साल 1980 और नवबंर का वो पहला सप्ताह ही तो था जब लोबज़ंग ज़ोत्पा नाम के एक बौद्ध भिक्षु ने आर्मी ट्रक पर बैठकर आपनी यात्रा शुरू की थी। वह लेह में लम्डोन मॉडल सीनियर सेकेंडरी स्कूल के शिक्षक भी थे। ज़ोत्पा खूबसूरत नुब्रा घाटी जा रहे थे ताकि लम्डोन वेलफेयर सोसाइटी के अंतर्गत इस इलाके का पहला इंग्लिश-मीडियम स्कूल खोल सकें।
हालांकि, बहुत से लोगों ने उनके इस सपने का मजाक बनाया, पर उन्होंने हार नहीं मानी और उनकी मेहनत रंग लायी। पिछले चार दशकों में नुब्रा घाटी के दिस्कित गाँव स्थित लम्डोन मॉडल स्कूल ने गरीब तबकों से आने वाले 5 हज़ार से भी ज्यादा बच्चों को यहाँ से पास होकर सफल इंजीनियर, डॉक्टर, आर्मी अफसर, पुलिस अफसर और शिक्षक बनते हुए देखा है।
संघर्ष:
अपने सफर के बारे में द बेटर इंडिया से बात करते हुए, ज़ोत्पा ने बताया, “शुरू में स्कूल में सिर्फ 9 छात्र थे। बिना किसी फंड के मैंने दिस्कित गाँव के लोगों से बात की और उन्होंने हमें स्कूल बनाने के लिए एक एकड़ ज़मीन दी। हर एक घर ने स्कूल के निर्माण के लिए 10 रुपये, 50 रुपये या फिर कुछ ने लकड़ी, पत्थर, और रेत आदि निर्माण सामग्री दान में दी।”
उस समय सड़कें न होने के कारण ट्रांसपोर्टेशन भी एक समस्या थी और इस क्षेत्र में भी उन्हें मदद की ज़रूरत पड़ी। एक आदमी ने उन्हें निर्माण सामग्री लाने के लिए अपना ऊँट दिया और एक किसान ने भारी सामान जैसे पत्थरों के ट्रांसपोर्ट के लिए अपना ट्रैक्टर दिया। एक-दो साल तक स्थानीय लोगों से मदद मिलने के बाद उन्हें वहां के पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट और आर्मी से भी मदद मिली।
“बिल्डिंग बनने से पहले, बच्चों की क्लास दिस्कित मठ के किराए के कमरों में चलती रही। स्कूल की जगह पर कुछ कमरे बनने के बाद हमने छात्रों को वहां शिफ्ट कर दिया। यहाँ दो कक्षाएं और मेरे रहने के लिए एक कमरा था। शुरू में यहाँ कोई दरवाजे या खिड़की नहीं थी तो खुद को ठंड से बचाने के लिए हमने आर्मी के पुराने पैराशूट का इस्तेमाल किया,” उन्होंने कहा।
साल 1983 में नर्सरी से उनकी कक्षाएँ शुरू हुई, लेकिन जैसे-जैसे बच्चे आने लगे तो उन्हें अंदाज़ा हुआ कि स्कूल के लिए और जगह चाहिए। एक बार फिर गाँव के लोगों और सरकार ने मदद की। उन्हें उसी गाँव में अपने स्कूल का क्षेत्र बढ़ाने के लिए 20 कनाल ज़मीन और दी गयी।
आज जो स्कूल आप देखते हैं उसे साल 1989-2010 के बीच, समय-समय पर पूरा किया गया है, जिसमें कुछ और कक्षाएँ, हॉल और हॉस्टल शामिल हैं।
इस सबको बनाने के लिए गाँव के लोगों के साथ-साथ कुछ यूरोपियन देशों में रहने वाले लोगों से भी मदद मिली जैसे कि फ्रांस, बेल्जियम, जर्मनी आदि। ये सभी लोग टूरिस्ट के तौर पर लद्दाख आये थे और ज़ोत्पा की पहल से प्रभावित होकर उनकी मदद की।
आज इस स्कूल में 300 छात्र पढ़ रहे हैं और हॉस्टल में 70 बच्चों को रखा जा सकता है। यहाँ पर आठवीं कक्षा तक पढ़ाई होती है और फिर इन बच्चों को लम्डोन स्कूल, लेह भेज दिया जाता है।
