राजस्थान के नागौर की पहचान गंगा-ज़मुनी तहज़ीब के कारण है, वहीं यह हैंड टूल की बड़ी मंडी भी है। यह जिला पानी की उपलब्धता के हिसाब से डार्क जोन माना जाता है। ऐसी परिस्थितियों में यदि कोई किसान अपने खेत को एक हरे-भरे क्षेत्र में तब्दील कर दे तो क्या कहेंगे। हिम्मताराम भांबू नाम के इस किसान को लोग एक पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में भी जानते हैं।
‛द बेटर इंडिया’ से बात करते हुए हिम्मताराम बताते हैं, “खेती और पेड़-पौधे लगाने की पहली शिक्षा दादी नैनी देवी से मिली। दादी ने 1974 में मेरे हाथ से पुश्तैनी गाँव सुखवासी में पीपल का पौधा लगवाया था। उस वक़्त कहे गए दादी के बोल आज भी याद हैं – ‘हिमा! रूंख पनपावण सूं लांठौ दूजौ कीं पुन्न कोनी’। जब 1988 में अपने हाथ से लगाए उसी पौधे को विशाल पेड़ के रूप में देखा तो खुशी की कोई सीमा नहीं रही। लगा दादी माँ की प्रेरणा से ही यह संभव हो सका है।“
अपने नाम के अनुरूप ही हिम्मत रखते हुए हिम्मताराम ने जिले में 3 लाख 10 हजार से भी अधिक पौधे लगाने में कामयाबी हासिल की। इनमें से 80 से 90 प्रतिशत पौधे बड़े होकर पेड़ बन चुके हैं। इसके अलावा, हिम्मताराम ने एक सूखाग्रस्त गाँव हरिमा में 1999 में कर्ज लेकर 34 बीघा जमीन खरीदी और उसमें खेती करने के साथ-साथ 16 हजार से भी ज्यादा पेड़ लगा दिए। आज यह गाँव अपने नाम के अनुरूप ही ‛हरी-माँ’ मतलब हरी-भरी धरती माँ की तरह बन गया है।
हिम्मताराम कहते हैं, “राजस्थान के मरूस्थलीय खेतों में स्थानीय पेड़ पनपाकर किसान अपनी आय बढ़ा सकते हैं। मेरी राय में खेत में जितने ज्यादा खेजड़ी के पेड़ होंगे, किसान उतना ही खुशहाल होगा। खेजड़ी तो मरूधरा की जीवन रेखा है। मैंने तो अपने 6 बीघा के एक दूसरे खेत में खेजड़ी और देशी बबूल के करीब 400 पेड़ बिना किसी अतिरिक्त खर्चे के सिर्फ़ बरसाती पानी से उगाए हैं। इसके अलावा खेत पर कुमठ, नीम, कैर, देशी बेर, गूंदा, रोहिड़ा, खजूरिया, देशी बबूल, झालकी, अड़वा जैसे स्थानीय पेड़ों को भी लगाया है। पेड़़ लगाने में खर्चा बहुत कम है, यह अलग बात है कि उन्हें बचाए रखने के लिए मेहनत काफ़ी करनी पड़ती है। पेड़ आपकी खेती में कई गुना बढ़ोत्तरी कर सकते हैं। खेजड़ी तो फसल को ‛हेज’ (स्नेह) देती है, परहेज नहीं करती। यही वजह है कि मेरे खेतों की मिट्टी सोना उगलती है।“
आप सोच रहे होंगे कि जब खेत में हज़ारों पेड़ हैं तो खेती से उपज कितनी होती होगी। लेकिन जब जानेंगे कि उपज में कोई कमी नहीं होती तो आश्चर्य होगा। हिम्मताराम अपने खेत में इतने पेड़ों की जमीन छोड़कर खेती करते हैं और हर साल 80 से 100 क्विंटल तक गेहूं, 50 से 60 क्विंटल तक बाजरा उपजा लेते हैं। इन्हीं पेड़ों की छाया तले उन्हें 100 क्विंटल मूंग और 25 क्विंटल तिल भी मिलते हैं।
धरती माता है और किसान भूमि-पुत्र। एक बेटा जो माँ का दूध पीता है, उसका ऋण कैसे उतारे, यह सोचने की बात है। एक अनुमान के अनुसार, नागौर में लगभग 45,000 बोरवेल कनेक्शन हैं, जो सिर्फ़ खेती के लिए हैं। ये रोज़ बेशुमार पानी धरती की कोख से खींचते हैं। हिम्मताराम कहते हैं कि एक कनेक्शन मेरे पास भी है, लेकिन बहुत कम ही ऐसे कृषि फार्म होंगे, जहां 100 से 250 पेड़ पनपे होंगे। ज्यादातर पेड़ तो प्राकृतिक रूप से ही पनपे हैं।
हिम्मताराम का कहना है कि पश्चिमी सभ्यता की अंधी दौड़ में हमारे किसान भी पिसते जा रहे हैं। धरती की कोख से पानी खींचने की मशीनें तो खूब हैं, लेकिन ऊपर आसमान से पानी बरसाने वाली मशीनें नहीं हैं। इस काम को तो पेड़ ही बखूबी अंजाम देते हैं।
जब किसान धान, तिलहन, दलहन और नकदी फसलों के लिए हजारों सालों से संचित भू-जल का दोहन करके भी पेड़ पनपाने में कामयाब नहीं हुए तो इस मातृ-ऋण से मुक्त कैसे होंगे? हम सब स्वार्थी होते जा रहे हैं। किसान को तो अन्नदाता कहते हैं, लेकिन पेड़ तो ‘प्राणदाता’ हैं। आज जब एक समझदार प्राणी ही दूसरों के प्राण ले रहा है तो वह किसान कहलाने का हकदार कैसे हुआ?
