देश में बाघ संरक्षण की दिशा में कॉर्बेट की उस पहल को तब भले ही बहुत कम लोगों ने समझा था, लेकिन आने वाला वक्त खुद यह बता गया कि वह खुद वक़्त से कितना आगे सोच रहे थे।
कॉर्बेट ने चौघड़ और चंपावत की आदमखोर बाघिनों, मोहन बाघ, पीपल कोटी बाघ, केदारनाथ और बद्रीनाथ के तीर्थयात्रियों की नाक में दम करने वाले रुद्रप्रयाग के आदमखोर तेंदुए तथा बैचलर ऑफ पवलगढ़ समेत कुल-मिलाकर 19 बाघों एवं 14 तेंदुओं का शिकार किया था। ये आदमखोर जानवर किस हद तक खूंखार बन चुके थे इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि चंपावत की बाघिन ने 438 लोगों को मारा था।
इन आदमखोर बाघों से प्राण रक्षा के लिए कभी ग्रामवासी खुद तो कभी सरकार कॉर्बेट से गुहार लगाया करती थी। वे कभी भी इन पुकारों को अनसुना नहीं करते थे और सुदूर बिहार में रेलवे की नौकरी पर तैनाती के दिनों में भी छुट्टी लेकर अपने इस धर्म को निभाने चले आते थे। और देखते ही देखते कुमाऊं के भोले बाशिन्दों के ‘कारपेट साहब’ उनके ‘गोरा बाबा’ बन गए।
कहते हैं जब कोई गांव वाला किसी जंगली जानवर से अपने खेतों या जानवरों को हुए नुकसान की शिकायत लेकर उनके पास आता, तो वह अपना पर्स उठाते और चुपचाप उसके नुकसान की भरपाई करने लायक रकम थमा देते।
कॉर्बेट की विरासत
एडवर्ड जिम कॉर्बेट का कुमाऊं से कैसा नाता रहा था, इसे करीब से जानने-समझने के लिए मैं छोटी हल्द्वानी जाने का मन बना चुकी थी। कालाढूंगी से सटा यह गांव कॉर्बेट ने 1915 में बसाया था। उन्होंने गुमान सिंह बरूआ से 15,000 रु में यहां 221 एकड़ जमीन खरीदकर इस आदर्श गांव की नींव रखी और अपने दोस्त मोती सिंह के लिए ‘मोती हाउस’ तथा गांववालों के साथ चर्चा करने के मकसद से एक ‘चौपाल’ बनवायी थी । इनके अलावा, गांव को जंगली जानवरों के हमलों से बचाने के लिए एक दीवार भी बनायी। करीब तीन मील लंबी यह दीवार आज भी है।
चौपाल भी सलामत है। लेकिन न अब उस मचान के रूप में इस्तेमाल होती है जिस पर चढ़कर दूर तलक जानवरों पर नज़र रखी जाती थी और न यहां पहले की तरह बैठकर कॉर्बेट ग्रामीणों की परेशानियों को सुनने आते हैं।
गांव अब इको-टूरिज़्म की राह पर बढ़ चला है और सैलानियों के लिए होम स्टे, इको रेस्टॉरेंट जैसी सुविधाएं देता है।
आकर्षण बन चुकी कॉर्बेट की बंदूक
मैं छोटी हल्द्वानी में त्रिलोक सिंह के घर पहुंची जो कॉर्बेट के करीबी दोस्त और उनके शिकारी अभियानों के साथी शेर सिंह के बेटे हैं। कॉर्बेट भारत छोड़ते समय अपनी बंदूक गांव वालों की सुरक्षा की खातिर शेर सिंह को दे गए थे। अब यह बंदूक सैलानियों के आकर्षण का सबब है।
कॉर्बेट ट्रेल का अगला पड़ाव – कॉर्बेट म्युजि़यम, कालाढूंगी
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कॉर्बेट का बचपन नैनीताल के गर्नी हाउस में बीता जो उनके परिवार का ग्रीष्मकालीन निवास हुआ करता था। सर्दियों में कॉर्बेट परिवार हल्द्वानी के नज़दीक कालाढूंगी में विंटर हाउस ‘अरुंडेल’ में रहने आ जाया करता था। यह घर अब कॉर्बेट की यादों को समर्पित म्युज़ियम है। उनका मछली पकड़ने का जाल, खुद कॉर्बेट के हाथों बनायी कुर्सी-मेज, कुर्सी वाली पालकी, उनके लिखे पत्रों की प्रतियां, आदमखोर बाघों को मारने की दास्तान … पूरे म्युज़ियम में जैसे जिम के बचपन से लेकर आखिरी लम्हे तक के चर्चे हैं।
म्युजि़यम के आंगन में कॉर्बेट के प्यारे कुत्तों रॉबिन और रॉसिता की दो कब्रें भी हैं। रॉबिन का जिक्र मैन-ईटर्स ऑफ कुमाऊं में उन्होंने बड़े लाड से किया है और उसकी मौत के बाद उन्होंने लिखा था, ”अब जिस खुशनुमा शिकारगाह में रॉबिन पहुंच चुका है, वहां वह यकीनन मेरा इंतज़ार कर रहा होगा।”
जंगल की किस्सागोई
ताउम्र कुमाऊं के जंगलों से बावस्ता रहे जिम शिकारी से संरक्षक और फिर जंगलों में बसने वालों की दास्तान सुनाने वाले किस्सागो बन गए। उनकी शिकार गाथाएं अद्भुत रोमांच और थ्रिल से भरपूर हैं, इतनी कि पहली ही किताब मैन ईटर्स ऑफ कुमाऊं दुनिया भर में बेस्टसेलर बन गई थी, जिसके दर्जनों भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित हुए। शिकार की दास्ताननवीसी में भी कॉर्बेट के हुनर का जवाब नहीं। आप दिल थामकर उन्हें पढ़ते हैं, और शरलॉक होम्स या सत्यजित रे की फेेलुदा सीरीज़ जैसा लुत्फ लेते चलते हैं।
1947 में आजादी के बाद कॉर्बेट अपनी बहन मैगी के साथ कीनिया जाकर बस गए। जाते-जाते उन्होंने गांव की ज़मीन गांव वालों को उपहार-स्वरूप दे दी और ज़मीन पर देय टैक्स खुद ही अदा करते रहे। यह सिलसिला 1955 में उनकी मौत तक जारी रहा।