सपने से हक़ीकत तक का सफर:
1980 के समय में लद्दाख के बहुत से माता-पिता के लिए बच्चों की पढ़ाई उनकी प्राथमिकता नहीं थी। वे उन्हें पास के सरकारी स्कूल में ही पढ़ाकर संतुष्ट थे क्योंकि इससे वे उनकी खेतों में और घर में मदद कर पाते थे। किसी दूर गाँव में एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल में बच्चों को भेजना जहां उनकी महीने की फीस भरनी पड़े – ये परिवार के लिए बहुत बड़ा फैसला हुआ करता था।
इस स्कूल में छठी कक्षा तक पढ़े, एक ईएनटी स्पेशलिस्ट डॉक्टर और लद्दाखी सोशल एक्टिविस्ट, डॉ. नॉर्दन ओतज़र ने कहा, “जब ज़ोत्पा खुद मेरे घर बात करने के लिए आये तो मेरे माता-पिता ने अपने चार बच्चों में से मुझे इस स्कूल में भेजने का फैसला किया। शुरू में, ज़्यादातर बच्चे दिस्कित से हुआ करते थे क्योंकि हॉस्टल की सुविधा नहीं थी। अगर आप किसी दूर गाँव से हैं तो आपको अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ रहना पड़ता था।”
वर्तमान के एक पुलिस अफसर, एसपी स्टनज़िन लोसल (जो स्कूल के पहले बैच का हिस्सा रहे हैं) कहते हैं कि, “उस ज़माने में नुब्रा इलाके में अंग्रेजी मीडियम स्कूल होना बहत बड़ी बात थी। लेकिन मेरे माता-पिता को ज़ोत्पा की सोच पर पूरा भरोसा था।”
ज़ोत्पा इस स्कूल में ज्यादा से ज्यादा बच्चों को दाखिला इसलिए दिला सके क्योंकि उनमें ऐसे विदेशी लोगों को ढूंढने की क्षमता थी जो बच्चों की शिक्षा के लिए स्कॉलरशिप दे पाएं।
“उस समय लेह में लम्डोन मॉडल स्कूल के प्रिंसिपल, तुंदुप दोरजे की मदद से हमें फ्रांस, जर्मनी, बेल्जियम से स्पॉन्सर मिले। ये कुछ सोशल संगठन, एनजीओ, सोसाइटी थे जो कि गरीब बच्चों की ट्यूशन और हॉस्टल फीस फंड करने के लिए तैयार थे। एक बार जब स्पॉन्सर मिलने शुरू हो गये तो ज्यादा बच्चों ने दाखिला लेना शुरू किया,” ज़ोत्पा ने बताया।
स्कूल के वर्तमान हेडमास्टर, मिस्टर स्पलजोंग बताते हैं कि ज़ोत्पा के प्रयासों से आज 60 बच्चों को स्कॉलरशिप मिल रही है।
स्कूल के लिए अच्छे शिक्षक ढूँढना भी एक चुनौती थी। बहुत मुश्किल से उन्हें दो स्थानीय शिक्षक मिले। लेकिन ज़ोत्पा ने सिर्फ उन पर निर्भर नहीं किया बल्कि उन्होंने लेह में अपने कुछ परिचित और तिब्बत की रिफ्यूजी कम्युनिटी से बात की। वह कहते हैं कि आज उनके यहाँ सभी अच्छे शिक्षक हैं और अब उन्हें शिक्षक ढूंढने में करने में कोई परेशानी नहीं होती।
भले ही यह एक इंग्लिश मीडियम स्कूल है लेकिन स्कूल में स्थानीय भाषा, बोधि भाषा पढ़ाने और अपनी संस्कृति बच्चों को सिखाने पर काफी जोर दिया जाता है। हेडमास्टर स्पलजोंग कहते हैं, “मैं सरकारी स्कूल से पढ़ा हूँ लेकिन मेरे दो छोटे भाई यहाँ पढ़े हैं। यहाँ पर मिलने वाली शिक्षा और नैतिकता की वजह से आज एक इंजीनियर है और दूसरा इंटेलिजेंस ब्यूरो में अफसर है। यहाँ के ज़्यादातर बच्चे आगे चलकर अपने क्षेत्र में ऊँचे से ऊँचे पद पर पहुँचते हैं।”
शिक्षा पर जोर क्यों?
