साल 1947 में जब भारत का स्वतंत्रता संग्राम अपने आखिरी चरण पर था, तो उस समय भारत सरकार व भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का एक ही ध्येय था- एक अखंड राष्ट्र का निर्माण करना।
इसे पूरा करने के लिए जून 1947 में डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट की स्थापना की गयी और इसका नेतृत्व दो अहम व्यक्तियों के हाथों में सौंपा गया। पहले, वह निडर नेता जो भारत के पहले उप-प्रधानमंत्री बने- सरदार वल्लभभाई पटेल और दूसरे थे पटेल के करीबी सहयोगी – वीपी मेनन – जिनका नाम आज के राजनैतिक इतिहास में मानो कहीं गुम हो गया है!
वैसे तो पटेल ने ही तत्कालीन भारतीय राजाओं को अपनी रियासत एक राष्ट्र में विलय करने के लिए मनाने की योजना पर काम किया था, पर जिस व्यक्ति ने ज़मीनी स्तर पर इस योजना को अंजाम दिया, वह थे मेनन।
एक दरबार से दूसरे दरबार जाना, राजाओं के सामने प्रस्ताव रखना व समझौता करवाना – यह सब मेनन ने किया। यह काम बहुत मुश्किल था, पर अपनी कुशलता से वे रियासतों को ले पाने में सफल रहे। एक बार तो गुस्से में एक राजा ने उनके सर पर बंदूक रख कर, उन्हे जान से मार देने की धमकी तक दे दी थी।
मेनन के साहसी कार्य व उनके अनुभव की झलक उनके द्वारा लिखी गयी किताब – द स्टोरी ऑफ इंटीग्रेशन ऑफ द इंडियन स्टेट्स में मिलती है, जिसे भारत के राजनैतिक एकीकरण पर सबसे विस्तृत काम माना जाता है।
शुरूआती जीवन
वाप्पला पंगुन्नि मेनन का जन्म केरल के ओट्टापालम के छोटे से गाँव पनामन्ना मे 30 सितंबर 1893 को हुआ था। उनके पिता एक स्कूल के प्रधानाचार्य थे और मेनन अपने बारह भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। इतने बड़े परिवार को चलाना आसान नहीं था और इसलिए उनका परिवार हमेशा आर्थिक तंगी में रहता था।
मेनन छोटे ही थे, जब एक बार उन्होने अपने पिता को संसाधनो की कमी के चलते अपने बच्चों को एक अच्छा जीवन न दे पाने के अफसोस के बारे में बात करते सुना। अपने पिता के संघर्ष ने उनको अंदर से झकझोर दिया। 10वीं कक्षा तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपनी शिक्षा पर विराम लगा, काम करने की ठानी।
कम उम्र में ही वे नौकरी की तलाश में घर से निकल गए ताकि अपने पिता के कंधो से ज़िम्मेदारियों का बोझ कम कर पायें।
शिमला में बिताए कई वर्ष
दिहाड़ी- मजदूरी से लेकर कोयले की खदान में काम करने तक, और कूली से लेकर असफल कॉटन ब्रोकर तक- उन्होंने हर तरह का छोटा-मोटा काम किया। मेनन हमेशा आगे बढ़ने वाले इंसान थे और जल्द ही, उन्होंने बंगलुरु की तंबाकू कंपनी में क्लर्क टाइपिस्ट की नौकरी पकड़ ली। अंग्रेजी भाषा पर उनकी पकड़ अच्छी तो थी ही, साथ ही, वे हर एक परिस्थिति को समझने व उससे निपटने की क्षमता भी रखते थे।
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कुछ समय बाद, सरकारी नौकरी की तलाश में वे शिमला चले आए। यहाँ आ कर 1929 में गृह कार्यालय में उन्हें क्लर्क-टाइपिस्ट की नौकरी मिल गयी। उनकी टाइपिंग की स्पीड अच्छी ही, साथ ही उनकी टाइपिंग में गलतियाँ भी नहीं होती थीं। इस कारण जल्द ही उन्होंने ब्रिटिश अफसरों के बीच अपनी जगह बना ली।
