साल 1947 था। लाहौर के गुंजरवाला से एक 22 साल की लड़की, प्रीतम कौर को उसके परिवार ने अमृतसर की ट्रेन में बिठाया। उन्हें भरोसा था कि यह ट्रेन उनकी बेटी को निर्दयी दंगों से बचा लेगी। अपने बैग को पकड़े हुए, भारी कढ़ाईदार फुलकारी जैकेट पहने और अपने दो साल के भाई को सीने से लगाए, प्रीतम ने एक नया सफ़र शुरू किया। प्रीतम को नहीं पता था कि आने वाले समय में क्या लिखा है।
प्रीतम की जिंदगी की यादों को समेटे हुए वह जैकेट, उस समय उसके पास सबसे महँगी चीज़ थी।
अपनी किस्मत को कोसते हुए प्रीतम वह शहर छोड़ रही थी जहां उसका बचपन था, उसके माँ-बाप थे और जहां शायद एक खूबसूरत कल भी हो सकता था। अब सब कुछ पीछे छूट रहा था। कुछ दिन पहले ही तो वह भगवान सिंह मैनी से मिली थी, मैनवाली का एक 30 वर्षीय जवान मुंडा, जिसके साथ उसके घर वालों ने उसकी सगाई की थी। उसके मंगेतर को शायद खबर भी नहीं होगी कि वह नए देश पाकिस्तान को छोड़ कर जा रही है।
खैर, प्रीतम ने किस्मत को चाहे कितना भी कोसा हो पर किस्मत उसके साथ थी।
उस समय दंगों में उसकी जान जा सकती थी। जिस ट्रेन में वो थी, वह शायद कभी अमृतसर पहुँचती ही नहीं, पर वह सही-सलामत हिंदुस्तान के रिफ्यूजी कैंप पहुंची।
भगवान सिंह, जो प्रीतम के शहर से 250 किमी दूर रहता था, उसने भी दंगो को करीब से देखा था। उनके तीनों भाई को मार दिया गया था और यदि भगवान वहां से न भागता तो वह भी मारा जाता। एक ब्राउन ब्रीफ़केस में अपने सर्टिफिकेट और जायदाद के कागजों को लेकर वह भी अमृतसर की ट्रेन में चढ़ गया।
प्रीतम और भगवान, उन 1.2 करोड़ लोगों में से थे जोकि अपने परिवारों से बिछड़े थे और रिफ्यूजी कैंप में रह रहे थे। भले ही वे दोनों एक ही शहर पहुंचे पर फिर भी उनके मिलने की गुंजाइश बहुत कम थी। उन्हें अपनी ज़िन्दगी एक नए सिरे से शुरू करनी थी और अपने अतीत में फंसे रहने का अब कोई मतलब नहीं था।
रिफ्यूजी कैंप अपने आप में एक भयानक अनुभव था। आधे-फटे कैनवास से बने एक तम्बू में सीमित और मौसम की मेहरबानी पर रह रहे कई परिवार, जिन्हें उस वक़्त से गुजरने के लिए शारीरिक और मानसिक मजबूती की ज़रूरत थी। खाने के पैकेट्स से भरा हर दिन एक ट्रक आता था, जिसके सामने रिफ्यूजी लम्बी कतार में खड़े हो जाते थे और एक-दूसरे से झगड़ते थे आगे जाने के लिए कि कहीं ट्रक चला न जाये और वे खाली हाथ न रह जाएं।
एक दिन प्रीतम खाने के लिए लाइन में लगी हुई थी कि किसी ने उससे पूछा, “तुम वही हो ना?”
वह मुड़ी तो वहां भगवान को खड़ा पाया, उसका मंगेतर जिससे मिलने की उसे कोई आस नहीं थी।
आखिर किस्मत प्रीतम पर मेहरबान हो ही गयी।
ज़िन्दगी के इस असाधारण मोड़ के बाद, प्रीतम और भगवान अक्सर एक-दूसरे से मिलते थे। वे दोनों अपनों को खोने का गम बांटते, एक-दूसरे को बताते कि कैसे वे अमृतसर पहुंचे और फिर से ज़िन्दगी को बनाने में एक-दूसरे का सहारा बनने लगे।
बीबीसी से बात करते हुए उनकी बहू, कुकी मैनी ने बताया, “वे अपने बुरे वक़्त के बारे में एक-दूसरे को बताते थे और अक्सर सोचते थे कि क्या किस्मत उन्हें एक बार फिर से साथ लेकर आई है। कुछ समय बाद, उनके परिवार वाले एक बार फिर से उनसे मिले।”
साल 1948 में एक छोटे से समारोह में वे सात फेरों के बंधन में बंध गये। प्रीतम ने अपनी पसंदीदा फुलकारी जैकेट पहनी।
दंगे धीरे-धीरे शांत हो रहे थे और यह नया शादीशुदा जोड़ा भी अपनी ज़िन्दगी को पटरी पर लाने की जद्दोजहद में लग गया था।
भगवान सिंह के ब्राउन ब्रीफ़केस ने उनके लिए एक सुनहरा कल बनाने में बहुत मदद की। भगवान ने अपने सर्टिफिकेट्स की मदद से ज्यूडिशियल सर्विसेज में जॉब ले ली और अपने परिवार का पालन-पोषण ढंग से करने लगे।
कुकी ने बताया, “वह जैकेट और ब्रीफ़केस प्रमाण हैं कि कैसे उन्होंने ज़िन्दगी को पहले खोया और फिर पा लिया।”
धीरे-धीरे उनकी ज़िन्दगी संभल गई गयी। उनके दो बच्चे हुए और दोनों ने सिविल सर्विस में अपनी जगह बनाई।
प्रीतम की मृत्यु साल 2002 में हुई लेकिन भगवान ने 30 साल पहले ही दुनिया को अलविदा कह दिया था। अमृतसर के पार्टीशन म्यूजियम उनकी विरासत आज भी गवाह है उनके संघर्षों की और लाखों ऐसे लोगों की कहानियों की जिन्होंने उस बंटवारे के दौर में अपना सब-कुछ खोकर, एक नए देश में फिर से ज़िन्दगी शुरू की।
म्यूजियम में रखी वो फुलकारी जैकेट और ब्रीफ़केस आज भी बंटवारे के दर्द से गुजरने वाली इस अटूट प्रेम की दास्तां हमें सुनाते हैं।
संपादन – अर्चना गुप्ता