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“हर कोई सचिन नहीं हो सकता…” : वह माँ जिन्होंने दिया शतरंज के इतिहास का सबसे महान खिलाड़ी

Viswanathan Anand
#SushilaAnand: जानिए उस माँ के बारे में, जिन्होंने दिया शह और मात की दुनिया का सबसे चमकता सितारा

विश्वनाथन आनंद (Viswanathan Anand) किसी पहचान के मोहताज नहीं हैं। उनकी गिनती दुनिया के सबसे महान शतरंज के खिलाड़ियों में होती है। विश्वनाथन आनंद का जन्म 11 दिसंबर, 1969 को तमिलनाडु के माइलादुत्रयी में हुआ था।

उनके पिता विश्वनाथन अय्यर रेलवे में मैनेजर के पद पर थे, तो माँ सुशीला आनंद (Sushila Anand) हाउसवाइफ थीं। सुशीला को शतरंज काफी पसंद था और उन्होंने आनंद को छह साल की उम्र में ही शतरंज की चालें सिखाना शुरू कर दिया था। 

धीरे-धीरे आनंद ने इस खेल में अपनी महारत हासिल कर ली और 1983 में, महज 14 साल की उम्र में उन्होंने नेशनल सब-जूनियर चेस चैम्पियनशिप को अपने नाम किया।

इसके एक साल के बाद उन्होंने कोयम्बटूर में हुए जूनियर एशियन चैम्पियनशिप को जीता और सबसे कम उम्र में इंटरनेशनल मास्टर का खिताब जीतने वाले भारतीय बन गए और उन्होंने लगातार तीन वर्षों तक इस खिताब को अपने नाम किया।

विश्वनाथन आनंद

महज 17 साल की उम्र में आनंद ने एफआईडीई जूनियर वर्ल्ड चेस चैम्पियनशिप जीता और वह यह कारनामा करने वाले पहले एशियाई बने। आनंद 1988 में भारत के पहले ग्रैंडमास्टर बने। शतरंज में आनंद के बेहतरीन खेल को देखते हुए, उन्हें सिर्फ 18 वर्ष की उम्र में पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

हालांकि, 1991 में आनंद को एफआईडीई वर्ल्ड चैम्पियनशिप में उस वक्त तगड़ा झटका लगा, जब वे क्वार्टर फाइनल में ही दिग्गज अनातोली कार्पोव से हार कर बाहर हो गए।

लेकिन आनंद ने हौसला नहीं खोया और साल 2000 में इस पुरस्कार को अपने नाम किया। वह इस पुरस्कार को जीतने वाले पहले भारतीय थे। इसके बाद वह 2007 से लेकर 2012 तक लगातार चार बार विश्व चैंपियन रहे।

2008 विश्व चैंपियनशिप में विश्वनाथन आनंद (Viswanathan Anand) ने ब्लादिमीर क्रैमनिक को मात दी और वह शतरंज चैंपियनशिप के इतिहास में नॉकआउट, टूर्नामेंट और मैच, तीनों जीतने वाले पहले खिलाड़ी बन गए।

अपने माता-पिता के साथ विश्वनाथन आनंद

शह और मात के खेल में भारत का नाम ऊंचा करने के लिए आनंद को पद्म श्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण, अर्जुन पुरस्कार, और राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार जैसे कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 

माँ की सीख से हासिल की ऊंचाई

विश्वनाथन आनंद (Viswanathan Anand) की माँ सुशीला आनंद को शतरंज से काफी लगाव था। उन्होंने आनंद को बचपन से ही शतरंज सीखना शुरू कर दिया था। यही कारण है कि चेन्नई के लोयला कॉलेज से कॉमर्स की पढ़ाई करने के बाद भी आनंद ने शतरंज की राह चुनी।

उस दौर में खेल को करियर के लिहाज से सुरक्षित नहीं माना जाता था और खेलों में लोगों को सिर्फ क्रिकेट पसंद था। उस समय शतरंज एक अपरंपरागत खेल था, लेकिन आनंद ने रिस्क लिया और बाकी इतिहास है।

सुशीला ने अपने बेटे को कभी हार से निराश न होने की सीख दी। कहा जा सकता है कि यदि आनंद ने अपने जीवन में इन बुलंदियों को छुआ है, तो इसके पीछे उनकी माँ का हाथ है। वह बचपन में आनंद को खुद ही चेन्नई के चेस क्लबों में लेकर जाती थीं, ताकि उनका बेटा कुछ अलग कर सके।

यह उनके दिए संस्कारों का ही नतीजा है कि आनंद अपने इतने अरसे के खेल जीवन में कभी किसी विवाद में नहीं रहे।

अपनी मां के साथ शतरंज खेलते विश्वनाथन आनंद

सुशीला उन तमाम अभिभावकों के लिए एक रोल मॉडल थीं, जो अपने बच्चों को कुछ अलग करने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं। हालांकि वह आनंद की सफलता को लेकर कहा करती थीं, “मैं यह नहीं कहना चाहती कि आनंद की सफलता के पीछे मैं थी। किसी भी फिल्ड में आगे बढ़ने के लिए, माँ को अपने बच्चों के साथ रहना पड़ता है। मैंने भी यही किया।”

विश्वनाथन आनंद (Viswanathan Anand) के पहली बार विश्व चैंपियन बनने के बाद, उन्होंने कहा, “हमने सही समय पर उनकी प्रतिभा को पहचाना। उनकी जीत हमारे लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हमें यकीन था कि वह एक दिन यह कारनामा जरूर करेंगे।”

वहीं, 2012 में इजरायल के बोरिस गेलफैंड को मात देकर आनंद के विश्व विजेता बनने पर उन्होंने कहा, “उन्हें खुशी है कि आनंद ने शतरंज को अपने करियर के रूप में चुना है।” 

2015 में 79 साल की उम्र में अपनी आखिरी सांस लेने वाली सुशीला आनंद का मानना था, “हर कोई सचिन तेंदुलकर नहीं बन सकता है। इसलिए आप किसी की सचिन से तुलना नहीं कर सकते हैं। यदि आनंद कुछ अलग करना चाहते थे, तो यह अच्छा था कि उन्होंने अपना अलग रास्ता चुना।”

कई लोगों को लगता है कि शतरंज सिर्फ दिमागी खेल है। लेकिन सुशीला बताती थीं कि उनके बेटे ने हर तरीके से खुद को तैयार किया था, चाहे बात दिमागी हो या शारीरिक। 

शतरंज की दुनिया के लिए एक अनोखे और चमकते सितारे को गढ़ने वाली सुशीला आनंद की स्मृति को द बेटर इंडिया नमन करता है। 

संपादन- जी एन झा

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