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बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय : जिसने एक भाषा, एक साहित्य और एक राष्ट्र की रचना की!

वन्दे मातरम्!
सुजलां सुफलां मलयजशीतलां
शस्यश्यामलां मातरम्!
शुभ-ज्योत्सना-पुलकित-यामिनीम्
फुल्ल-कुसुमित-द्रमुदल शोभिनीम्
सुहासिनी सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम्!
सन्तकोटिकंठ-कलकल-निनादकराले
द्विसप्तकोटि भुजैर्धृतखरकरबाले
अबला केनो माँ एतो बले।
बहुबलधारिणीं नमामि तारिणीं
रिपुदल वारिणीं मातरम्!

तुमि विद्या तुमि धर्म
तुमि हरि तुमि कर्म
त्वम् हि प्राणाः शरीरे।
बाहुते तुमि मा शक्ति
हृदये तुमि मा भक्ति
तोमारइ प्रतिमा गड़ि मंदिरें-मंदिरे।

त्वं हि दूर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमल-दल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी नवामि त्वां
नवामि कमलाम् अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम्!
वन्दे मातरम्!

श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम
धमरणीं भरणीम् मातरम्।

साल 1905, और पूरा बंगाल ब्रिटिश सरकार के फ़ैसले पर गुस्से की आग में जल रहा था। वह फ़ैसला, जिसके आधार पर बंगाल का सांप्रदायिक विभाजन होना था। इसी गुस्से और विद्रोह की आग से एक गीत उभरा, जो पलक झपकते ही स्वदेशी आन्दोलन का नारा बन गया। यह गीत था – वन्दे मातरम्!

क्रांतिकारी मार्च का नेतृत्व करते हुए, यह गीत महकबी रबिन्द्रनाथ टैगोर ने गाया और अरविन्द घोष ने अपनी राष्ट्रीय पत्रिका को ‘वन्दे मातरम’ नाम दिया। इस गीत के बोलों/शब्दों ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ जंग लड़ रहे भारतीयों के दिलों में अपनी जगह बना ली थी। साल 1920 तक, इसका अनुवाद कई भाषाओं में हो चूका था और आज़ादी के बाद, साल 1951 में राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में संविधान सभा द्वारा इसे राष्ट्रीय गीत के रूप में चुना गया।

फिर भी बहुत कम भारतीय होंगे, जो साल 1882 में लिखे गये इस गीत (अपने उपन्यास, ‘आनंदमठ’ के एक अंश के रूप में) के रचनाकार के बारे में जानते होंगें। आज द बेटर इंडिया के साथ जानिए, भारत को उसका राष्ट्रीय गीत देने वाले बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की कहानी!

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय

27 जून, 1883 को पश्चिम बंगाल में मिदनापुर के डिप्टी कलेक्टर चन्द्र चट्टोपाध्याय के घर एक बेटे का जन्म हुआ; नाम रखा गया ‘बंकिम’। बचपन से ही मेधावी रहे बंकिम ने अपनी पढ़ाई हूगली मोहसिन कॉलेज से की। इसके बाद कलकत्ता के प्रसिद्द प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक की डिग्री प्राप्त की।

इसके बाद कानून की पढ़ाई कर, बंकिम सरकारी अधिकारी के रूप में काम करने लगे। जल्द ही उन्हें जेशोर का डिप्टी कलेक्टर नियुक्त किया गया। अपने इस कार्यकाल के दौरान उन्हें महसूस हुआ कि किस तरह ब्रिटिश सरकार, भारत की समृद्ध सभ्यता और अर्थव्यवस्था का शोषण कर रहे हैं।

जैसे- जैसे उनके मन में राष्ट्रीयता की भावना जागी, बंकिम का झुकाव लेखन की तरफ़ होने लगा। हालांकि, उनका पहला उपन्यास, ‘राजमोहन्स वाइफ’ अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित हुआ। पर फिर उन्होंने बंगाली भाषा में लिखना शुरू किया, क्योंकि उन्हें लगता था कि इस तरह से ये उच्च वर्ग और आम लोगों के बीच की खाई पर सेतु का काम कर सकते हैं।

साल 1872 में उन्होंने मासिक साहित्यिक पत्रिका, ‘बंगदर्शन’ की स्थापना की। इस पत्रिका के माध्यम से उन्होंने बंगाली और राष्ट्रीयता की भावना को एक पहचान दिलवाने की कोशिश की। उन्होंने काल्पनिक कहानियाँ और उपन्यास भी लिखना शुरू किया, जो आम लोगों के बीच काफ़ी लोकप्रिय हुए।

दिलचस्प बात यह है कि किशोरावस्था से ही रबीन्द्रनाथ टैगोर, बंकिम की पत्रिका के बहुत बड़े प्रशंसक थे और बड़े उत्साह से इसके हर एक नए संस्करण की प्रतीक्षा किया करते थे।

अपने कई संस्मरणों में उन्होंने इस पत्रिका के लिए अपने प्रेम और समर्पण का ज़िक्र भी किया है। उन्होंने लिखा कि ‘बंगदर्शन’ पत्रिका के हर एक मासिक संस्करण का उन्हें बेसब्री से इंतज़ार रहता था। और जब भी हर महीने पत्रिका घर आती, तो रबीन्द्र को बाकी सब के पढ़ने के बाद पढ़ने को मिलती थी, इस पर उन्हें और भी गुस्सा आता था।