सेनसिटिव रिफॉर्म डिपार्टमेंट में स्थानांतरित होने के बाद, वे भारत के सबसे लंबे समय तक वाइसरॉय रहे, लॉर्ड लिनलिथगो के विश्वास पात्र बन गए। मेनन के पास बहुत-सी महत्वपूर्ण जानकारियां होती थीं और साथ ही, कई फैसलों पर उनसे सलाह ली जाती थी।
लिनलिथगो की इंग्लैंड की कई अधिकारिक यात्राओं में मेनन साथ जाया करते थे और इस तरह से वहां के राउंडटेबल कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने वाले वे एकमात्र भारतीय अधिकारी थे।
बाद में, उन्हे रिफॉर्मस कमिश्नर सर हावथ्रोन का डिप्टी नियुक्त किया गया। लूइस से ले कर लॉर्ड वावेल तक, कई वाइसरॉय के साथ उन्होंने काम किया और वे सभी भारत की हर स्थिति से संबधित मेनन के ज्ञान से प्रभावित रहते थे।
1946 में मेनन को भारत के आखिरी वाइसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन का राजनैतिक रिफॉर्म कमिश्नर नियुक्त किया गया। उस समय स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर था और अंग्रेज़ भारत को आज़ाद करने के लिए सहमत हो गये थे। अंग्रेज़ो द्वारा सत्ता भारतीय सरकार को सौंपने की रणनीति बनाने का दायित्व मेनन को दिया गया।
इतिहासकार कॉलिंस व लापियरे ने मेनन के काम और अर्धरात्रि में मिली आज़ादी में उनके योगदानों पर प्रकाश डाला है।
“इसके बाद जो हुआ वो प्रशासनिक इतिहास में शायद सबसे तेज़ गति से हुए बदलावों में से एक होगा। 1947 तक मेनन वाइसरॉय स्टाफ के उच्चतम पदों में से एक पर पहुँच गए थे, जहां पहले उन्होंने माउंटबेटन का विश्वास और फिर उनका स्नेह जीत लिया।”
मेनन की योजना और भारतीय राज्यों का एकीकरण
मेनन की परपोती, नारायणी बसु ने ‘द वायर’ के लिए अपने लेख में लिखा है कि किस तरह मेनन की योजना ने एक स्वतंत्र भारत को जन्म दिया, जिससे कि महाद्वीप और विश्व का नक्शा हमेशा के लिए बदल गया।
“माउंटबेटन की मूल योजना भारतीय महाद्वीप को दो भाग में बांटने की नहीं थी, बल्कि इसे दर्जन भर से अधिक में बांटा जाने वाला था। हर एक प्रांत को अलग होने का अधिकार मिलता और हर एक रियासत को, अगर वो चाहे तो स्वतंत्र होने का हक था। इस “विखंडन, टकराव और अव्यवस्था” के प्रस्ताव पर जब माउंटबेटन को नेहरू के गुस्से का सामना करना पड़ा तो उनके पास अपने संवैधानिक सलाहकार को बुलाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। मेनन ने उनके गेस्टहाउस में बैठकर एक वैकल्पिक योजना तैयार की, वह भी मात्र छह घंटे मे…“
1947 में, कुछ समय के लिए मेनन राज्य मंत्रालय के सचिव बने जिसकी अध्यक्षता सरदार वल्लभभाई पटेल कर रहे थे। अपनी राजनीतिक प्रतिभा व कार्य-कुशलता के कारण वे जल्द ही पटेल के करीबी सहयोगी बन गए। मेनन ने पटेल के साथ मिल कर 500 से ज्यादा रियासतों को अखंड भारत मे शामिल करने पर काम किया। इस काम की जटिलता का वर्णन करते हुए जोधपुर के महाराज से उनकी मुलाक़ात का ज़िक्र करना ज़रूरी है।
