बीसवीं सदी में एक ऐसा दौर भी आया, जब दुनिया भर के कलाकारों में सबसे अलग और लीक से हटकर काम करने का जुनून बढ़ने लगा था। उस दौर के इसी चलन ने दुनिया को ऐसे कलाकर दिए, जिन्होंने इतिहास में अपनी एक अमिट छाप छोड़ी।
इन्हीं कुछ अलग कलाकरों में से एक थीं भारत की पहली बोल्ड, बेबाक और सबसे महँगी पेंटर – अमृता शेरगिल।
कोई 20-22 साल की उम्र रही होगी अमृता की जब उन्होंने कहा था,
“मैं सिर्फ़ हिंदुस्तान में चित्र बना सकती हूँ। यूरोप तो पिकासो, मैटिस का है….. हिंदुस्तान सिर्फ़ मेरे लिए है।”
आज से दशकों पहले इस बात को कहने वाली अमृता शेरगिल वह कलाकार थीं, जो अपने समय से बहुत आगे थीं। सिर्फ 28 साल की छोटी-सी ज़िन्दगी में अमृता ने इतिहास को उन गहरे रंगों से भर दिया जिनकी छाप आज भी फीकी नहीं पड़ी है और शायद इसलिए उनकी ज़िन्दगी भले ही लम्बी नहीं थी पर बहुत बड़ी थी!
अमृता शेरगिल का जन्म 30 जनवरी, 1913 को बुडापेस्ट, हंगरी में हुआ। उनके पिता उमराव सिंह शेरगिल मजीठिया संस्कृत और पारसी के विद्वान व्यक्ति थे। उनकी माँ मेरी अन्तोनेट्टे गोट्समान हंगरी की एक यहूदी ओपेरा गायिका थीं। उनकी एक छोटी बहन भी थी जिसका नाम इंद्रा सुंदरम था।
उनका बचपन बुडापेस्ट में ही बीता। साल 1921 में उनका परिवार शिमला के पास समरहिल में रहने आ गया। यहां उन्होंने पियानो और वायलिन सीखना शुरू किया।
चित्रकारी के साथ अमृता का रिश्ता पांच साल की कच्ची उम्र में ही बंध गया था। आठ साल की उम्र से वे चित्रकारी का प्रशिक्षण लेने लगी थीं। साल 1923 में अमृता इटली के एक मूर्तिकार के संपर्क में आर्इं, जो उस समय शिमला में ही थे और 1924 में वे उनके साथ इटली चली गर्इं।
पर अमृता के मन में भारत बस चूका था। वे बीच में भारत लौटीं और यहाँ की कला भी सीखी। लेकिन फिर 16 साल की उम्र में पूरे परिवार के साथ पेरिस चली गयीं ताकि चित्रकारी का प्रशिक्षण ठीक से हो सके।
इसके बाद वे छह साल यूरोप में रहीं। उनकी शुरूआती पेंटिंग्स में यूरोपिय प्रभाव साफ़ झलकता है। साल 1930 में ‘नेशनल स्कूल ऑफ फाइन आर्ट्स इन पेरिस’ से उनको ‘पोट्रेट ऑफ अ यंग मैन’ के लिए एकोल अवॉर्ड मिला। साल 1933 में उनको ‘एसोसिएट ऑफ ग्रैंड सैलून’ चुना गया। इतनी कम उम्र में ये जगह पाने वाली पहली एशियाई और भारतीय थीं अमृता शेरगिल।
साल 1934 में भारत वापस आकर उन्होंने अपने आप को भारत की परंपरागत कला की खोज में लगा दिया। यहाँ उनकी चित्रकारी का दूसरा दौर शुरू हुआ। अमृता ने एक तरफ जहां भारतीय आम-जनजीवन को रंगों से जीवंत किया, वहीं पहली बार आम भारतीय महिलाओं को कैनवास पर लेकर आईं।
उन्होंने अजंता की गुफाएं, दक्षिण भारत की संस्कृति, बनारस आदि को कैनवास पर उतारते-उतारते अनजाने में ही एक नए युग की शुरुआत कर दी थी। क्लासिकल इंडियन आर्ट को मॉर्डन इंडियन आर्ट की दिशा देने का श्रेय अमृता शेरगिल को ही जाता है।
साल 1937 में लाहौर में एक कला प्रदर्शनी आयोजित हुई थी। यहाँ अमृता शेरगिल की 33 कलाकृतियाँ सम्मिलित हुईं और लोगों की दिलचस्पी उनकी कला में बढ़ती ही गयी। बाद में इस प्रदर्शनी की अवधि बढ़ानी पड़ी। लोग बार-बार अमृता का काम देखने के लिए आ रहे थे।
‘द ब्राईड्स टॉयलट (दुल्हन का श्रृंगार कक्ष),’ ‘ब्रह्मचारी’, ‘विलेजर्स इन विंटर (जाड़ों में गांववाले),’ ‘मदर इंडिया (भारत माता)’ सरीखी पेंटिंग इस प्रदर्शनी में शामिल थीं।
साल 1941 में अमृता गंभीर रूप से बीमार पड़ गयी। बहुत कोशिशों के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका और 28 साल की उम्र में 5 दिसंबर 1941 को उन्होंने इस दुनिया से विदा ली।
अमृता की एक पेंटिंग ‘विलेज सीन’ साल 2006 में नीलाम हुई। इसकी कीमत पूरे 6.9 करोड़ रुपए थी। ये किसी भी पेंटिंग के लिए भारत में अदा की गई सबसे ज़्यादा रकम थी।
रंगों से भरे अपने छोटे-से जीवन में अमृता ने कला जगत को वह विरासत दी कि अब इसको केंद्र में रखकर पूरब और पश्चिम की कला सालों-साल परखी जा सकती है। शायद इसलिए जो अमृता शेरगिल अपने समय में बे-मोल थीं, अब वह बेशकीमती हैं।
(संपादन – मानबी कटोच)