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पुरुष-वेश में क्रांतिकारियों तक हथियार पहुँचाती थी यह महिला स्वतंत्रता सेनानी!

साल 2010 में रिलीज़ हुई आशुतोष गोवरिकर की फ़िल्म ‘खेलें हम जी जान से’ में अभिनेत्री दीपिका पादुकोण ने स्वतंत्रता सेनानी कल्पना दत्त की भूमिका निभाई थी। दीपिका को इस किरदार के लिए काफ़ी सराहा गया। बहुत-से लोगों को शायद यह फ़िल्म देखने के बाद कल्पना दत्त के बारे में पता चला हो। क्योंकि इतिहास की किताबों में भारत की इस महान बेटी को पर्याप्त स्थान नहीं मिला।

27 जुलाई 1913 को चटगांव (अब बांग्लादेश) के श्रीपुर गाँव में एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी कल्पना दत्त ने प्रारंभिक शिक्षा के बाद आगे की पढ़ाई के लिए कोलकाता का रुख किया। यहाँ पर उन्होंने विज्ञान में स्नातक के लिए बेथ्यून कॉलेज में दाखिला ले लिया। कोलकाता आकर उन्हें क्रांतिकारियों के बारे में अधिक जानने-सुनने को मिला।

फिर पता भी नहीं चला कि देश की आज़ादी का सपना देखने वाली कल्पना कब खुद आज़ादी की लड़ाई में कूद गयी। कॉलेज में छात्री संघ के साथ जुड़कर उन्होंने अनेकों छोटे-बड़े कामों को अंजाम दिया। यहीं पर उनकी मुलाकात बीना दास और प्रीतिलता वड्डेदार जैसी कई महिला क्रांतिकारियों से हुई।

कल्पना दत्त (साभार)

प्रीतिलता के ज़रिए उनकी मुलाकात महान क्रांतिकारी ‘मास्टर दा’ सूर्य सेन से हुई और साल 1931 में उन्होंने उनके संगठन ‘इंडियन रिपब्लिकन आर्मी’ को ज्वाइन किया। इन क्रांतिकारियों के लिए कल्पना, प्रीतिलता के साथ मिलकर  चोरी-छिपे इनके ठिकानों पर हथियार पहुँचाती थीं। इसके अलावा, वे दोनों क्रांतिकारियों के लिए बम भी बनाती थीं।

पर चटगांव विद्रोह के बाद कल्पना और उनके कई साथी ब्रिटिश पुलिस की नज़रों में आ गये। ऐसे में, कल्पना कोलकाता से अपने गाँव वापिस आयीं और फिर यहीं से सूर्य सेन और उनके साथियों की मदद करने लगी।

कल्पना और प्रीतिलता को यूरोपियन क्लब पर बम फेंकने की ज़िम्मेदारी दी गयी। इस योजना को अंजाम देने के लिए उन्होंने अपना भेष बदल लिया और पुरुष-वेश में अपनी योजना को अंजाम देने के लिए जुट गयीं। उन्होंने सूर्य सेन से बंदूक आदि चलाने का प्रशिक्षण भी लिया। पर ब्रिटिश पुलिस को उनकी इस योजना की भनक पड़ गयी और तय दिन से लगभग एक हफ्ते पहले उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया।

बाद में, मुकदमे के दौरान उन पर यह आरोप सिद्ध नहीं हुआ और उन्हें छोड़ दिया गया। पर इसके बाद पुलिस ने उनकी हर एक हरकत पर कड़ी नज़र रखनी शुरू कर दी। यहां तक की उनके घर पर भी पुलिस का पहरा लगा दिया गया था। लेकिन वे बड़ी ही चालाकी से पुलिस को चकमा देकर सूर्य सेन की मदद के लिए भाग निकली।

‘मास्टर दा’ सूर्य सेन की प्रतिमा (साभार)

दो साल तक अंडरग्राउंड रहकर उन्होंने अपनी क्रांतिकारी योजनाओं पर काम किया। पर ब्रिटिश पुलिस का शिकंजा क्रांतिकारी गतिविधियों पर कसता ही जा रहा था और फिर अपने गुरु सूर्य सेन के 1933 में गिरफ्तार होने के चंद दिनों बाद उन्हें भी पुलिस ने पकड़ लिया। इस बार के मुकदमे में उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गयी।

21 साल की उम्र में कल्पना को उम्रकैद की सजा मिल चुकी थी। जेल में रहते हुए उन्होंने और न ही किसी और ने कभी सोचा था कि वे फिर कभी किसी रैली, भाषण का हिस्सा बन पाएंगी। पर किस्मत को कुछ और मंजूर था तभी तो महात्मा गाँधी ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ क्रांतिकारियों को रिहा करने के लिए अभियान शुरू कर दिया। महात्मा गाँधी खुद कल्पना से मिलने जेल में गये।

उनके इस अभियान के चलते जिन भी सेनानियों को रिहाई मिली उनमें कल्पना का भी नाम था। साल 1939 में कल्पना जेल से रिहा हुईं। आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए कल्पना ने कलकत्ता विश्वविद्यालय में दाख़िला ले लिया।

स्नातक की डिग्री पूरी करने के बाद वह साल 1943 में पूरन चंद जोशी से विवाह के बंधन में बंध गईं। अपने पति के साथ मिलकर उन्होंने बंगाल अकाल के दौरान पीड़ितों की मदद के लिए खुद को समर्पित कर दिया। उन्होंने रात-दिन राहत कार्यकर्ता के रूप में काम किया।

पुरन चंद जोशी (फोटो साभार)

आज़ादी के बाद उन्होंने अपने स्तर पर लोगों के लिए काम करना जारी रखा। वह बंगाल से दिल्ली आयीं और इंडो-सोवियत सांस्कृतिक सोसायटी का हिस्सा बनीं। साल 1979 में कल्पना को ‘वीर महिला’ की उपाधि से नवाज़ा गया।

8 फरवरी 1995 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा। स्वतंत्र भारत में गुमनामी में अपनी ज़िंदगी गुजारने वाली इस महान क्रांतिकारी की कहानी को उनकी बहु मानिनी ने शब्दबद्ध किया। मानिनी ने अपनी सास से सुने किस्सों पर आधारित एक काल्पनिक उपन्यास, ‘डू एंड डाई: चटग्राम विद्रोह’ लिखा।

‘खेलें हम जी जान से’ फिल्म इसी उपन्यास पर आधारित है। जिस हिम्मत और निडरता से कल्पना दत्त ने खुद को देश के लिए समर्पित कर दिया, उसके लिए वह हमेशा याद की जाएँगी। द बेटर इंडिया इस महान क्रांतिकारी को सलाम करता है!

संपादन – मानबी कटोच 


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