मेनन, लॉर्ड माउंटबेटन के साथ जोधपुर गए थे, जहां उन्हे गणराज्य के समझौते के कागजात पर वहाँ के महाराज के हस्ताक्षर लेने का कार्य सौंपा गया था। लॉर्ड माउंटबेटन, महाराज व मेनन को अकेला छोड़ बाहर निकल गए। उसी समय महाराज ने हस्ताक्षर करने के लिए एक फाउंटेन पेन निकाला।
मेनन को वह पेन देखकर हैरानी हुई क्योंकि यह मात्र एक पेन नहीं था।
कॉलिंस और लापियरे ने लिखा है, “हस्ताक्षर करने के बाद, उन्होंने अपने पेन को खोला और उसमें से एक छोटी 0.22 पिस्तौल निकाल कर मेनन के सिर पर रख दी। मेनन ने कड़ी आवाज़ मे कहा कि मैं आपसे डरने वाला नहीं हूँ। इस शोर को सुन माउंटबेटन वापस आए और पिस्तौल को अपने कब्ज़े में ले लिया।”
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यह मेनन की रणनीति व कूटनीतिज्ञता ही थी जिससे कि जिद्दी से जिद्दी राजाओं ने भी अपनी रियासत भारत राष्ट्र में विलय करने की हामी भरी। इसके अलावा, पाकिस्तान के साथ कश्मीर के मुद्दे पर, व जूनागढ़ और हैदराबाद में, मेनन ने ही नेहरू और पटेल को सैन्य कार्यवाही से काम लेने की सलाह दी थी।
अनसुनी रही उनकी कहानी
1950 में भारत के लौह पुरुष का निधन हो गया और इस के बाद मेनन की प्रसिद्धि भी कम हो गयी। स्वतंत्र भारत में उनका कार्य तत्कालीन आदिवासी राज्य उड़ीसा के कार्यकारी राज्यपाल के रूप में सिमट कर रह गया।
1966 में, वे मुक्त अर्थव्यवस्था की पैरवी करने वाली स्वतंत्र पार्टी के संस्थापको में से एक बने। इस पार्टी में कई दिग्गज जैसे महारानी गायत्री देवी व राजमाता सिंधिया ने सदस्यता ली थी।
बढ़ती उम्र के साथ बहुत-सी स्वास्थ्य संबंधित परेशानियाँ होने लगती हैं। बसु ने लिखा है कि मेनन का अंत उनके जीवन की शुरुआत के जैसे ही चकाचौंध से दूर रहा। 31 दिसम्बर 1966 को, 72 वर्ष की आयु में, बंगलुरु के कूक टाउन में स्थित अपने घर पर उन्होने अंतिम सांस ली।
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उनके जीवन के बारे में पढ़ कर ख्याल आता है कि जिस व्यक्ति ने अखंड भारत की नींव रखने में इतना बड़ा योगदान दिया, जिनके हस्ताक्षर विलय के हर एक कागजात पर हैं, उनके योगदान को कितनी आसानी से भारत ने भुला दिया!
बसु सही ही लिखती हैं, “अब तक, वह व्यक्ति (मेनन) एक रहस्य बना हुआ है, बस विकिपीडिया पेज पर एक धुंधला-सा विवरण। आज सरदार की प्रतिमा गुजरात की धरती पर गर्व से खड़ी है, पर भारत के एकीकरण की कहानी वीपी मेनन के योगदान को याद किए बिना पूरी नहीं हो सकती।”
संपादन: निशा डागर
Summary: In 1947, as the struggle for India’s freedom was raging on, the Indian National Congress and the Government of India declared one objective—to politically integrate the country. Although it was Patel who created the initial framework to influence the Indian princes to accede, it was V. P. Menon who did the actual groundwork of coaxing them.