42 साल की पुतली गंझू, झारखंड के हजारीबाग की रहनेवाली हैं। पुतली, बिल्कुल भी पढ़ी-लिखी नहीं हैं, लेकिन दीवारों पर उनकी कोहबर और सोहराई कला के जरिए बने चित्रों को देखहर कोई मंत्रमुग्ध रह जाता है।
वह कहती हैं, “हमारी कला, हमारी पहचान है। ‘पापा’ ने इसे निखारने के लिए हमारे पीछे, वर्षों मेहनत की और उसी का नतीजा है कि आज मेरी जैसी कई महिलाओं के इस हुनर से पूरी दुनिया वाकिफ है।”
हजारीबाग में पुतली जैसी 6000 से अधिक महिलाएं हैं, जिन्हें पर्यावरण कार्यकर्ता बुलू इमाम (Padma Shri Bulu Imam) के प्रयासों से एक नई पहचान मिली है। 80 साल के इमाम बीते तीन दशकों से भी अधिक समय से आदिवासी संस्कृति और विरासत को बचाने की मुहिम पर हैं और स्थानीय लोग प्यार से उन्हें ‘पापा’ कहते हैं।
सांस्कृतिक क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदानों के लिए बुलू इमाम (Padma Shri Bulu Imam) को साल 2019 में पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इससे पहले साल 2011 में उन्हें लंदन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स में ‘गांधी अंतरराष्ट्रीय शांति पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया था।
कैसे शुरू हुआ सफर?
बुलू इमाम (Padma Shri Bulu Imam) का जीवन काफी रोमांचक रहा है। 1960-70 के दौरान, वह एक बड़े शिकारी हुआ करते थे और उन्होंने कई हाथियों और आदमखोर बाघों को अपना शिकार बनाया। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें जंगलों से लगाव होने लगा और 1980 के दशक में वह एक पर्यावरण कार्यकर्ता के तौर पर उभरे।
वह कहते हैं, “मैंने 1980 के दशक में एक पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में काम करना शुरू कर दिया। तभी, 1985 में दामोदर घाटी में एक कोल प्रोजेक्ट की शुरुआत हुई। इस प्रोजेक्ट को एक ऑस्ट्रेलियाई कंपनी को दिया गया था, जिसके तहत 30 खदान बनाए जाने थे। लेकिन इस प्रोजेक्ट की वजह से 300 से अधिक गांव उजड़ रहे थे। इन्हीं चिन्ताओं के बीच, भारतीय सांस्कृतिक निधि (Intach) ने मुझसे मदद मांगी और इस प्रोजेक्ट के खिलाफ विरोध करने की अपील की।”
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फिर, 1986 में बुलू इमाम (Padma Shri Bulu Imam) ने इंटक हजारीबाग चैप्टर के संयोजक के रूप में बागडोर संभाली और दामोदर घाटी से लेकर हजारीबाग तक, पदयात्रा निकालकर प्रोजेक्ट का गांधीवादी तरीके से विरोध किया। उनके प्रयासों से प्रोजेक्ट तो रुका ही, उन्हें कुछ ऐसा भी हासिल हुआ, जिसके बारे में उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था।
वह कहते हैं, “1990 में, रात के समय एक स्कूल चलाने वाले पादरी, डॉ. टोनी रॉबर्ट ने बताया कि ‘इसको’ नाम की एक जगह पर एक रॉक साइट मिली है। इससे मेरी उत्सुकता जाग गई और मैं तुरंत उस ओर निकल पड़ा।”
बुलू इमाम (Padma Shri Bulu Imam) बताते हैं कि ‘इसको’ एक संस्कृत शब्द है, जिसका हिन्दी में अर्थ है – तांबा। उन्हें इस जगह पर एक बहुत बड़ा शैलचित्र (Rock Art) मिला और उन्होंने अपने आगे की खोजबीन शुरू कर दी।
कितना महत्व है इस खोज का?
