विरोधी रंग हो या समीपवर्ती, एक ही रंग की रंगतें हो या भिन्न-भिन्न रंगों की, सभी में इन्द्रधनुषी चमत्कार पैदा करने में माहिर जोधपुर के मोहम्मद तैय्यब खां एक ऐसे सिद्धहस्त शिल्पी हैं, जिन्होंने न केवल पारम्परिक बन्धेज को नए आयाम दिए, बल्कि विदेशों में अभी तक मशीनों से होते आए ‛शेडिंग’ कार्य को भी अपने हाथों से अंजाम देकर बंधेज कला को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्थापित किया है।
राजस्थान के ‘सूर्यनगर’ कहे जाने वाले जोधपुर में हसन मोहम्मद खां के घर 8 फरवरी, 1956 को जन्मे मोहम्मद तैय्यब खां को बंधेज कला में उल्लेखनीय योगदान के लिए 21 मार्च, 2001 को भारत के चौथे सर्वोच्च नागरिक अलंकरण सम्मान ‘पद्म श्री’ से तत्कालीन राष्ट्रपति के. आर नारायणन ने सम्मानित किया था।
तैय्यब खां को प्राप्त यह सम्मान उन्हें आम बन्धेज कारीगरों की भीड़ से जुदा तो करता ही है, साथ ही यह भी दर्शाता है कि उनकी कला में कुछ तो खास है, जिसका प्रतिफल उन्हें प्राप्त हुआ है।
पिछली 8 पुश्तों से तैय्यब खां की पीढ़ी में यह कार्य होता आया है, जिससे जाहिर है कि यह इनका पुश्तैनी पेशा है। आज वह इस उद्योग के प्राचीन काम को नियंत्रित कर उसकी मौलिकता को संभालने-संवारने में जुटे हुए हैं, जिसमें वक्त के साथ काफी बदलाव आ चुका है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता है कि वे विदेशों में मशीनी तकनीक से हो रहे कार्य को भारत में हाथों से और वह भी ट्रेडिशनल शैलियों में करने की महारथ रखते हैं।
बंधेज कार्य में भी पचरंगी और सतरंगी रंगत डालने के माहिर यह कलाकार 8 साल की उम्र से बंधेज कला का काम करते आ रहे हैं।
वह कहते हैं, “बात परिवर्तन की करें तो मेरे दौर का बंधेज तो आज की तारीख में लुप्त प्रायः क्या खत्म ही हो गया है। इस फील्ड में भी मॉर्डनिटी इतनी हावी हो चुकी है कि आप कल्पना भी नहीं कर सकते? हमारे बुजुर्गों के दौर में जो आर्टिस्टिक और ट्रेडिशनल कार्य होता था, उसको मौजूदा दौर के कलाकारों ने ‛चालू काम’ बनाकर छोड़ दिया है, लोगों ने इस कला को ‘ऑनली फॉर बिजनेस’ बना दिया है। ‛आर्टिस्टिक टच’ खत्म कर ‘कमर्शियल’ फायदे ध्यान में रखे जा रहे हैं।”
मोहम्मद तैय्यब खां इस दौर में एकमात्र ऐसे कलाकार होने का दावा करते हैं जिन्होंने ‘ट्रेडिशनल’ आर्ट को ‘लेटेस्ट’ में डाला पर इसके बावजूद भी ट्रेडिशनल टच को गायब नहीं होने दिया। उन्होंने हमेशा कच्ची चीज़ को पारम्परिक प्रयोगों के साथ जीवित करने की कोशिश की है। जो ट्रेडिशनल वर्क टोटल कच्चा था, उसको फास्ट किया, लेकिन इस हिसाब से कि पानी लगने पर भी रंग खराब न हो।
अपने आप में भारत का 50% बंधेज हैं
ट्रेडिशनल वर्क को फोलो करने वाले वे देश के गिने चुने कलाकारों में से एक हैं। जहां लोग बड़ी बूंदों के जाल में उलझ जाते हैं, वहीं लोग आर्ट की बारीकी के लिए इनके पास आते हैं। भारत के जाने-माने फैशन डिजाइनरों तरुण तहलियानी, सुनील वर्मा, रितु कुमार और वर्ल्ड फैशन सप्लायर समीना, जिनका कार्यालय पेरिस में है, इनसे अपना आर्ट वर्क करवाते हैं। इसके अलावा अहमदाबाद, उत्तरप्रदेश, दिल्ली, मुंबई के 80% फैशन डिजाइनरों के लिए भी वे काम करते हैं।
शेडिंग-विदेशों में मशीनों से, भारत में हाथों से
भारत में शेडिंग के जन्मदाता और पर्याय कहे जाने वाले पद्म श्री खां ने शेडिंग का जो कार्य अब तक भारत में रेशम गाज और मलमल पर हुआ करता था, उसे थिक शिफॉन, थिक सिल्क और थिक ड्रेस मेटेरियल में कर दिखाने में महारथ हासिल की। शेडिंग के इसी कार्य को उन्होंने चुंदडी और प्लेन की बजाय लहरिये में भी अंजाम दिया।
क्या है शेडिंग?
