80 साल के भानुभाई चितारा को भारतीय हस्तकला को संजोने के लिए साल 2023 के पद्म श्री सम्मान के लिए चुना गया है। उन्हें यह सम्मान करीबन 400 साल पुरानी गुजराती हस्तकला ‘माता नी पचेड़ी’ को आज तक जीवित रखने के लिए दिया गया है।
चितारा परिवार ‘माता नी पचेड़ी’ कला पर काम करने वाले मुट्ठी भर परिवारों में से एक है। यह कहना गलत नहीं होगा कि देश में आज जो भी माता नी पचेड़ी कला पर काम कर रहा है, उन्होंने चितारा परिवार से ट्रेनिंग ज़रूर ली होगी।
यह भारतीय हस्तकला गुजरात के इतिहास से जुड़ी हुई है। माता नी पचेड़ी का शाब्दिक अर्थ है ‘माँ देवी के पीछे’। माना तो यह भी जाता है कि यह कला 3,000 साल से भी अधिक पुरानी है, कपड़े पर पेंटिंग की यह शैली देवी-देवताओं के अलग-अलग रूपों और उनकी कहानियों की दर्शाती है।
कहां से आई यह भारतीय हस्तकला?
इस कला में हाथों से पहले महीन चित्रकारी की जाती है, फिर इसमें प्राकृतिक रंग भरे जाते हैं। एक मान्यता के अनुसार इसकी शुरुआत गुजरात के एक ऐसे समुदाय ने की थी, जिन्हें जातिवाद के कारण मंदिर में आने से रोका जाता था। उस दौरान वे खुद ही देवताओं के चित्र बनाकर पूजा किया करते थे।
वहीं, कुछ मानते हैं कि यह कला मुगलों के समय से आई। भानुभाई चितारा के पोते ओम चितारा ने द बेटर इंडिया से बात करते हुए बताया, “इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं है कि यह शुरू कहाँ से हुई। लेकिन सालों से मेरा परिवार इस भारतीय हस्तकला से जुड़ा है। मैं, माता नी पचेड़ी बनाने वाला अपने परिवार की नौवीं पीढ़ी हूँ।”
उन्होंने बताया कि पहले यह चित्रकारी मात्र लाल और काले रंग से की जाती थी, लेकिन आज इसमें कई तरह के प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल हो रहा है। उनके दादा, पिता और चाचा इसकी ट्रेनिंग भी देते हैं। समय के साथ लोगों के बीच इस तरह की पारम्परिक कलाओं के प्रति रुचि बढ़ रही है। इसलिए लोग इसे खरीद रहे हैं और पसंद भी कर रहे हैं।
माता नी पचेड़ी कलाकारी को अलग-अलग आर्ट पीस के साथ साड़ी और दुपट्टे पर भी बनाया जा रहा है। ओम ने बताया कि उनके पिता को इस कला के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है और अब उनके दादा को पद्म श्री जैसा ख़िताब मिलना पूरे परिवार के लिए गर्व की बात है।
साथ ही उन्होंने बताया कि इस तरह के सम्मान से उनके जैसे पारम्परिक कलाकारों को भारतीय हस्तकला से जुड़े रहने की प्रेरणा मिलती है।
संपादन- अर्चना दुबे
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