जब ‘बंगदर्शन’ का प्रकाशन शुरू हुआ, तब रबीन्द्र नाथ सिर्फ़ 11 साल के थे

बंकिम ने बहुत-से उपन्यास, कहानियाँ और निबंध लिखे, जिनका विभिन्न भाषाओं में अनुवाद किया गया। ‘बंगदर्शन’ के शरू होने के एक दशक बाद, साल 1882 में बंकिम ने एक ऐसे उपन्यास की कल्पना की, जो देश में ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध लोगों को जागरूक करने में सार्थक हो।

यह उन्यास था, ‘आनंदमठ,’ जिसे उस समय लिखा गया, जब बंगाल ने लगातार तीन अकाल झेले थे। यह उपन्यास, तीन ऐसे भिक्षुओं की कहानी बयान करता है, जिन्होंने 1770 की शुरूआत में ‘सन्यासी विद्रोह’ के दौरान ब्रिटिश राज के खिलाफ़ लड़ाई लड़ी थी। ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा प्रतिबंधित इस उपन्यास में पहली बार एक कविता के रूप में ‘वन्दे मातरम्’ प्रकाशित हुआ।

हालांकि, दुःख की बात यह है कि इस उपन्यास के प्रकाशित होने के दो साल बाद, 8 अप्रैल, 1894 को बंकिम ने अपनी आख़िरी सांस ली। वे इस बात से अनजान थे कि उनका यह गीत भारतीय इतिहास में अमर होने वाला है।

रबीन्द्रनाथ टैगोर ने इस गीत को एक धुन में पिरोया (जिसे उन्होंने खुद बनाया था) और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साल 1896 के सत्र में पहली बार सार्वजनिक स्थल पर इसे गाया। साल 1905 में बंगाल विभाजन के दौरान, यह कांग्रेस का नारा बन गया और जल्द ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रतीक भी!

फोटो साभार

हालांकि, साल 1951 में, संविधान सभा ने वन्दे मातरम् की जगह, टैगोर के जन-गण- मन को राष्ट्रगान बनाने का फ़ैसला किया। विभाजन के बाद, कुछ विरोधियों का इस गाने के इतिहास को लेकर संदेह और इसके चलते सांप्रदायिक अशांति फैलने के डर के कारण, यह निर्णय लिया गया था।

महात्मा गाँधी ने जुलाई 1939 में ‘हरिजन’ में लिखा,

“कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस गीत का स्त्रोत क्या था, और कैसे व कब इसकी रचना की गयी, पर विभाजन के दिनों में, बंगाल के हिन्दुओं और मुसलमानों का यह शक्तिशाली नारा बन गया था। यह एक विदेशी साम्राज्य विरोधी नारा था। बचपन में जब मुझे ‘आनंदमठ’ या इसके अमर लेखक, बंकिम के बारे में कुछ नहीं पता था, तब वन्दे मातरम् ने मुझे खुद से बाँध लिया। और जब मैंने पहली बार इसे गाते हुए सुना, तो मैं रोमांचित हो गया था। मैंने इससे अपनी पवित्र राष्ट्रीय भावना को जोड़ा। मेरे मन में कभी नहीं आया कि यह एक हिन्दू गीत है या इसे हिन्दूओं के लिए बनाया गया है। दुर्भाग्यवश, हम बुरे वक़्त में आ चुके हैं…”

बहरहाल, वन्दे मातरम् को भारत के राष्ट्रीय गीत होने का दर्जा मिला और आज भी यह गीत लोगों की रूह को छू लेता है।

ए. आर. रहमान का रोमांचित करने वाला गीत, ‘माँ तुझे सलाम,’ आज भी वन्दे मातरम का सबसे लोकप्रिय संस्करण है।
दिलचस्प बात यह है कि, साल 1884 में बंकिम की मृत्यु के बाद ‘बंगदर्शन’ का प्रकाशन बंद हो गया था। साल 1901 में टैगोर ने इसे फिर से प्रकाशित करवाना शुरू किया।

फोटो साभार

यहाँ तक कि टैगोर की ‘चोखेर बाली’ (उनका पहला पूरा उपन्यास) और ‘आमाँर सोनार बंगला’ (अब बांग्लादेश का राष्ट्रगान) पहली बार बंकिम के बंगदर्शन में ही प्रकाशित हुए थे!

भारत को अपना राष्ट्रीय गीत देने वाले इस व्यक्ति को श्रद्धांजलि देते हुए अरविन्द घोष ने लिखा, “बंकिम ने एक भाषा, एक साहित्य, एक राष्ट्र की रचना की है।”

अपने इस प्रसिद्ध गुरु को याद करते हुए टैगोर ने लिखा,

“बंकिम के दोनों हाथो में बराबर ताकत थी, वे सही मायने में सब्यसाची थे। एक हाथ से उन्होंने उत्कृष्ट साहित्य का निर्माण किया और दूसरे से, युवा और महत्वकांक्षी लेखकों का मार्गदर्शन किया। एक हाथ से साहित्य द्वारा ज्ञान की मशाल जला कर रखी और दूसरे से, अज्ञानता और अंधविश्वास की सोच को मिटाया।”

मूल लेख: संचारी पाल
(संपादन: निशा डागर)


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