हमारे देश में चाहे गाँव हो या शहर, लोगों का खुले में पेशाब करते हुए दिखना बहुत ही आम बात है। क्योंकि हमारे यहां सार्वजनिक शौचालयों में चंद सिक्के देकर जाने की बजाय लोग सड़क के किनारे ही शुरू हो जाते हैं। इसके अलावा, दिल्ली जैसे शहर में भी सार्वजनिक शौचालयों की संख्या, जनसंख्या के मुकाबले में बहुत ही कम है और जो हैं, उनकी भी साफ़-सफाई ढंग से नहीं की जाती है।
इस समस्या पर काम करते हुए दिल्ली निवासी अश्विनी अग्रवाल ने एक खास तरह का पब्लिक टॉयलेट, ‘पीपी’ बनाया है, जिसे आम नागरिक बिना किसी शुल्क के इस्तेमाल कर सकते हैं। इस टॉयलेट की खास बात यह है कि इसे वेस्ट सिंगल यूज़ प्लास्टिक बोतलों से बनाया गया है।
कैसे हुई शुरुआत?
28 वर्षीय अश्विनी ने फाइन आर्ट्स में ग्रेजुएशन किया है। साल 2014 में अपने आखिरी साल में प्रोजेक्ट के लिए उन्हें ‘सैनिटेशन’ टॉपिक मिला। इस विषय पर वह प्रोजेक्ट के लिए अलग-अलग आईडियाज पर काम करने लगे। अपनी रिसर्च के दौरान उन्होंने कई सर्वे किए कि आखिर क्यों लोग सार्वजनिक शौचालयों में नहीं जाते, कैसे लोगों को खुले में शौच करने से रोका जा सकता है, आदि।
उनके इस प्रोजेक्ट ने ही उनके स्टार्टअप ‘बेसिक शिट’ (Basic SHIT) की नींव रखी। बेसिक का मतलब है ‘मूलभूत ज़रूरत’’ और SHIT का पूरा मतलब है ‘सैनिटेशन एंड हाईजीन इनोवेटिव टेक्नोलॉजी’!
द बेटर इंडिया से बात करते हुए अश्विनी ने बताया कि अपने सर्वे के दौरान उन्होंने लोगों को टॉयलेट का इस्तेमाल करने के लिए जागरुक करने की भी कोशिश की, लेकिन इसका ज़्यादा असर नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने एक पब्लिक टॉयलेट के वर्किंग मॉडल पर काम किया।
“पहले मैंने इसे बनाने के लिए बहुत से अलग-अलग मटेरियल इस्तेमाल किये। लेकिन फिर धीरे-धीरे समझ में आया कि मुझे ऐसा कुछ चाहिए जो कि आसानी से मिल जाए, बहुत ज़्यादा कीमत न देनी पड़े और साथ ही, जो लोगों के लिए भी वेस्ट हो ताकि कोई मटेरियल को चोरी न कर पाए। और मेरी तलाश सिंगल यूज़ प्लास्टिक पर आकर रुकी।”
इको-फ्रेंडली टॉयलेट:
एक ‘पीपी’ टॉयलेट को बनाने के लिए अश्विनी ने लगभग 9000 बेकार बोतलों मतलब कि लगभग 120 किग्रा प्लास्टिक का इस्तेमाल किया है। वैसे तो फ़िलहाल यह सिर्फ यूरिनल मॉडल है और केवल पुरुष ही इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन अश्विनी का यह टॉयलेट इको-फ्रेंडली है।
इसे न तो किसी सीवेज कनेक्शन की ज़रूरत है और न ही यहां बदबू आती है। इस एक टॉयलेट की लागत लगभग 12000 रुपये है और इसे इनस्टॉल करने में सिर्फ़ 2 घंटे लगते हैं।
“सबसे पहले प्लास्टिक को रीसायकल करके उससे यूरिनल बनाए जाते हैं। एक टॉयलेट में दो यूरिनल लगते हैं, जिनकी क्षमता 200 लीटर तक यूरिन स्टोर करने की है,” उन्होंने बताया।
इन युरिनल्स को एक ‘पी-कार्टरिज’ से जोड़ा गया है, जहां पर यूरिन को प्रोसेस करके इससे यूरिया अलग किया जाता है, जिसे खेतों में फ़र्टिलाइज़र के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है। टॉयलेट के रख-रखाव पर बात करते हुए अश्विनी कहते हैं कि इन युरिनल्स में बेसिक फ़िल्टर लगे हैं। जिन्हें हर छह महीने में बदलना ज़रूरी है ताकि यह टॉयलेट बिना रुके और खराब हुए काम करता रहे।