लोबज़ंग ज़ोत्पा, नुब्रा घाटी के खूबसूरत पनामिक गाँव में एक गरीब किसान परिवार में जन्मे। जब वह दस साल के थे तो उनकी इच्छा हुई कि वे दिस्कित मठ में भिक्षु बनें। उस समय गरीब परिवार के लोग अपने घर के एक बच्चे को भिक्षु बनने के लिए भेज देते थे। यहाँ तो फिर बच्चा खुद चाहता था तो उनके माता-पिता मान गये।
उन्हें नहीं पता था कि उनका यह फैसला आने वाले समय में और न जाने कितने लोगों के लिए भलाई का ज़रिया बनेगा।
“मैंने अपनी मैट्रिक तक लेह में एक बौद्ध संस्थान में पढ़ाई की, जिसके बाद मुझे वाराणसी भेजा गया और सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ़ हायर तिबेतन स्टडीज में पढ़ाई की। अपनी पढ़ाई खत्म करने के बाद, मैंने दो -तीन साल तक लेह के लम्डोन मॉडल स्कूल में हिंदी और बोधि भाषा पढ़ाई और फिर मुझे नुब्रा भेजा गया। मुझे अपनी शिक्षा के लिए एक संस्थान द्वारा मदद मिली थी, लेकिन नुब्रा में बहुत से गरीब बच्चों के पास ये मौका नहीं था और इस वजह से उन्हें अच्छी शिक्षा नहीं मिल पाती थी। यहाँ एक अंग्रेजी-माध्यम स्कूल शुरू करके, मैं इस स्थिति बदलना चाहता था,” ज़ोत्पा ने कहा।
डॉ. ओतज़र कहते हैं कि ज़ोत्पा उन शिक्षकों में से हैं जिन्होंने अपने हर एक छात्र पर गंभीरता से ध्यान दिया और उनकी देख-रेख की। आज वे जो कुछ भी हैं, ज़ोत्पा की वजह से हैं।
दुनिया के लिए भी:
ज़ोत्पा ने इस स्कूल का निर्माण करने के अलावा नुब्रा घाटी में पेड़-पौधों की कटाई के खिलाफ अपनी पहल शुरू की। इस क्षेत्र की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और स्वच्छता के बारे में भी आम जनता को जागरूक किया।
“लम्डोन स्कूल जिस ज़मीन पर खड़ा था वह पूरी तरह से बंजर थी लेकिन अब एक मिनी जंगल में बदल गयी है। हाल ही में, स्कूल का विस्तार किया गया और एक नयी इमारत बनाई गयी। इसके लिए लकड़ियाँ उन्हीं पेड़ों से लाया गया जिन्हें लगाने में ज़ोत्पा ने मदद की थी। हॉस्टल भी उन 130 पेड़ों की मदद से बना जिन्हें वर्षों पहले ज़ोत्पा ने खुद बोया था। SECMOL (Students’ Educational and Cultural Movement of Ladakh) की मदद से आज स्कूल में सोलर पॉवर्ड क्लासरूम है। ज़ोत्पा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का निर्देशन करके, बहुत सी सामाजिक गतिविधियों के लिए पैसे जुटाते हैं, गाँवों का दौरा करके पर्यावरण संरक्षण और व्यक्तिगत स्वच्छता के संदेश का प्रसार करते हैं,” डॉ.ओतज़र ने कहा।
ज़ोत्पा ने स्कूल की सभी गतिविधियों से 2016 में रिटायरमेंट ली। आज वह ज्यादातर समय पनामिक गाँव स्थित अपने घर में आराम और ध्यान करते हुए बिताते हैं। उनसे बात करते हुए पता चलता है कि उन्हें इस बात का कोई अंदाज़ा नहीं कि उन्होंने अपने कामों से न जाने कितनी ज़िंदगियों को प्रभावित किया है।
संपादन- अर्चना गुप्ता