प्राकृतिक रूप से खेजड़ी पनपाने का तरीका खोजा…
हिम्मताराम भांबू ने खेजड़ी के पके हुए खोखों (फली) को बकरियों को खिलाया। जब बकरियों ने मींगणी की तो उनको सुरक्षित रख लिया। पहली बरसात से पहले गहरा गड्ढा तैयार करके रखा। प्रत्येक गड्ढे में तीन-चार मिंगणियां डाल दी। साथ ही, कैर (ढालू) के बीज भी डाल दिए। मई-जून में सिंचाई की, वह भी नाममात्र के पानी से, ताकि पहली वर्षा तक पौधे बचे रह सकें। इन पौधों को ट्रैक्टर और हल से बचाया।
खेजड़ी किसान की आजीविका है, जीवन-रेखा है। मरूधरा का कल्पवृक्ष है। कामधेनु है, जो फसल को छाया देती है। गर्म पुरवाई के झोलों से बचाती है। उसकी जड़ों में लेग्युमिनोसी (शिम्बकुल) पौधों की भांति ‘राइजोबियम’ जैसे फायदेमंद सूक्ष्म जीवाणु रहते हैं।
जहाँ विलायती बबूल की छाया तले और काफी दूरी तक ऊपजाऊ भूमि भी आकड़ (शुष्कता) दिखा देती है, वहीं खेजड़ी के नीचे ‘बंपर उपज’ मिलती है। खेजड़ी की आयु 300 वर्ष तक हो सकती है। वे कहते हैं कि मैंने जब खेत खरीदा, तब खेजड़ी के मात्र 14 पेड़ थे। आज 2000 से भी ज्यादा पेड़ हैं, क्योंकि खेजड़ी पर जलवायु-परिवर्तन का दुष्प्रभाव कम होता है।
पेड़ों से होते हैं कई फायदे…
पेड़ों से धूप, बरसात की सीधी बौछार और मिट्टी के नहीं धंसने से फसलों का बचाव होता है। पेड़ों की ‘मिमजर’ (पुष्प-मंजरी) पर तितलियां, भौंरे और कीट बैठकर फसल का परागण भी बढ़ाते हैं। पत्तियों से खाद बनती है। पेड़ की जड़ें गहरी जाती हैं, फसलों की जड़ें उथली रहती हैं, इसलिए इसमें किसी प्रकार की कोई टकराहट का सवाल ही नहीं उठता।
जहाँ एक ओर किसान पशु-पक्षियों से फसल को बचाने के चक्कर में तारबंदी, कीटनाशकों के छिड़काव और निगरानी पर जोर देते हैं, वहीं हिम्मताराम ‘कृषि वानिकी’ में पूरे खेत में पेड़ों पर जगह-जगह मिट्टी के 250 परिंडे (चौड़े बर्तन) लटकाकर रखते हैं।
वे कहते हैं कि परिंडों पर पानी पीकर फसल से चुग्गा चुगने वाले परिंदों के भाग्य से भगवान मुझे भी देता है। पंखेरू जितना खाते हैं, उसी अनुपात में ऊपजाऊ खाद भी देते हैं। यही नहीं, हानिकारक कीड़़ों-मकोड़ों को भी ये पक्षी खा जाते हैं। इतने पक्षियों के बावजूद उनके खेत में फसल हमेशा भरपूर होती है। उनके खेत में तो अकेले 300 मोरों का ही बसेरा है, दूसरे पक्षियों की तो गिनती ही नहीं। उनको वे 20 किलो चुग्गा खिलाते हैं।
हिम्मताराम का जज्बा देखने लायक है। पूरा परिवार भले ही शहर में रहता हो, वे दिनभर की यात्रा कर रात को खेत में आकर सोते हैं। आज भी वे एक क्विंटल वजन की बोरी को उठा लेते हैं।
सोशल वर्कर भी हैं हिम्मताराम…
हिम्मताराम ने 2000 नशेड़ियों को नशा छुड़वाया है। अब तक 2,15,000 से ज्यादा बच्चों को दिवाली पर पटाखे नहीं छोड़ने की शपथ दिलाई है। मोर, हिरन और चिंकारा के शिकारियों के खिलाफ मोर्चा खोलकर अपने खर्चे से 28 मुक़दमे लड़ते हुए 16 को जेल करवाई। 1570 घायल चिंकारा और 772 मोरों को इलाज के बाद जंगल में छोड़ा। वे ‘वन रक्षक’, ‘वन प्रहरी’, ‘वन विस्तारक’, अमृतादेवी बिश्नोई सहित राज्य का सबसे बड़ा राजीव गांधी पर्यावरण सरंक्षण पुरस्कार प्राप्त कर चुके हैं। ‛हिम्मत के धनी हिम्मताराम’ शीर्षक से उन पर एक पुस्तक भी छप चुकी है, जिसका विमोचन संसद भवन में केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने किया था।
हिम्मताराम से 09414241601 पर बात की जा सकती है।
संपादन: मनोज झा