दिल्ली में एम्स, धौलाकुआं और ग्रीनपार्क एरिया में ‘पीपी’ टॉयलेट इंस्टॉल करने के बाद अब अश्विनी का लक्ष्य शहर में ऐसे 100 टॉयलेट लगाना है। वह कहते हैं,
“मैं चाहता हूँ कि दिल्ली में हर 200 मीटर पर इस तरह के टॉयलेट हो ताकि हम खुले में शौच करने की इस समस्या से निजात पा सकें। मैं लगातार अपने डिज़ाइन पर काम कर रहा हूँ ताकि लागत को कम से कम कर सकूं।”
दिल्ली के अलावा भी दूसरे शहरों में, अश्विनी और उनकी टीम ने इस तरह के टॉयलेट लगाए हैं। पूरे देश में अब तक वे लगभग 30 ‘पीपी ‘ यूनिट्स लगा चुके हैं और उनका लक्ष्य और ज़्यादा से ज़्यादा यूनिट्स लगाने का है।
चुनौतियाँ:
पिछले चार-पांच सालों में अश्विनी ने इस काम में कई चुनौतियों का सामना किया है। उन्होंने बताया, “फंड्स तो एक समस्या थी ही, लेकिन एक और परेशानी थी – सरकार और प्रशासन से टॉयलेट लगाने की परमिशन मिलना। एक परमिशन लेटर के लिए महीनों घूमना पड़ता था। इसलिए अपने काम के लिए मैंने बहुत ही अलग रास्ता निकाला।”
अश्विनी को समझ में आ गया था कि उन्हें ऐसी जगहें तलाशनी होंगी जहां परमिशन के लिए बहुत भाग-दौड़ न हो। इसलिए उन्होंने शहर के पुलिस स्टेशनों को चुना। पुलिस स्टेशन के बाहर टॉयलेट लगाने के लिए सिर्फ स्टेशन हाउस अफ़सर से अनुमति लेनी होती है। साथ ही, स्टेशन के पास होने से टॉयलेट सुरक्षित भी रहता है।
फंड्स के बारे में बताते हुए उन्होंने कहा,
“क्राउडफंडिंग अभियानों ने हमारे काम में काफी मदद की है। हम देश भर में होने वाले म्यूजिक फेस्टिवल जैसे गोवा का वसुंधरा फेस्टिवल, अरुणाचल प्रदेश का ज़ीरो फेस्टिवल आदि में भी टॉयलेट सेट-अप करके देते हैं।”
अश्विनी और उनकी टीम ने दिल्ली में ऐसी 30 जगहों को चुना है जहां उन्हें लगता है कि ‘पीपी’ टॉयलेट लगाने से बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। हालांकि, फंडिंग और परमिशन, अभी भी उनके लिए परेशानी का सबब है। लेकिन उनके इस काम के प्रति लोगों का अच्छा प्रतिसाद उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।
“दिल्ली में एक जगह हमने जहां पीपी इंस्टॉल किया है वहीं से चंद कदम दूर एक बुजुर्ग आंटी भुट्टे की स्टॉल लगाती हैं। उनके पास कोई दुकान वगैरह नहीं है, वह यूँ ही खुले में बैठती हैं। जहां उनकी जगह है वहां अक्सर रात में लोग शौच कर देते थे और इससे उन्हें बहुत परेशानी होती थी। लेकिन जब हमने वहां टॉयलेट लगा दिया तो उनकी जगह एकदम साफ़-सुथरी रहने लगी,” अश्विनी ने बताया।
उन आंटी ने अश्विनी को एक दिन रोककर उनका धन्यवाद किया, और तो और वह उनसे भुट्टे के पैसे तक नहीं लेती। अश्विनी कहते हैं कि इस तरह के वाकयों ने उनके इरादों को और भी मजबूत कर दिया क्योंकि जो हमें छोटी-सी बात लगती है वह किसी के लिए लक्ज़री हो सकती है।
अंत में वह लोगों से सिर्फ यही अपील करते हैं कि उन्हें अपने इस काम में लोगों की मदद चाहिए। अगर कोई उनकी आर्थिक मदद नहीं कर सकता, तो अपने घर का प्लास्टिक वेस्ट किसी डंपयार्ड या फिर नदी-नाले में फेंकने की बजाय, उन तक पहुँचा दें।
अश्विनी से सम्पर्क करने के लिए आप उनका फेसबुक पेज देख सकते हैं!
संपादन – मानबी कटोच