“मेरे दिल की धड़कनें मानो रुक-सी गई थीं। इसने मुझे एहसास दिला दिया था कि सफलता करीब है। 23 मई, 1984 को दोपहर 1.07 बजे मैं एवरेस्ट की चोटी पर खड़ी थी और ऐसा करने वाली मैं पहली भारतीय महिला थी।“
यह बछेंद्री पाल ने अपनी पुस्तक ‘एवरेस्ट : माय जर्नी टू द टॉप’ में लिखा है।
एक छोटे व्यापारी किशन सिंह पाल और हंसा देई नेगी के यहाँ 24 मई, 1954 को जन्मीं बछेंद्री पाल उस परिवार के 7 बच्चों में से एक थीं। परिवार में पैसे की हमेशा तंगी रहती थी।
इनके पिता रोज़मर्रा की जरूरतों के लिए खच्चर पर राशन का सामान बेचा करते थे। 1943 में हरसिल घाटी में अचानक आई बाढ़ ने इन्हें कई महीनों के लिए बेघर कर दिया था। तब अपने जीवन-यापन के लिए इन्होंने ऊनी कपड़े बनाने और खेती का काम शुरू किया।
कई तरह की आर्थिक परेशानियों से गुज़र कर भी बछेंद्री पाल ने संस्कृत में एम. ए. और बी.एड. किया। इसके बाद इन्होंने पर्वतारोहण जैसे असाधारण करियर को अपनाया। तब किसी ने नहीं सोचा होगा कि एक छोटे-से गाँव की यह लड़की एक इतिहास रचने वाली है।
आइए, जानें इनके जीवन से जुड़े कुछ ऐसे तथ्य जो हर भारतीय को मालूम होने चाहिए!
बचपन में बछेंद्री कुछ बातूनी स्वभाव की थीं। एक बार जब इनके पिता रामायण-पाठ कर रहे थे, तब बछेंद्री ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया। आम तौर पर पिता इनकी हरकतों पर हंसा करते थे, पर उस दिन उन्होंने बछेंद्री को कई बार चेतावनी दी, जिसे उन्होंने अनसुना कर दिया।
इनकी हरकतों से परेशान होकर इनके पिता ने अपना आपा खो दिया। वे इनकी ओर गुस्से में दौड़े और इन्हें उठा कर छत की ढलान की ओर फेंक दिया। सौभाग्य से इन्होंने एक मजबूत टहनी का सहारा ले कर अपनी जान बचाई, पर डर ने इन्हें अंदर तक हिला कर रख दिया।
जब इनकी माँ गुस्से में पिता की ओर दौड़ीं, तब वे बछेंद्री को बचाने के लिए आगे बढ़े और उन्हें सीने से लगा कर कई बार माफी मांगी।
बछेंद्री पाल ने पर्वतारोहण का पहला अनुभव अपने 10 अन्य सहपाठियों के साथ करीब 4000 मीटर की चढ़ाई कर के लिया। तब वे मात्र 12 वर्ष की थीं।
रविवार की अपनी कक्षा छोड़, इन्होंने अपना दोपहर का खाना लेकर पहाड़ पर जाने का फैसला किया, पर ये पानी ले जाना भूल गईं। किसी तरह इन्होंने अपनी प्यास बर्फ खा कर बुझाई। असल परेशानी तब शुरू हुई, जब इन्होंने नीचे उतरना शुरू किया। बर्फ की फिसलन की वजह से यह मुश्किल होता जा रहा था। ऑक्सीजन की कमी के कारण इन्हें घुटन होने लगी और एक रात बिना भोजन-पानी के वे वहाँ फंसी रह गईं।
अगली सुबह जब ये घर पहुंचीं तो इनके प्रति सहानुभूति जताने के बजाय इनका सत्कार पिटाई से किया गया।
बछेंद्री की सपनों की दुनिया
बचपन में बछेंद्री यह मानने को तैयार नहीं थीं कि उनके लिए कुछ भी नामुमकिन है। छोटे बच्चों से प्रधानमंत्री की मुलाक़ात की फोटो देख कर इन्होंने एक दिन अपना फैसला सुनाया, “मैं इन्दिरा गांधी से मिलूँगी।“
अगर इनके पड़ोस से कोई कार गुजरती तो ये कहतीं, “जब मैं बड़ी हो जाऊँगी, तब मेरी भी अपनी कार होगी।“ हवाई जहाज या हेलिकॉप्टर को देख कर ये चहक उठतीं और कहतीं, “एक दिन मैं भी हवाई जहाज से सैर करूंगी।“
