सुबह जल्दी उठकर, जंगल पार करके या फिर घुटनों तक पानी से भरी नदी पार करके या फिर घंटो पैदल चलकर स्कूल पहुंचने की बहुत-सी कहानियाँ हम सबने अपने दादा-दादी से सुनी हैं। उनकी बातें सुनकर लगता था कि जैसे जन्मों पुरानी बात है, अब थोड़े ही ऐसा होता है। भला कौन पैदल जाता है स्कूल इतना चलकर, अब तो बस या कैब लेने आती है।
लेकिन भारत के बहुत से इलाकों में आज भी बच्चे इसी तरह की मुश्किलों को पार करके स्कूल पहुँचते हैं। बहुत बार स्कूल आने-जाने का साधन उपलब्ध न होने के कारण बच्चों का स्कूल छूट जाता है।
ऐसी ही कुछ कहानी है, महाराष्ट्र के कोसबाड गाँव के पद्मश्री अनुताई वाघ माध्यमिक स्कूल के 20 बच्चों की। जिन्होंने साल 2018 में आई भयंकर बारिश के बाद स्कूल जाना छोड़ दिया था। दरअसल, ये सभी बच्चे गाँव के बाहरी इलाके में रहते हैं। इस वजह से इनके घर और स्कूल के बीच की दूरी लगभग 8 किमी है।
बारिश की वजह से गाँव के कच्चे रास्तों में बुरी तरह से कीचड़ हो गया और साथ ही, गड्डों में घुटनों तक पानी भरे होने के कारण इन बच्चों का स्कूल जाना दूभर हो गया था। फिर पूरे छह महीने के गैप के बाद, जनवरी 2019 से इन बच्चों ने एक बार फिर स्कूल जाना शुरू किया।
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और सबसे अच्छी बात है कि अब इन छात्रों को पैदल चलकर जाने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि अब इन सबके पास अपनी साइकिल है।
इन बच्चों की ही तरह, पालघर जिले के भी 500 आदिवासी छात्र-छात्राओं के लिए भी साइकिल होने के कारण अपने घर से स्कूल तक की दूरी तय करना आसान हो गया है। इस वजह से स्कूल में ड्रॉप आउट रेट भी कम हुआ है।
इस बदलाव का श्रेय जाता है डॉ. सुवास दार्वेकर को, मुंबई के एक डेंटिस्ट, जो साल 2015 से ‘साइकिल फॉर चेंज’ अभियान चला रहे हैं।
साइकिल डोनेट करने के नेक काम को करके डॉ. सुवास उस नेकी को वापस लौटा रहे हैं जो कभी उन्हें बचपन में मिली थी। डॉ. सुवास मुंबई की झुग्गी-झोपड़ियों में पले-बढ़े, जहाँ दो वक़्त की रोटी मिलना भी बड़ी बात है और पढ़ाई कर पाना तो बहुत अच्छी किस्मत। लेकिन परेशानियां चाहें जितनी भी रही हों, डॉ. सुवास ने पढ़ाई के साथ समझौता नहीं किया।
द बेटर इंडिया से बात करते हुए वे बताते हैं,
“मैं अपने घर से स्कूल पहुँचने के लिए रोज़ बस पकड़ता था। कम उम्र में ही मुझे शिक्षा का महत्व समझ में आ गया था और इसलिए चाहे कुछ भी हो जाए, मैं कोशिश करता था कि एक दिन भी मेरा स्कूल न छूटे। स्ट्रीटलैंप के नीचे बैठकर पढ़ना, फटी हुई वर्दी पहनना और नंगे पैर चलना, मैंने ये सब किया है।”
“आज मैं एक डेंटिस्ट हूँ क्योंकि मेरे स्कूल के दोस्तों, शिक्षकों, पड़ोसियों और कुछ नेक दिल अजनबियों ने मेरी मदद की। अब जब मैं टेबल के दूसरी साइड हूँ तो मैं अपनी तरफ से जो भी कर सकता हूँ, वह करने की कोशिश करता हूँ,” उन्होंने आगे कहा।
डॉ. दार्वेकर अपने एनजीओ संगीता दार्वेकर चैरिटेबल ट्रस्ट के तहत जब वे पालघर जिले में कैंप आयोजित कर रहे थे, तब उन्हें बच्चों को साइकिल देने का आईडिया आया।
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“हम बहुत समय से इन आदिवासी इलाकों में मुफ़्त मेडिकल कैंप लगा रहे हैं। इन कैंप के दौरान मैं ऐसे एनजीओ से मिलता रहता था जो इन बच्चों को स्टेशनरी आदि देते हैं। इनसे बातचीत करते समय मुझे पता चला कि ट्रांसपोर्ट की कमी के कारण स्कूल में ड्रॉप आउट रेट बढ़ रहा है। हर कोई स्कूल के बच्चों की मदद करना चाहता है पर कोई नहीं सोचता कि इन बच्चों को स्कूल कैसे पहुँचाया जाए। इस तरह साइकिल डोनेशन प्रोजेक्ट शुरू हुआ,” उन्होंने कहा।
डॉ. दार्वेकर कहते हैं कि यदि कोई मदद करना चाहता है तो या तो साइकिल डोनेट कर दे या फिर आर्थिक मदद भी लोग कर सकते हैं!
शुरू में, वे बच्चों को मुफ़्त में साइकिल दे रहे थे पर फिर उन्हें पता चला कि बहुत-से बच्चों के माँ-बाप साइकिल बेच देते हैं और बच्चों को फिर पैदल चलना पड़ता है। इसलिए, अब वे साइकिल मुफ़्त देने की बजाय उनसे 1500 रुपए लेते हैं और बाकी पैसे वे खुद या फिर डोनेशन से जुटाते हैं।
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अगले महीने से, डॉ. दार्वेकर एक नया साइकिल बैंक प्रोजेक्ट शुरू करने जा रहे हैं। इस प्रोग्राम के तहत वे बच्चों से लिए गए पैसों को स्कूल पूरा होने पर वापस कर देंगे और फिर उनसे साइकिल लेकर किसी दूसरे बच्चे को दे दी जाएगी।
डॉ. दार्वेकर द्वारा लिए जा रहे नेक कदम, इस बात का प्रमाण है कि अच्छा काम चाहे छोटा हो या बड़ा, पर किसी की भी ज़िंदगी बदल सकता है। यदि आप साइकिल डोनेशन फण्ड में डॉ. सुवास दार्वेकर की मदद करना चाहते हैं तो यहाँ क्लिक करें!
संपादन: भगवती लाल तेली
मूल लेख: गोपी करेलिया