शेडिंग की यह विशेषता है कि उसमें हर रंग का अपना वजूद होता है। वे परस्पर एक दूसरे की सीमा तोड़े बिना आपस में इस तरह घुलमिल जाते हैं कि पता नहीं चलता कि एक रंगत हल्की होती हुई दूसरी गहरी रंगत में कहां समा गई? इनके रंग की एक और विशेषता है कि जहां दो रंग परस्पर मिलते हैं, वहां तीसरा रंग नहीं बनता, जबकि प्रायः दो रंगों (रंगतों) के मिलने से तीसरी रंगत बन जाने की पूरी संभावना रहती है।
इसी प्रकार प्रचलित लहरिये और पचरंगे में प्रायः अलग-अलग रंगों की सॉलिड पट्टियां डाल दी जाती हैं, किन्तु इनकी रंगत में एक ही रंग की अलग-अलग रंगतें होती हैं और यदि अलग-अलग रंगों की रंगतें होती भी हैं तो भी वे एक-दूसरे में इस तरह मिश्रित होती हैं कि एक-दूसरे में समाई हुई अलग-अलग अस्तित्व के रूप में दिखाई देती हैं।
उनकी कला के कद्रदानों की एक बानगी
कश्मीर, जोधपुर, ग्वालियर, जयपुर इत्यादि राजघरानों के लिये काम कर चुके तैय्यब को तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन व उनकी पुत्री चैल्सिया को भारत यात्रा पर साफे व परिधान भेंट करने का मौका मिला। तत्कालीन केन्द्रीय वित्तमंत्री जसवन्त सिंह जसोल, तत्कालीन उपराष्ट्रपति भैरो सिंह शेखावत को भी पदभार ग्रहण करने के बाद पहली बार जोधपुर आने पर साफे उनकी तरफ से पहनाएं गए। राजस्थान रॉयल्स टीम के लिए भी उन्होंने डिज़ाइन वर्क किया। राज कपूर, संजीव कुमार, मीना कुमारी से लेकर जीनत अमान, पूर्णिमा, नाजिमा, दिलीप कुमार, शर्मिला टैगोर, रेखा, मनीषा कोइराला, तब्बू, करिश्मा कपूर, रोहित बाल व गोल्डी हॉन जैसी अदाकारा व मॉडल क्रिस्टी टर्सिगस जैसी हस्तियां इनके द्वारा बनाए गए बंधेज उत्पादों के ग्राहक रहे हैं। मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर ने भी उनका तैयार साफा पहना है।
रंग-रंगीले बंधेज की परिभाषा
बंधेज एक प्रकार की नैसर्गिक कला है, जिसमें खत व बूंद की बंधाई के अनुसार कई डिजाईनें बनती हैं। बंधेज बनाना आसान कार्य है। सर्वप्रथम सूती, शिफॉन, सिल्क, जार्जट, साटन, मलमल या जिस पर चाहें गेरू से भातें छापी जाती हैं, इन्हीं छापों के आधार पर बंधेज का कार्य करने वाली महिलाएं बूंदे बांधने का कार्य करती हैं। बूदें बांधने का कार्य परिश्रमपूर्ण होता है। इसमें चित्त एकाग्रता जरूरी होती है। बूंदे बंध जाने पर रंगाई की जाती है। पहली रंगाई हो जाने के पश्चात कपड़े को वापस बूंद बांधने वाली स्त्रियों के पास लाया जाता है। बूंदें बांधने वाली स्त्रियों के पास इस कपड़े को लाना इस बात का सूचक है कि जितने रंग की रंगाई करनी हो, उतनी बार बूंदे बांधनी पड़ती हैं। रंगाई बूंदें बंधने के पश्चात की जाती है।
