हिमाचल प्रदेश के मंडी जिले की मैगल गांव में रहनेवाली धनेश्वरी देवी के दिन की शुरुआत, कभी जंगल से लकड़ियां काटकर लाने से हुआ करती थी, ताकि उनके घर का चूल्हा जल सके। लेकिन डॉ. लाल सिंह और उनके NGO ‘हिमालयन रिसर्च ग्रुप’ के कारण आज उन्हें रोज़ की उस जद्द-ओ-जहद से निजात मिल गई है।
धनेश्वरी ने बताया, “हमारे यहां साल भर कड़ाके की ठंड पड़ती है और बिना गर्म पानी के कोई भी काम करना संभव नहीं है। पहले हमें हर सुबह अपने पति के साथ जंगल से लकड़ियां लाने के लिए जाना पड़ता था। इस वजह से खेती के लिए देर से निकल पाते थे और वहां से आने के बाद हमारा सबसे पहला काम पानी गर्म करने का होता था। इस तरह, हमारा काफी समय यूं ही बर्बाद हो जाता था।”
लेकिन बीते चार वर्षों से 42 साल की धनेश्वरी को काफी राहत मिली है और उनकी लकड़ियों पर निर्भरता भी काफी कम हो गई है। आज उन्हें दिन में किसी भी वक्त गर्म पानी के लिए न तो चूल्हा जलाने की जरूरत पड़ती है और न ही किसी तरह का इंतजार करना पड़ता है।
यह कैसे संभव हुआ?
दरअसल, यह डॉ. लाल सिंह के प्रयासों से संभव हुआ है, जिन्होंने अपनी एनजीओ ‘हिमालयन रिसर्च ग्रुप’ के तहत एक सोलर-वॉटर हीटिंग सिस्टम को विकसित किया है, जो कुछ ही मिनटों में 15 से 18 लीटर पानी को गर्म कर देता है। इस सिस्टम को उन्होंने ‘सोलर हमाम’ (Solar Hamam) नाम दिया है और बीते 15 वर्षों के दौरान, हिमाचल प्रदेश, लद्दाख और उत्तराखंड में इसके 1200 से अधिक यूनिट्स लगाए जा चुके हैं।
कहां से मिली प्रेरणा?
डॉ. लाल, 1992 में ‘हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी’ से बॉटनी में पीएचडी करने के बाद एक रिसर्चर के रूप में काम करना चाहते थे, लेकिन उन्हें कहीं अपने मन के मुताबिक मौका नहीं मिला। अंत में, उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर 1997 में ‘हिमालयन रिसर्च ग्रुप’ की शुरुआत की।
इसके तहत, वह गांवों और यहां रहने वालों, खासकर महिलाओं के जीवन स्तर को ऊंचा करने के प्रयासों में लगे थे।
वह कहते हैं, “हमने महिलाओं को आमदनी का जरिया देने और आत्मनिर्भर बनाने के लिए मशरूम फार्मिंग सिखाना शुरू किया। इसके लिए हम वर्कशॉप भी आयोजित करते थे। लेकिन कई महिलाएं हमेशा देर से आती थीं। हमने उनसे इसे लेकर बात की, तो पता चला कि उन्हें जलावन के लिए लकड़ियों की काफी दिक्कत है और इसके लिए 5-10 किलोमीटर दूर जंगल जाना पड़ता है, जिससे काफी समय बर्बाद होता है।”
इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी देखा कि महिलाओं को माहवारी के दौरान, सामाजिक कुप्रथाओं के कारण तीन से पांच दिनों तक घर से बाहर, एक झोपड़ी में रहना पड़ता है। पीरीयड्स के समय महिलाओं को रोज नहाना जरूरी होता है, हाइजीन का ध्यान रखना होता है, लेकिन ऐसे वक्त में उन्हें कई दिनों तक पानी के लिए भी पूछने वाला कोई नहीं होता है।
इन्हीं बातों ने डॉ. लाल को काफी प्रभावित किया और उन्होंने इन महिलाओं के लिए कुछ करने का फैसला किया।
पहला ब्रेकथ्रू कब मिला?
डॉ. लाल ने ‘सोलर हमाम’ (Solar Hamam) का पहला प्रोटोटाइप साल 2007 में बनाया। इस डिजाइन को पूरी तरह से जुगाड़ करके बनाया गया था। उन्होंने इसमें लकड़ी, गैल्वेनाइज्ड आयरन पाइप, कार्बन पेंट और शीशे का इस्तेमाल किया था।
उन्होंने एक साथ 15 प्रोटोटाइप बनाए थे, जिसे शिमला के मूलकोटि गांव में लगाया था। फिर, जम्मू एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, हिमाचल प्रदेश सरकार और केन्द्र सरकार के कई कार्यक्रमों की मदद से उन्होंने शिमला, मंडी, कुल्लू जैसी कई जगहों पर सैकड़ों यूनिट्स लगाए।लेकिन, कुछ वर्षों में इसमें एक दिक्कत आने लगी।
उन्होंने बताया, “पहले बैच में बने यूनिट्स में एक दिक्कत यह थी कि कुछ वर्षों के बाद, इसकी इंटर्नल कोटिंग उजड़ने लगी। इस वजह से पानी का रंग लाल हो जाता था, जो किसी काम का नहीं था। इसके बाद, 2014 में कार्बन पेंट में कुछ मॉडिफिकेशन कर, दूसरी पीढ़ी के सोलर वॉटर हीटिंग सिस्टम को लॉन्च किया गया।”
क्या है खासियत?