क्या बछेंद्री ये सब हासिल कर पाईं? इसका जवाब सब जानते हैं।
खूबसूरती से जुड़ा एक किस्सा
विद्यालय में ये अपने शरारती गिरोह की सरदार थीं। ये सभी अपनी एक टीचर की खूबसूरती की कायल थीं। एक दिन सबने मिल कर उनकी सुंदरता का राज़ पता करने की योजना बनाई। अपनी दो साथियों के साथ कक्षा से निकल कर बछेंद्री खिड़की के रास्ते उस शिक्षिका के रूम मे घुस गईं। उनके ड्रेसिंग टेबल पर कई तरह की सौन्दर्य सामग्री रखी हुई थी, जिन्हें देख कर ये लड़कियां मोहित हो गईं।
तभी कदमों की आहट सुन ये सब बिस्तर के नीचे जा कर छुप गईं। उस शिक्षिका ने एक छड़ी बिस्तर पर मारा, जिससे एक लड़की की हंसी निकल गई। इसके बाद इन लड़कियों को हाथ पर छड़ी की मार पड़ी। सबसे अधिक पिटने वाली बछेंद्री ही थीं। आखिरी लड़की को सबसे कम मार खानी पड़ी, क्योंकि तब तक मारते-मारते छड़ी ही टूट गई थी।
बछेंद्री ने लिखा है, “यहीं मेरी सुंदरता की तलाश पूरी हो गई। जब भी मैं इस घटना और उस सज़ा के बारे में सोचती हूँ, तो इन सौन्दर्य सामग्रियों के बारे में सोच कर ही डर जाती हूँ। मैं आज भी कोई मेकअप नहीं करती।“
छोटी-सी उम्र से खुद को साबित किया
अपनी पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए बछेंद्री ने सिलाई सीखी और सलवार-कमीज़ सिल कर रोज़ 5-6 रुपए कमाने लगीं। ये खेलकूद में भी निपुण थीं। इन्होंने शॉट पुट, डिसकस, भाला फेंकने और दौड़ में कई प्रतियोगिताएं जीतीं। पढ़ाई में तेज़ होने के कारण इन्हें विद्यालय के प्रधानाध्यापक द्वारा उच्च शिक्षा के लिए बुलाया गया और वह अपने गाँव की ग्रैजुएट होने वाली पहली लड़की बनीं।
अपनी एक अलग राह बनाई
वर्ष 1982 में उत्तर काशी के नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग में ट्रेनिंग के दौरान इन्होंने माउंट गंगोत्री (21,000 फीट) और माउंट रुद्रगरिया (19,091 फीट) की चढ़ाई की।
नेशनल एडवेंचर फाउंडेशन के प्रशिक्षक के रूप में संस्था के निदेशक ब्रिगेडियर ज्ञान सिंह ने छात्रवृत्ति के लिए सात महिलाओं का चयन किया, जिनमें बछेंद्री पाल एक थीं।
बाद में भागीरथी सेवन सिस्टर एडवेंचर क्लब की स्थापना हुई, जिसे केवल महिलाओं द्वारा चलाने का निर्णय लिया गया, ताकि महिलाएं और लड़कियां इसमें आगे बढ़ कर हिस्सा ले सकें।
बचपन से शेरपा तेनजिंग की प्रशंसक रहीं बछेंद्री
बछेंद्री का जन्म इंडो-नेपाली पर्वतारोही तेनजिंग नोरगे और न्यूज़ीलैंड के पर्वतारोही एडमंड हिलेरी के माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई की पहली सालगिरह के ठीक पाँच दिन पहले हुआ था।
अपने पूरे करियर के दौरान बछेंद्री ने शेरपा तेनजिंग को अपने हीरो के रूप में देखा था।
उनसे मिलने के अवसर के बारे में ये लिखती हैं, “मैं दो सुपरस्टार से अपनी आँखें हटा नहीं पा रही थी। एक तो महान शेरपा तेनजिंग नोरगे जो एडमंड हिलेरी के साथ एवरेस्ट की चोटी पर पहुँचने वाले पहले इंसान थे और दूसरे उनके पास खड़ी जापान की जुनको तबाई, जो सबसे ऊंची चोटी पर कदम रखने वाली पहली महिला थीं। तेनजिंग को मैं उसी समय से पसंद करती थी, जब मैं स्कूल में थी, पर अब जब मैं उनके इतने करीब थी, मुझे खुद उन्हें अपना परिचय देने की हिम्मत नहीं थी। तब नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग के डॉक्टर की पत्नी शेररी ने मुझसे उन लोगों के साथ ग्रुप फोटो खिंचवाने के लिए आने को कहा। हालांकि, मैं एवरेस्ट के हीरो से बात करना चाहती थी, पर मेरी ज़ुबान ने मेरा साथ नहीं दिया और उनके कुछ फैन उन्हें वहाँ से ले गए।“