बंधेज में सामान्यतया 2-3 रंग क्रमशः लाल, हरा, पीला ही काम में लिए जाते हैं। रंगाई का सिद्धांत हमेशा पहले हल्के व बाद में तेज रंग से रंगने का होता है।
आजकल रासायनिक रंगों का भी इस्तेमाल बंधेज क्षेत्र में होने लगा है। इस पद्धति में जिस जगह पर कुछ विशेष रंग में बूंदे बनानी हो, उस जगह को पहले रंग देते हैं, बाद में कपड़े पर ब्लीच कर दिया जाता है। ऐसा करने पर बंधी हुई बहुरंगी बूंदे रह जाती हैं और शेष रहा कपड़ा सफेद हो जाता है।
इस कला में औरतें बूंदे बांधने, बच्चे उन्हें खोलने और पुरूष रंगाई और निचोड़ने का कार्य करते हैं। बहुत ही कम लोग जानते हैं कि बंधेज की रंगाई-छपाई और उससे तैयार माल का प्रमुख केन्द्र जयपुर है पर फिर भी बंधेज की सबसे बड़ी मण्डी जोधपुर ही है।
अब तक लगभग 500 परिवारों को रोटी रोजी से जोड़ चुके पद्मश्री खां बताते हैं कि प्रत्येक महिला की आकांक्षा होती है कि जब वह अपनी संस्कृति को खोजती हुई जोधपुर पहुंचे तो वह देश के सुप्रसिद्ध रंगरेज से ‘जोधपुरी चूंदड़ी’ खरीदकर अवश्य पहने।
कहा भी गया है…
‘‘म्हारे मन एक साथ है, पीय लागूं तू अपाय
जोधाणा री चूंदड़ी, दीजो राज मंगाय।’’
बंधेज परिधानों के नाम
● लहरिया: कपड़े को एक सिरे से दूसरे सिरे तक बांधने से जो धारियां बन जाती हैं, ‘लहरिया’ कहलाती हैं।
● मोठड़ा: लहरिया की धारियां एक दूसरे को काटती हुई होती हैं तो उसे ‘मोठड़ा’ कहते हैं।
● चूंदड़ी: बूंदों के आधार पर जो डिजाइनें बनती हैं, उसे ‘चूंदड़ी’ कहते हैं।
● धनक: यदि बड़ी-बड़ी चौकोर बूंदों युक्त बंधेज होता है तो ‘धनक’ कहलाता है।
● पोमचा: ओढ़ने में यदि चारों तरफ कोरा पल्ला और बीच में बड़े-बड़े गोल फूल हो तो ‘पोमचा’ कहलाता है। पदम से बिगड़ता हुआ पोमचा कहलाया। पदम को वंशवृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
आज दिन तक सद्य प्रसूता को पोमचा पहनाने का रिवाज है। सुअवसरों पर लाल कोरों की पल्लों वाला पीला ‘पोमचा’ धारण किया जाता है, इस कारण इसे ‘पीला’ भी कहा जाने लगा है।
मोहम्मद तैय्यब खां इन दिनों 63 वर्षीय पद्मश्री खां अपनी धर्मपत्नी नसीम, जहां आरा, बेटे जावेद और पौते अर्श के साथ इस कला को और उन्नत बनाने में जुटे हुए हैं।
अगर आपको मोहम्मद तैय्यब खां की कहानी अच्छी लगी और आप उनसे संपर्क करना चाहते हैं या खरीदारी करना चाहते हैं तो 09829548786 पर बात कर सकते हैं।
संपादन – भगवती लाल तेली