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प्लास्टिक का बढ़िया विकल्प! मकई के छिलके से बनाए कप, प्लेट और बैग्स जैसे 10 प्रोडक्ट्स

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मुजफ्फरपुर के नाज़ ओजैर ने तक़रीबन पांच साल पहले अपने भांजे को कैंसर से खो दिया था। उनका भांजा न ही कोई नशा करता था और न ही स्वास्थ्य से जुड़ी कोई दिक्क्त थी। लेकिन अस्पताल में डॉक्टर से पूछने पर पता चला कि प्लास्टिक के छोटे-छोटे कण भी कैंसर का कारण बन सकते हैं। 30 वर्षीय नाज़, सालों से प्लास्टिक के विकल्प की तलाश कर रहे थे। 

लेकिन भांजे की मृत्यु ने उनके इस शोध कार्य को एक नई गति दे दी और उन्होंने प्लास्टिक के छोटे-छोटे और हर रोज़ उपयोग किए जाने वाले प्रोडट्स को प्राकृतिक चीज़ों से बदलने का फैसला किया।  

M. Tech. की पढ़ाई के बाद, जब नाज़ इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ा रहे थे, तब भी वह बांस और पपीते के पेड़ से कुछ प्रोडक्ट्स बनाने की कोशिश में लगे थे। लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिल पा रही थी।  तभी एक बार उन्होंने देखा कि मकई के खेत में दाने निकलने के बाद भी उनके छिलके लम्बे समय तक ख़राब नहीं हुए थे।  

नाज़ कहते हैं, “मुझे उस दिन लगा कि प्रकृति हमें चीख-चीखकर कह रही है कि मेरा इस्तेमाल करो।”  बस उन्होंने कुछ पत्तों से रिसर्च करना शुरू कर दिया।

उनके पिता प्राइवेट स्कूल में टीचर हैं। नाज़ भी कॉलेज की नौकरी छोड़कर पांच सालों से स्कूल में ही पढ़ा रहे हैं, ताकि ज्यादा समय अपने रिसर्च पर दे सकें।  

 मकई के छिल्के से एक प्रोडक्ट बनाने के बाद, उन्हें विश्वास हो गया कि इससे वह कई और चीजें बना सकते हैं। धीरे-धीरे वह कप, प्लेट, बैनर, बैग्स जैसे प्रोडक्ट्स बनाने लगे। 

आज उनके पास मकई के छिल्कों से बने 10 प्रोडक्ट्स मौजूद हैं। उन्होंने कई सरकारी अधिकारियों को अपने प्रोडक्ट्स दिखाए हैं। आस-पास के कई लोगों से उन्हें धीरे-धीरे कुछ ऑर्डर्स भी मिलने लगे हैं। नाज़ ने अपने इस अविष्कार का पेटेंट भी करवाया है। 

उन्होंने बताया कि ‘डॉ. राजेन्द्र प्रसाद केन्द्रीय कृषि विश्वविद्यालय पूसा, समस्तीपुर’ से वैज्ञानिकों की एक टीम ने उनके प्रोडक्ट को काफी सराहा और इस शोध को आगे बढ़ाने को भी कहा। नाज़ भी ऐसा ही करना चाहते हैं, लेकिन सुविधाओं के आभाव में अपनी रिसर्च को आगे नहीं बढ़ा पा रहे। उन्हें उम्मीद है कि जल्द ही उन्हें सरकारी मदद मिलेगी और वह और अच्छा काम कर पाएंगे।  

नाज़, आने वाले दिनों में इससे और कई तरह के प्रोडक्ट्स बनाने पर भी काम कर रहे हैं। इन ईको-फ्रेंडली प्रोडक्ट्स को बनाने के लिए कच्चा माल भी उन्हें आसानी से मिल जाता है। 

साल में तीन बार मक्के की खेती की जाती है। ऐसे में उनका मानना है कि इससे किसानों को अपनी आय बढ़ाने का भी मौका मिलेगा। 

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