चयन कैंप
बद्रीनाथ के आगे माना माउंटेन पर हुए एवरेस्ट ’84 के चयन कैंप के दौरान इन्हें बुखार हो गया और इसकी वजह से इन्हें बेस कैंप पर रोक दिया गया। पर पर्वतारोहण के प्रति इनके जुनून ने इन्हें इस ट्रेनिंग को छोड़ने नहीं दिया। इस ट्रेनिंग में पूरा ज़ोर अभ्यास पर अधिक और चोटी पर पहुँचने पर कम था। बछेंद्री सफलतापूर्वक माना पर 7,500 मीटर चढ़ गईं जो उस समय उनकी उच्चतम चढ़ान थी। दुनिया की सबसे अनुभवी पर्वतारोही मानी जाने वाली बछेंद्री के ये नए कदम थे।
कैंप के खत्म होने पर जब अधिकतर पर्वतारोही अपने सामान के साथ तेज़ी से उतर रहे थे, वहीं बछेंद्री धीरे और संतुलित कदम बढ़ा रही थीं। इस समय कैंप के लीडर मेजर प्रेमचंद ने इनसे कहा, “यही गति तुम्हें एवरेस्ट पर भी रखनी पड़ेगी बछेंद्री।“
छह औरतों और 11 पुरुषों के साथ बछेंद्री का चुनाव भारत की पहली मिश्रित टीम में हुआ, जिसे कुछ दिन बाद माउंट एवरेस्ट पर चढ़ाई शुरू करनी थी।
एवरेस्ट 84 की चढ़ाई
एवरेस्ट पर चढ़ना आसान नहीं था। जब बछेंद्री की टीम मई 1984 में अपनी चढ़ाई पूरी कर रही थी, तभी इनका सामना एक आपदा से हुआ।
16 मई को बुद्ध पूर्णिमा को एक विशाल हिमस्खलन ने इनके शिविर को तहस-नहस कर दिया। किचन को छोड़ कर ऐसा कोई भी टेंट नहीं था, जो इससे बच पाया था। इसमें करीब आधे सदस्य घायल हो गए, जिसके कारण उन्हें अपना अभियान बीच में ही छोड़ना पड़ा। गिने-चुने सदस्यों के साथ बछेंद्री आगे बढ़ने को तैयार थीं।
इस घटना को याद करते हुए बछेंद्री ने अपनी किताब में लिखा है, “मैं कैंप III में एक टेंट में अपनी टीम के सदस्यों के साथ सो रही थी, जो 24,000 फीट (7,315.2 मीटर) की ऊंचाई पर था। 15-16 मई, 1984 की रात करीब 00:30 बजे मैं झटके से उठी। किसी चीज़ से मुझे ज़ोर से धक्का लगा था और एक तेज़ आवाज़ भी सुनाई पड़ी थी। कुछ देर में मैंने खुद को बहुत ठंडी चीज़ से घिरा हुआ पाया।“
पर बछेंद्री हार मानने वालों में से नहीं थीं। डर इनके पास आ कर गुज़र चुका था। अगली सुबह जब कर्नल खुल्लर ने इनसे पूछा कि क्या वह डरी हुई हैं, तब इन्होंने इसका जवाब “हाँ“ कह कर दिया। जब इनसे पूछा गया, “क्या तुम भी नीचे जाना चाहोगी?” तब दृढ़ता के साथ इन्होंने जवाब दिया, “नहीं”।
शिखर पर पहुँचना
नेपाली शेरपा पर्वतारोही गाइड अंग दोरजी और अन्य पर्वतारोहियों के साथ 22 मई, 1984 को बछेंद्री ने माउंट एवरेस्ट की शिखर की ओर चढ़ाई शुरू कर दी। वह इस ग्रुप में अकेली महिला बची थीं।
23 मई, 1984 को 6:20 मिनट पर इन्होंने “बर्फ की खड़ी चादर” जैसा कि यह इसे कहती हैं, पर चढ़ना जारी रखा, जबकि तापमान में 30 डिग्री सेल्सियस से 40 डिग्री तक की गिरावट हो चुकी थी।
भारतीय समय से दिन के 1:07 बजे, अपने 30वें जन्मदिन के एक दिन पहले और माउंट एवरेस्ट की पहली चढ़ान की 31वीं सालगिरह के छह दिन पहले बछेंद्री पाल ने इतिहास रच डाला।
संपादन: मनोज झा