इसमें पहले बैच में पानी को गर्म होने में 30-35 मिनट लगते हैं। वहीं, दूसरी बार में सिर्फ 15-20 मिनट। इससे एक दिन में सौ लीटर पानी आसानी से गर्म किया जा सकता है, जो एक परिवार के लिए पर्याप्त है।
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इस प्रोजेक्ट को लद्दाख में धरातल पर उतारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले, जम्मू एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के डॉ. रिजवान राशिद कहते हैं, “वैसे तो सोलर हमाम (Solar Hamam) को चलाने में कभी कोई दिक्कत नहीं होती है। लेकिन हिमालयी क्षेत्रों में दिसंबर और जनवरी के महीनों में भारी ठंड पड़ती है और तापमान शून्य से काफी नीचे चला जाता है। इस वजह से पानी को गर्म होने में थोड़ी परेशानी होती है।”
वहीं, डॉ. लाल बताते हैं, “लोगों को इसका इस्तेमाल करने के दौरान, सबसे बड़ी सावधानी यह बरतनी पड़ती है कि शाम ढलने के बाद, इसमें पानी नहीं बचना चाहिए। अगर पानी रह जाए, तो रात में ठंड के कारण वह जम जाएगा, जिससे पाइप के टूटने का डर रहता है।”
लोगों को कराते हैं जिम्मेदारी का बोध
डॉ. लाल इस यूनिट को लगाने के लिए लाभार्थियों से पैसे लेने के बजाय, लकड़ी लेते हैं। वह कहते हैं, “एक यूनिट को बनाने में करीब 12.5 हजार रुपये का खर्च आता है। वहीं लोगों से लकड़ी लेने के बाद, 10 हजार का खर्च आता है। लकड़ी लेने से हमारे ऊपर से दबाव कम होने के अलावा, उन्हें भी एक जिम्मेदारी का एहसास होता है और वह इसकी अच्छे से देखभाल करते हैं।”
डॉ. लाल इस बात पर जोर देते हैं कि जिस तरह से आज सरकार अन्य सोलर कंपनियों के उत्पादों पर सब्सिडी देती है। अगर वैसी ही सुविधा इस तरह के ग्रासरूट इनोवेशन्स को भी मिले, तो लोगों की जिंदगी में बड़ा बदलाव आ सकता है।
वह बताते हैं कि ‘सोलर हमाम’ (Solar Hamam), नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ सोलर एनर्जी, गुड़गांव से मान्यता प्राप्त है और यह 67 फीसदी दक्ष है। इसमें पानी को 80 से 90 डिग्री सेल्सियस तक गर्म किया जा सकता है, जो फिलहाल किसी भी कमर्शियल सिस्टम से करीब 20 फीसदी ज्यादा है।
उनके अनुसार, एक बार पानी गर्म हो जाने के बाद, उसे खाना पकाने में भी इस्तेमाल किया जा सकता है।
वह कहते हैं, “अगर चूल्हे पर सामान्य रूप से चावल बनाया जाए, तो उसमें कम से कम आधा घंटा लगता है। लेकिन सिस्टम में गर्म पानी से चावल बनाने पर करीब 15 मिनट ही लगते हैं।”
हजारों टन लकड़ियों की बचत
हिमालयी क्षेत्रों में सलाना करीब 10 मीट्रिक टन की खपत सिर्फ जलावन के रूप में होती है। आज ‘सोलर हमाम’ (Solar Hamam) सिस्टम की मदद से लोगों की जलावन पर निर्भरता 40 फीसदी तक कम हो रही है।
डॉ लाल का कहना है कि ऐसे में अगर आज हमारे सिस्टम को बड़े पैमाने पर अपनाया जाए, तो न सिर्फ लोगों का समय बचेगा, बल्कि हर दिन सैकड़ों पेड़ भी बचेंगे और लाखों टन कार्बन डाई ऑक्साइड गैस का उत्सर्जन भी कम होगा।
इस अनूठे प्रयास के लिए डॉ. लाल को साल 2016-17 में ‘हिमाचल प्रदेश स्टेट इनोवेशन अवॉर्ड’ और 2021 में ‘जमनालाल बजाज पुरस्कार’ से सम्मानित किया गया।
अपने प्रयासों से गांवों की जिंदगी आसान बनाने वाले डॉ. लाल को द बेटर इंडिया सलाम करता है।
आप हिमालयन रिसर्च ग्रुप से यहां संपर्क कर सकते हैं।
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