साल 1991 में, बुलू इमाम (Padma Shri Bulu Imam) ने कर्णपुरा घाटी में एक दर्जन से भी अधिक शैलचित्रों की खोज की, जो 5000 साल से भी अधिक पुरानी थीं और इन रॉक आर्ट्स पर बनीं कलाकृतियों से ही, उन्होंने कोहबर यानी विवाह कला और मिट्टी के घरों पर बनी सोहराय (फसल) कला को पूरी दुनिया के सामने रखा।
इतना ही नहीं, आगे की खोज में उन्हें ताम्र पाषाण काल (2500 ईसा पूर्व) से लेकर पुरापाषाण काल (11000 ईसा पूर्व) तक के कई शैलचित्र मिले हैं। इसके अलावा, उन्होंने 1992 में गौतम बुद्ध से जुड़ी 12 गुफाओं की भी खोज की, जिसकी संख्या अब 22 हो चुकी है।
वह कहते हैं, “इन कलाओं में हिरण, गेंडा, भैंस जैसे जानवरों को दर्शाया गया है। मैंने अपनी रिसर्च से यह साबित कर दिया कि दोनों कलाएं प्रागेतिहासिक काल की हैं और मध्यप्रदेश के भीमबेटका रॉक शेल्टर और महाराष्ट्र के वारली पेंटिंग से भी अधिक पुरानी हैं।”
घर को ही दिया म्यूजियम का रूप
बुलू इमाम (Padma Shri Bulu Imam) ने कोहबर और सोहराय कला को बढ़ावा देने के लिए, 1993 में संस्कृति म्यूजियम एंड आर्ट् गैलरी की शुरुआत की। इस म्यूजियम को उन्होंने अपने घर में ही शुरू किया है। इस घर में 20 कमरे हैं और वह अपने बच्चों के साथ यहां रहते हैं।
इतना ही नहीं, वह अभी तक 30 राष्ट्रीय और 80 से अधिक अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों में भी हिस्सा ले चुके हैं और दुनिया में झारखंड की जनजातीय कला को एक नई पहचान दी है।
इसी कड़ी में वह कहते हैं, “मैंने दो साल पहले नेशनल गैलरी ऑफ कनाडा में एक प्रदर्शनी में हिस्सा लिया। इस प्रदर्शनी को ‘Abadakone’ नाम दिया गया था, जिसका अर्थ है अमर ज्योति। इसमें 40 देशों के कलाकारों ने हिस्सा लिया था। इस दौरान मैंने सोहराय कला के जरिए बनी एक 1200 वर्ग फीट की पेंटिंग को प्रदर्शित किया था। मेरी इस सोच से कनाडा की सरकार इतनी प्रभावित थी कि उन्होंने प्रोजेक्ट पर एक करोड़ रुपए खर्च कर दिए।”
हजारों महिलाओं को दी ट्रेनिंग
जनजातीय कला को बढ़ावा देने के लिए बुलू इमाम ने 1993 में Tribal Women Artists’ Cooperative नाम की एक संस्था को भी शुरू किया। इस संस्थान की शुरुआत सिर्फ 30 महिलाओं के साथ हुई थी। लेकिन आज इससे छह हजार से अधिक महिलाएं जुड़ी हुई हैं। इसके अलावा उन्होंने एक सोहराय स्कूल को भी खोला है, जिसमें हर दिन 60 बच्चे इस प्राचीन कला को सीखने के लिए आते हैं।
हालांकि, अब अधिक उम्र होने के कारण बुलू इमाम (Padma Shri Bulu Imam) ज्यादा काम नहीं कर पाते हैं। इसलिए उनकी जिम्मेदारी अब उनके दोनों बेटे जस्टिन और गुस्तव संभालते हैं।
आपसी बैर भाव भुलाना जरूरी
बुलू इमाम (Padma Shri Bulu Imam) अंत में लोगों से अपील करते हुए कहते हैं, “हम दुनिया की सबसे महान और प्राचीन सभ्यताओं में से एक हैं। हमें इसे बचाने के लिए आपस में भाईचारा बनाए रखना होगा। हमें जाति-धर्म, ऊंच-नीच, सबकुछ भुला कर सिर्फ देश के लिए काम करना होगा। तभी हम अपने उद्देश्यों में सफल हो पाएंगे।”
अपने प्रयासों से ‘दामोदर घाटी सभ्यता’ को दुनिया के सामने लाने वाले ‘पद्म श्री’ बुलू इमाम (Padma Shri Bulu Imam) को द बेटर इंडिया सलाम करता है।
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